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गॉड पार्टिकल की तलाश का भारतीय कनेक्‍शन

विज्ञान के इतिहास में सबसे लंबे और सर्वाधिक महंगे प्रयोग का भारत से गहरा रिश्ता है. हिग्स बोसॉन की तलाश का एक सिरा भारतीय वैज्ञानिक सत्येंद्र नाथ बोस से जाकर जुड़ता है.

अपडेटेड 10 जुलाई , 2012

महाप्रयोग के प्रवक्ता फाबियोला गियानोती ने अपने अभिभाषण के अंत में कहा, ''शुक्रिया कुदरत का.'' ये महज शब्द नहीं थे, विज्ञान के इतिहास में सबसे महंगी और सबसे लंबी मानी जाने वाली तलाश के अंत की शुरुआत में सामूहिक राहत की एक आवाज थी!

हिग्स कण की तलाश उस ब्रह्मांड में पदार्थ के स्त्रोत की नई समझ का सूत्रपात करेगी, जो 13.4 अरब वर्ष पहले महज कुछ पल में जन्मा था. जाहिर है, ब्रह्मांड में अस्तित्व और उसकी विविधता की समझ की यह कुंजी होगी.

भौतिक विज्ञानियों का मानना है कि हिग्स कण की खोज दुनिया की सबसे विशाल और सर्वाधिक महंगी प्रयोगशाला में हुई है, जो कि 27 किमी की परिधि में है, सतह से 100 मीटर नीचे फ्रांस और स्विट्जरलैंड की सीमा के आरपार फैली हुई है. जिस मशीन के भीतर यह प्रयोग संभव हुआ है, वह लार्ज हैड्रॉन कोलाइडर दरअसल अरबों डॉलर की कीमत वाली जटिल मशीनों का एक सिलसिला है, जिसे जिनेवा स्थित अखिल यूरोपीय संगठन सीईआरएन परिचालित करता है.

यही वह जगह है जहां इंटरनेट समेत ढेरों अन्य चीजों की खोज हुई थी. यहीं आज विज्ञान के इतिहास में एक और महान खोज संभव हो सकी है. ब्रिटेन के एडिनबरा विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले भौतिक विज्ञानी प्रोफेसर पीटर हिग्स ने 40 साल पहले जब हिग्स कण के अस्तित्व की भविष्यवाणी की थी, तभी से दुनिया इसका इंतजार कर रही थी. हाल के वर्षों में हिग्स कण को लेकर चलने वाली अफवाहें ट्विटर पर सबसे लोकप्रिय चीजों में एक रही हैं.

भौतिकशास्त्र की सैद्धांतिकी कहती है कि जिस वक्त ब्रह्मांड जन्मा था, उस पल इसमें मौजूद सभी कण द्रव्यमान रहित थे, लिहाजा प्रकाश की गति से चलते थे. ब्रह्मांड के पैदा होने के खरबवें सेकंड के भीतर एक ऐसा सर्वव्यापी और अदृश्य वातावरण अचानक पैदा हो गया जिसने इन कणों में द्रव्यमान पैदा कर दिया. इस वातावरण को ''हिग्स फील्ड'' कहते हैं और उसका प्रतिनिधित्व करने वाला इकलौता कण अगर कोई है तो वो है हिग्स बोसॉन.

अगर मैं जमीन पर दौड़ता हूं तो मेरी गति सबसे तेज होगी. वहीं अगर मैं पानी में या रेत पर दौड़ना चाहूं, तो उतना ही बल लगाकर भी पहले जितनी गति प्राप्त नहीं कर सकता. दरअसल, मेरी गति उस माध्यम से प्रभावित होती है, जिसमें मैं दौड़ता हूं, यानी हवा, रेत और पानी. यही माध्यम मुझे गति प्राप्त करने से रोकता है.

यदि उतनी ही ऊर्जा किसी कण के समूह में प्रवाहित कर दी जाए, तो ज्‍यादा भारी कणों की गति धीरे होगी जबकि ज्‍यादा हलके कणों की गति उनसे तेज होगी. इसका इकलौता अपवाद फोटॉन है, वह कण जिससे प्रकाश बनता है. हिग्स फील्ड के भीतर भी फोटॉन का द्रव्यमान शून्य होता है, वह भार प्राप्त नहीं कर पाता, इसीलिए उस अधिकतम गति से यात्रा कर पाने में सक्षम होता है जो प्रकृति द्वारा मान्य हो-यानी प्रकाश की गति.

विशाल हैड्रॉन कोलाइडर के भीतर प्रोटॉन जैसे कणों को प्रकाश की गति के करीब की गति पर दौड़ाया गया और भूमिगत अंधेरी सुरंगों में उनकी टक्कर करवाई गई. यह टक्कर ऊर्जा पैदा करती है जो चमक के रूप में दिखाई देती है. इसी टक्कर के परिणामस्वरूप इलेक्ट्रॉन, क्वार्क और अन्य द्रव्ययुक्त कण पैदा होते हैं. यदि हमारी सैद्धांतिक प्रस्थापना सही है, तो इनमें से कुछ कण निश्चित तौर पर हिग्स कण होंगे. बीती 4 जुलाई को जिस कण की खोज की घोषणा की गई, वह कण भी इनमें शामिल होगा.

ऐसा इसलिए क्योंकि हिग्स फील्ड एक नहीं, कई किस्म के कणों से मिलकर बना होता है. इस टक्कर में दरअसल जो कुछ हुआ है, उसका विवरण सुरंग के किनारे पर लगे तमाम उपकरणों के विश्लेषण से ही पता चल पाएगा. यह प्रयोग इस साल के अंत तक चलेगा और वैज्ञानिकों को यह पता लगाने में एक दशक लग सकता है कि क्या वास्तव में हिग्स कण पैदा हुआ था? इसके लिए उन्हें तमाम आंकड़ों का विश्लेषण करना होगा. यह लंबी प्रक्रिया है जिसके अंत में जाकर हिग्स कण की पुष्टि होगी.

हिग्स बोसॉन को ''गॉड पार्टिकल'' की उपमा नोबेल पुरस्कार विजेता अमेरिकी भौतिक विज्ञानी लियोन लेदरमैन ने दी थी क्योंकि यह सर्वव्यापी और सर्वत्र है. वैज्ञानिक अकसर 'गॉड' शब्द का प्रयोग तब करते हैं जब उन्हें लगता है कि किन्हीं धर्मों द्वारा बताए गए लक्षणों में से कोई एक दैवीय लक्षण उनके निष्कर्षों से मेल खाता है.

इस किस्म की बुनियादी खोज दरअसल न सिर्फ पदार्थ की प्रकृति को समझने में मदद करती है बल्कि शोध के अकल्पनीय रास्ते हमारे सामने खोल देती है. मसलन, जब बीसवीं सदी के आखिरी दिनों में इलेक्ट्रॉन की खोज हुई थी, तो किसी ने कल्पना नहीं की थी कि हमारे आज के जीवन पर इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का इतना ज्‍यादा असर होगा. वक्त ही बताएगा कि हिग्स कण की खोज हमें कहां ले जाएगी.

इस प्रयोग में शामिल 6,000 वैज्ञानिकों में कई भारतीय भी हैं जो साहा इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूक्लियर फिजिक्स, कोलकाता और टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च, मुंबई के हैं. भारत के साथ इस प्रयोग के और गहरे रिश्ते हैं. सभी मूलभूत कण दो किस्म की श्रेणियों में बांटे गए हैं- फर्मियॉन और बोसॉन. हिग्स कण बोसॉन की श्रेणी में आता है. कणों की बोसॉन श्रेणी का नाम भारतीय भौतिक विज्ञानी सत्येंद्र नाथ बोस के नाम पर पड़ा है, जिन्होंने एक सदी पहले अलबर्ट आइंस्टीन के साथ मिलकर ऐसे कणों की प्रकृति के बारे में दुनिया को पहली बार बतलाया था.

लेखक यूनिवर्सिटी ऑफ  बर्मिंघम यूके में खगोलविज्ञानी हैं और जल्द ही प्रेसिडेंसी यूनिवर्सिटी, कोलकाता में भौतिकशास्त्र विभाग के प्रमुख का पद संभालेंगे.

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