
पहलगाम आतंकी हमले के बाद भारत की तरफ से जवाबी कार्रवाई में किए गए ऑपरेशन सिंदूर के बाद पाकिस्तान ने लगातार एयर स्ट्राइक्स कीं, जिनका भारतीय एयर डिफेंस सिस्टम ने भरपूर जवाब भी दिया. भारत इन एयर स्ट्राइक्स का जवाब समय रहते कैसे दे पाया? जवाब है ‘जानकारी’.
सामने वाले की फ़ायर पावर के हिसाब से अपनी मिलिट्री इंटेल को लगातार अपडेट रखना ही होता है. यही स्टैण्डर्ड ऑपरेटिव प्रोसीजर है. मिलिट्री इंटेलिजेंस का ये खेल हर देश हर समय अपने हिसाब से खेलता रहता है. इसमें दुश्मन के बारे में राई रत्ती जानकारी जुटाना शामिल होता है.
कोई भी देश हथियार दो ही तरीकों से हासिल करता है. पहला, या तो हथियार अपने ही देश में बनाया जाए. या फिर दूसरा कि, उन देशों से हथियार खरीदे जाएं जो मिलिट्री एक्सपोर्ट के लिए हथियार बनाते और बेचते हों. रूस, अमेरिका, फ्रांस, चीन बहुत पहले से हथियारों का मिलिट्री एक्सपोर्ट वर्जन बनाते और बेचते आए हैं. लेकिन क्या हो अगर, इनमें से कोई देश कोई ऐसा घातक हथियार बना ले जिसकी तकनीक वो किसी भी हाल में किसी और देश के साथ ना तो साझा करे और ना उसका मिलिट्री एक्सपोर्ट वर्जन बनाए?
यहीं बात फंस जाती है, और जानकारी के लिहाज से उस देश का वो हथियार बाकी के देशों के लिए असहज स्थिति पैदा कर देगा. ऐसा हर वो देश करता है जो हथियार बनाता है. कुछ सीक्रेट वो कभी किसी से शेयर नहीं करता. और क्या हो अगर जानकारी के इस खेल में एक खिलाड़ी रूस और दूसरा अमेरिका हो. आज आपको सोवियत रूस और अमेरिका के बीच चले शीत युद्ध का एक ऐसा ही किस्सा बताते हैं जब अमेरिका ने बाकायदा तैयारी करके सोवियत रूस का एक हेलिकॉप्टर चुरा लिया था.

एक ‘टैंक’ जो उड़ सकता था
साल 1988 की बात है. एक ऐसी रात की कहानी, जब सेंट्रल अफ्रीका में चाड के उत्तरी रेगिस्तान में अमेरिका ने एक ऐसा दांव खेला, जिसने शीत युद्ध की किताबों में एक नया अध्याय जोड़ दिया. ये कहानी है ‘ऑपरेशन माउंट होप’ की- एक ऐसा सुपर सीक्रेट मिशन, जिसमें अमेरिकी सैनिकों ने चाड की धरती से सोवियत संघ (तब रूस नहीं हुआ था) का Mi-24 हमलावर हेलिकॉप्टर, जिसे Mi-25 के नाम से भी जाना जाता है, चुरा लिया. ये हेलिकॉप्टर कोई साधारण मशीन नहीं था, बल्कि एक ‘उड़ता हुआ टैंक’ कहा जाता था, जिसे अमेरिका सालों से रिवर्स इंजीनियरिंग करके बनाना चाहता था. अमेरिका की सीक्रेट एजेंसी सीआईए ने कई कोशिशें कीं लेकिन इस हेलिकॉप्टर की तकनीक तक पहुंचना उनके लिए मुमकिन नहीं हो पाया. ये जंगी हेलिकॉप्टर जिसे नाटो ने ‘हिंद’ नाम दिया था, उस समय हवा में उड़ती मौत से कम नहीं था.
टोयोटा वॉर: एक जंग जिसने सब कुछ बदल दिया
कहानी की शुरुआत 1986-87 के टोयोटा वॉर से होती है. अफ्रीका में चाड और लीबिया के बीच सीमा पर झड़पें चल रही थीं. और ये झड़पें नई नहीं थीं. चाड और लीबिया की बॉर्डर से लगी औज़ू स्ट्रिप से तेल निकालने के लिए ये दोनों आपस में लड़ते रहते थे. 1978 से 86 तक ये जारी ही रहा. चाड के उत्तरी हिस्से में लीबिया के बॉर्डर से सटे 100 किलोमीटर के इस स्ट्रिप के लिए चल रही लड़ाई में चाड ने ऐसा कारनामा कर दिखाया जिसने पूरी दुनिया को हैरान कर दिया.
चाड के पास ज्यादा हथियार नहीं थे, लेकिन टोयोटा पिकअप ट्रकों- जिन्हें ‘टेक्निकल्स’ कहते हैं- के सहारे उन्होंने लीबिया की अच्छी-खासी सेना को धूल चटा दी. लीबिया के पास सोवियत हेलिकॉप्टर, बख्तरबंद टैंक और उस समय की सबसे उन्नत तकनीक थी, लेकिन हार कर उन्हें भारी नुकसान के साथ भागना पड़ा. इसी लड़ाई को मिलिट्री हिस्ट्री में ‘टोयोटा वॉर’ कहा जाता है. भागते वक्त लीबिया ने अपने ढेर सारे हथियार और उपकरण वहीं छोड़ दिए. इनमें एक खजाना था- Mi-25 हिंद हेलिकॉप्टर, जो सोवियत Mi-24 का एक्सपोर्ट वर्जन था.

अमेरिका के लिए यह एक सुनहरा मौका था. सालों से अमरीकी इस हेलिकॉप्टर की तकनीक को करीब से देखना चाहते थे, ताकि सोवियत तकनीक की रिवर्स इंजीनियरिंग करके ऐसा ही मारक जंगी हेलिकॉप्टर तैयार कर सकें. लेकिन करीब दस टन वजनी इस हेलिकॉप्टर को चोरी कर ले जाना कोई बच्चों का खेल नहीं था. इसके लिए एक जबरदस्त प्लान की जरूरत थी, और यहीं से ऑपरेशन माउंट होप की नींव पड़ी.
रेगिस्तान की चुनौती और उसकी तैयारी
माइकल जे. डूरंट ने अपनी किताब 'नाइट स्टॉकर्स: न्यू यॉर्क' में लिखा है कि इस ऑपरेशन में अमेरिका रत्ती भर भी रिस्क नहीं लेना चाहता था. इसलिए अमेरिकी कमांडो के 160 स्पेशल ऑपरेशन (एविएशन रेजिमेंट) को इस ऑपरेशन का जिम्मा सौंपा गया. इन खास कमांडोज़ को दुनिया भर में ‘नाइट स्टॉकर्स’ कहा जाता था.
हर हाल में सौ फीसद नतीजे देने वाले ‘नाइट स्टॉकर्स’ रात के ऑपरेशन करने में महारत हासिल कर चुके थे. अप्रैल 1988 में, उन्होंने इस ऑपरेशन की तैयारी शुरू की. सबसे पहले, उन्होंने अमेरिका में ही एक सिमुलेशन किया. सिमुलेशन का मतलब कि असली लगने वाला एक ऐसा ‘नकली मिशन’ जिसमें सारे हालात वैसे ही होंगे जो असली मिशन में होंगे. ताकि ऑपरेशन के दौरान कोई भी सिचुएशन कमांडोज़ के लिए नई ना हो.
दो MH-47D चिनूक हेलिकॉप्टरों को एक US एयर फोर्स C-5 गैलेक्सी विमान में लोड किया गया और न्यू मैक्सिको के रॉसवेल ले जाया गया. वहां से चिनूक हेलिकॉप्टरों ने टेक्सास के बिग्स आर्मी एयरफील्ड तक उड़ान भरी, जो चाड की दूरी की नकल थी. कई सौ मील लगातार उड़ते रहने में क्या दिक्कतें आएंगी ये जानना ज़रूरी था. इस दौरान चिनूक हेलिकॉप्टरों को हवा में ही रिफ्युल करने की तैयारी भी की गई.

अब बारी थी ‘भार उठाने’ की तैयारी की
इस अभ्यास में चिनूक हेलिकॉप्टरों ने 500 गैलन पानी से भरे 6 कंटेनरों को स्लिंग लोड के जरिए उठाया, ताकि Mi-24 के वजन की तरह हालात बनाए जा सकें. रात में न्यू मैक्सिको के व्हाइट सैंड्स के ऊपर से उड़ते हुए, दोनों हेलिकॉप्टरों को दो बार उतरना पड़ा और C-130 विमानों से ईंधन भरवाना पड़ा. अब बारी थी काग़ज़ के गुलाब की जगह असली गुलाब चुराकर लाने की. और कांटों का आपने चाहे जितना अभ्यास कर लिया हो, कांटों में भी चौंकाने का हुनर तो होता ही है. 21 मई 1988 को ‘नाइट स्टॉकर्स’ को मिशन को अंजाम देने का आदेश मिल गया.
मिशन की रात: रेगिस्तान में हौसले की उड़ान
जून का दूसरा हफ़्ता और साल 1988. दोनों चिनूक हेलिकॉप्टर एक ऐसे मिशन पर जाने को तैयार थे जिसमें हर कदम पर उनका सामना मुश्किलों से ही होना था. 550 मील की सीधी उड़ान इन्हीं मुश्किलों में से एक थी. लेकिन सब कुछ तैयार था. केंटकी के फोर्ट कैंपबेल से C-5 गैलेक्सी ने उड़ान भरी, जिसमें दो MH-47D चिनूक हेलिकॉप्टर, 60 से ज्यादा क्रू और मेंटेनेंस कर्मी थे. चाड के न’दजामेना हवाई अड्डे पर खामोशी से उतरने के बाद, आधी रात को दोनों चिनूक हेलिकॉप्टरों ने उड़ान भरी, बॉर्डर पर उस जगह की तरफ, जहां Mi-24 हेलिकॉप्टर इन कमांडोज़ का इंतजार कर रहा था.
उड़ान आसान नहीं थी, क्योंकि चिनूक में हवा में ईंधन भरने की सुविधा नहीं थी, लेकिन अमरीकी एयर फ़ोर्स ने एक खास सिस्टम बनाया था- हेलिकॉप्टर के अंदर अतिरिक्त ईंधन टैंक लगाए गए जिनकी वजह से 600 गैलन ईंधन का 5,000 पाउंड वजन बढ़ गया था. इन हेलिकॉप्टरों को रात में बिना किसी निशान के उड़ना था. उनके पास सिर्फ दो नेविगेशनल टूल्स थे- ओमेगा, एक लंबी दूरी का रेडियो नेविगेशन सिस्टम, और डॉप्लर रडार. सवेरा होने से ठीक पहले, सूरज की पहली किरणें आदौन की हवाई पट्टी पर पड़ीं, और क्रू ने एयर गनशिप हेलिकॉप्टर को देख लिया.

Mi-24: ‘उड़ता हुआ टैंक’ जिसने दुनिया को हैरान किया
Mi-24 हेलिकॉप्टर को देखते ही समझ आ जाता है कि ये कोई साधारण हेलिकॉप्टर नहीं है. इसे 1960 के दशक में सोवियत संघ ने बनाया था. जवाब में अमेरिका ने AH-1 कोबरा हेलिकॉप्टर बनाया था, जिसने वियतनाम युद्ध में अपनी ताकत दिखाई थी. Mi-24 को एंटी टैंक मिशन और करीबी हवाई सहायता के लिए डिज़ाइन किया गया था. इसकी खासियत थी इसका बड़ा केबिन, जिसमें 8 पूरी तरह सशस्त्र सैनिक बैठ सकते थे.
इसके कई वेरिएंट्स थे. Mi-24A पहला प्रोडक्शन मॉडल था, जबकि Mi-24P में एक शक्तिशाली 23mm तोप लगाई गई थी, जो टैंकों और बख्तरबंद वाहनों को निशाना बना सकती थी. 1980 के बाद ये हेलिकॉप्टर 60 से ज्यादा देशों में इस्तेमाल हुआ. इसीलिए इस हेलिकॉप्टर को सिर्फ हथियार नहीं, बल्कि एक उड़ता हुआ टैंक माना जाता था, जो जंग के मैदान में तबाही मचा सकता था.
चारों तरफ़ खतरे के बीच चुराया गया हेलिकॉप्टर
सीन नायलर अपनी किताब रिलेंटलेस स्ट्राइक: दी सीक्रेट हिस्ट्री ऑफ जॉइंट सीक्रेट ऑपरेशंस में बताते हैं कि आदौन में दोनों चिनूक हेलिकॉप्टर Mi-24 के पास उतरे. लेकिन खतरा अभी टला नहीं था. औज़ू स्ट्रिप के पास लीबिया और चाड की सेनाएं सिर्फ कुछ मील दूर थीं. अगर लीबिया को इस मिशन का पता चल जाता, तो वो हमला कर सकते थे.
क्रू ने तेजी से काम शुरू किया. Mi-24 के रोटर ब्लेड्स बड़े थे, इसलिए उन्हें हटाकर एक C-130 विमान में ले जाया गया. चिनूक हेलिकॉप्टरों में डबल हुक सिस्टम था, जो 90 नॉट्स (लगभग 104 मील प्रति घंटा) की रफ्तार से लोड को उठा सकता था.

Mi-24 को स्लिंग लोड में बांधकर चिनूक ने वापसी की उड़ान भरनी शुरू की. रास्ते में दो बार रुकना पड़ा- पहले फाया लार्जो में, जहां US एयर फोर्स ने एक रिफ्यूलिंग पॉइंट बनाया था, और फिर मूसोरो में फ्रेंच फॉरेन लीजन के हवाई अड्डे पर. दोनों जगहों पर Mi-24 को जमीन पर उतारना और फिर से लोड करना जोखिम भरा था, लेकिन कमांडोज़ और क्रू ने ये कर दिखाया.
रेत के तूफान में आखिरी चुनौती
जब न’दजामेना से चिनूक सिर्फ 45 मिनट दूर थे, तब एक नई मुसीबत सामने आई- रेत का तूफान. ये इतना बड़ा था कि 3,000 फीट ऊपर तक रेत उड़ रही थी. सामान्य हालात में पायलट तूफान के ऊपर उड़ जाते, लेकिन Mi-24 के भारी वजन के साथ ये मुमकिन ही नहीं था. दोनों हेलिकॉप्टरों ने अपनी रफ्तार कम की और एक मील का फासला बनाया. रेडियो संपर्क टूट गया, और वो एक-दूसरे को देख भी नहीं पा रहे थे.
हवाई अड्डा 15 मील दूर था, लेकिन तूफान तेजी बढ़ रहा था. कमांडर ने फैसला लिया- हेलिकॉप्टर को जल्दी से उतारना होगा. पहला चिनूक तेजी से हवाई अड्डे पर पहुंचा और Mi-24 को उतारकर लैंड कर गया. दूसरा चिनूक तूफान की दीवार से निकला और हवा की दिशा से उलट लैंडिंग करने में कामयाब रहा. अगले 20 मिनट तक हर कोई हेलिकॉप्टरों के अंदर ही रहे, जबकि रेत उनके चारों ओर बवंडर की तरह उड़ती रही. दूसरी तरफ डर ये भी था कि इतने तूफ़ान में अगर चिनूक को निशाना बनाया गया दुश्मन की तरफ से तो बचने का कोई उपाय नहीं था.

वापसी और जीत का जश्न
जब तूफान थमा, तो लोग बाहर निकले. चारों ओर रेत ही रेत थी, लेकिन उनके चेहरे पर जीत की मुस्कान थी. क्योंकि दुनिया में इस तरह का इकलौता ऑपरेशन करके ये क्रू और अमरीकी एयर फ़ोर्स ने हवाई जंग का इतिहास बदल दिया था. बेहद टाइट टाइम लाइन पर काम करते हुए ये कमांडो इतने सतर्क रहे कि नाकामयाब होने के किसी मौक़े को इन्होने कामयाब होने नहीं दिया. इस एक चोरी से कोल्ड वॉर का चेहरा बदल गया. फोर्ट कैंपबेल पहुंचकर इस मिशन को इतिहास की किताबों में दर्ज कर दिया गया.
ये ऑपरेशन इतना सीक्रेट रखा गया कि अमरीकी एयर फ़ोर्स के जिस दस्ते ने इसे अंजाम दिया उसमें काम करने वाले बाकी के कमांडो भी इसके बारे में कभी जान नहीं सके. रूस और अमेरिका दोनों इस मामले पर आज तक चुप्पी साधे हुए हैं लेकिन ‘हिंद’ की रिवर्स इंजीनियरिंग करके जो अडवांस एयर गनशिप बनाई गईं वो गाहे-बगाहे गरजदार लहजे में बोलती रहती हैं.