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सेना में शर्मसार करती सेवादार प्रथा

पुलिसकर्मियों और सेना के जवानों को अक्सर अफसरों की निजी सेवा में तैनात कर दिया जाता है. ब्रिटिश काल की यह कुप्रथा आजाद भारत में भी जारी.

अपडेटेड 24 जून , 2012

झारखंड की पुलिस लाइन के मेस नंबर-4 के इंचार्ज 36 वर्षीय कॉन्स्टेबल राकेश कुमार सिंह हैं. फिलहाल उन्हें एक ऐसे आदमी की जरूरत है जो तीन घंटे के भीतर हजार रोटियां बेल सके क्योंकि उनके सबसे अच्छे रसोइए 42 वर्षीय श्रवण दुबे को उस समय वहां से हटा लिया गया जब वह 100 कॉन्स्टेबलों का भोजन बनाने लगा था.

अब दुबे को आधिकारिक तौर पर उपस्थित दिखाया जाएगा और उसे सिपाहियों का खाना बनाने के नाम पर तनख्वाह मिलेगी. हालांकि सचाई यह है कि वह रांची के पुलिस क्लब में स्वादिष्ट पकवान बना रहा होगा जहां मध्यम दर्जे के पुलिस अफसर मनोरंजन के लिए आते हैं.

अफसरों को अपने निजी अर्दली के रूप में पुलिस के सरकारी रसोइये या अन्य कर्मचारियों का इस्तेमाल करने की प्रेरणा दरअसल अपने वरिष्ठों से ही मिली है. मेस नंबर 4 में रसोइये का काम करने वाले 27 वर्षीय अनूप ठाकुर कहते हैं, ''यह नियमित रूप से होता ही रहता है.'' ठाकुर खुद रांची के एसपी सिटी के घर पर पूरे मई माह में खाना पका चुके हैं.

आम तौर पर पुलिस और अर्द्धसैन्य बलों में सिपाहियों की मदद के लिए रसोइयों, नाइयों धोबियों, भिश्ती और सफाई कर्मियों को रखा जाता है, ताकि वे उन जवानों के काम आ सकें जो कानून और व्यवस्था को कायम करने के अभियान में जुटे होते हैं. सामान्य तौर से 150 जवानों की एक पुलिस कंपनी में पांच रसोइये, तीन पानी भरने वाले, एक सफाई कर्मचारी और एक नाई होता है. पर होता यह है कि चौथे दर्जे के कर्मचारी, खास तौर पर रसोइये अफसरों और उनके रिश्तेदारों की खिदमत में लगे रहते हैं जबकि ऐसा कोई प्रावधान नहीं है.sewadar

अकसर आइपीएस अफसर जब केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर जाते हैं, तो अपने पसंद के रसोइये को साथ ले जाते हैं. जाहिर है, चौथे दर्जे का कर्मचारी अपने अफसरों के खिलाफ जबान नहीं खोल सकता क्योंकि पुलिस मैनुअल के मुताबिक पुलिस अधीक्षक स्तर का कोई भी अफसर किसी भी मातहत को काम ठीक से न करने के आरोप में कभी भी बरखास्त करने का अधिकार रखता है.

झारखंड में पुलिस महकमे के भीतर करीब 2,500 चौथे दर्जे के कर्मचारी हैं. बिहार पुलिस ग्रेड 4 कर्मचारी संघ के अध्यक्ष रमाशंकर शर्मा कहते हैं, ''ऐसे ही बिहार में भी करीब 3,000 निचले दर्जे के कर्मचारी हैं जिनमें रसोइये भी शामिल हैं.'' बताया जाता है कि इनमें आधे से ज्‍यादा अफसरों के घरों पर काम करते हैं.

मुश्किल हालात में रहने वाले पुलिसकर्मियों को, यहां तक कि घने जंगलों में रहने वाले जवानों तक को, अपने खाने और पानी का जुगाड़ खुद करना पड़ता है. जवानों को इन कामों के लिए स्थानीय लोगों से मदद लेनी पड़ती है, खासकर तब जब वे नक्सलियों से निबटने के लिए जंगलों के भीतर गश्त लगाने और अभियान चलाने के काम पर जाते हैं. एक वरिष्ठ आइपीएस अफसर का मानना है, ''नक्सल इलाकों में बाहरी लोगों को अभियान में शामिल करने का खतरा यह होता है कि एक तो वे जवानों की लड़ने की क्षमता को प्रभावित करते हैं, दूसरे वे नक्सलियों के मुखबिर के तौर पर काम कर सकते हैं.''

झारखंड के पुलिस महानिदेशक गौरीशंकर रथ कहते हैं कि उनके पास ऐसे कुछ अफसरों की शिकायत आई है जिन्होंने सरकारी कर्मचारियों का इस्तेमाल अपने निजी अर्दलियों के रूप में किया है. उन्होंने बताया, ''ऐसी चीजों के खिलाफ  हम निर्देश जारी कर चुके हैं. इसकी कतई इजाजत नहीं है.'' हालांकि ऐसे आदेशों से उन अफसरों पर कोई फर्क नहीं पड़ता जिनकी आदत चौथे दर्जे के कर्मचारियों से सेवा लेने की हो चुकी है.

सेना और अर्द्धसैनिक बलों में भी सेवादार, अर्दली या बटमैन की परंपरा ब्रिटिश काल से चली आ रही है. इंडिया टुडे ने एक सेवादार जयनंदन सिंह से बातचीत की जो 2011 में 45 वर्ष की उम्र में सेना से रिटायर हो चुका है. बिहार के घोस्तावा गांव के रहने वाले जयनंदन ने उस अफसर का नाम बताने से इनकार कर दिया जिसके लिए वे काम किया करते थे. लेकिन उसने इतना जरूर कहा कि उनके समय में सेना की हालत बहुत खराब थी. उनका कहना है, ''एक सेवादार का काम अफसर को उसके काम के लिए तैयार होने में मदद करना होता है, लेकिन हकीकत में उससे निजी नौकर की तरह काम लिया जाता है.''

जयनंदन की सुबह 5:50 बजे शुरू होती थी और उसका पहला काम अफसर के घर के हर सदस्य के जूते चमकाना होता था. उसके बाद वह सबको चाय देता, फिर बगीचे की सफाई करता और शौचालय साफ करता. अफसर जब काम पर चला जाता, तो वह मेमसाहब का हुक्म बजाने को बाध्य था.

हफ्ते में उसकी एक दिन भी छुट्टी नहीं होती थी. उसे साहब के घर पर खाना भी नहीं मिलता था. रात 10.30 बजे के बाद जब वह लौटता था तो सेना की कैंटीन में खाना खाता. वह बताता है, ''मैं लगातार तनाव में काम कर रहा था. मुझ्से गलत मांग की जाती थी और महीनों तक मुझे परिवार से मिलने नहीं दिया जाता था.''

सेना के कठोर अनुशासन में बंधे सैनिकों के लिए यह तैनाती काफी तकलीफदेह होती है. कोई एक महीने, तो किसी को कई साल इस तरह की सेवादारी करनी पड़ती है. पूर्व सैनिक और उत्तराखंड के चमोली जिला न्यायालय में जिला शासकीय अधिवक्ता-राजस्व के पद पर काम कर रहे धूम सिंह नेगी कहते हैं, ''हर चार में एक सैनिक को सेवादारी पर लगना ही होता है. साथियों की नजर में आ जाने के कारण सेना की सेवा से बाहर आने के बाद भी सेवादारी का यह कष्ट जीवन भर सालता रहता है.''

पूर्व सैनिकों की समस्याओं के निराकरण के लिए सक्रिय पूर्व सैनिक शिवराज सिंह कहते हैं, ''सेना में जब से पढ़े-लिखे युवाओं की संख्या बढ़ी है तब से सेवादारी की ड्यूटी के प्रति सैनिकों का नजरिया बदला है और सेवादारी में लगे सैनिकों में हीनता का भाव बढ़ रहा है.''

पुलिस बल में चौथे दर्जे के कर्मचारियों के साथ और भी बुरा व्यवहार होता है. मार्च में बिहार पुलिस ग्रेड 4 कर्मचारी संघ ने पटना के तत्कालीन एसएसपी आलोक कुमार के खिलाफ  शिकायत की जो अपने घर पर पुलिस बल के रसोइयों से काम लेते थे और छोटी-छोटी गलतियों के लिए उन्हें कड़ी से कड़ी सजा देते थे. डीजीपी अभयानंद को दी गई एक याचिका में संघ ने बताया कि दो रसोइयों दयाशंकर चौबे और विजय प्रसाद ने सब्जी में नमक कम डाला था, जिसके एवज में उन्हें जान निकाल देने वाली धूप में रेत के बोरे लेकर डेढ़ घंटे तक घुटनों के बल चलने जैसी कठोर सजा दी गई थी.

यह आइपीएस अफसर जून, 2011 से अब तक छह रसोइयों को सजा दे चुका है. प्रयाग मंडल को इसलिए निलंबित कर दिया गया क्योंकि उसने कुमार के घर का शौचालय साफ करने से इनकार कर दिया था. एक अन्य रसोइये को इसलिए निलंबित कर दिया गया क्योंकि मछली का एक टुकड़ा नहीं मिल रहा था. जिस दिन इन रसोइयों को डीजीपी के सामने बयान देने के लिए पेश होना था, उससे ठीक एक दिन पहले उन्हें धमकाने के लिए पुलिस ने इनके घरों की तलाशी ली थी. अभयानंद ने 13 जून को इंडिया टुडे को बताया, ''संबंधित अधिकारी से इस सिलसिले में सफाई मांगी गई है लेकिन अब तक जवाब नहीं आया है.''

एक ओर जहां रसोइये अफसरों के घर खाना पकाते हैं, वहीं होमगार्डों की तैनाती अजीबोगरीब काम करवाए जाने के लिए होती है.

46 वर्षीय होमगार्ड शंकर शाह नवादा पुलिस लाइन में खाना पकाते हैं, बाकी के गार्ड झाड़ूं लगाते हैं या बागवानी करते हैं. बिहार पुलिसकर्मी संघ के अध्यक्ष जितेंद्र नारायण का आरोप है कि करीब 20,000 सिपाही-जो मौजूदा पुलिस बल का 20 फीसदी हैं-आइएएस और आइपीएस अफसरों के अर्दली या बॉडीगार्ड के रूप में काम करते हैं.

झारखंड में अवकाश प्राप्त पुलिस अफसरों ने झारखंड सशस्त्र पुलिस के रसोइयों को अपने यहां रखा हुआ है. उप-मुख्यमंत्री और एक अवकाश प्राप्त मुख्य सचिव के घर पर पुलिस रसोइये सेवाएं दे रहे हैं. अफसरों से उन्हें छोड़ने के लिए कहा गया था, लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया. बेशक भारत आजाद हो चुका है लेकिन पुलिस और सेना के अफसरों की अपने मातहतों का शोषण करने की आदतें अभी तक बदली नहीं हैं.

-साथ में अशोक कुमार प्रियदर्शी, विजय देव झा और ओम प्रकाश भट्ट

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