इलाहाबाद के न्यू पट्टा में रहने वाले और पेशे से इंजीनियर राजेश कुमार मिश्र के चेहरे पर आज संतुष्टि का भाव है. वजह यह है कि उनकी सबसे छोटी बेटी सोनम को इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करते ही अच्छी नौकरी मिल गई. सोनम ने इलाहाबाद के यूनाइटेड ग्रुप ऑफ इंजीनियरिंग से इसी वर्ष बीटेक की पढ़ाई पूरी की और कैंपस इंटरव्यू में उनका चयन इन्फोसिस कंपनी में हो गया.
राजेश कहते हैं, ''घर के पास ही अच्छी तकनीकी शिक्षा उपलब्ध होने के कारण मैंने अपने बच्चों को इलाहाबाद में ही पढ़ाने का फैसला किया. सोनम से पहले मेरे बड़े बेटे ने 2008 में यूनाइटेट इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से एमसीए कर नोएडा की एक निजी कंपनी में सॉफ्टवेयर इंजीनियर की नौकरी पाई. अब लगता है, मेरा फैसला सही था.''
यही नहीं, ग्रेटर नोएडा स्थित गलगोटियाज कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग और टेक्नोलॉजी के छात्र नवीन गोस्वामी की कामयाबी भी गजब की है. बीटेक के इस छात्र को अमेरिकी कंपनी हेलिक्स ने 50 लाख रु. सालाना के पैकेज पर नौकरी दी है.
इन दिनों उत्तर प्रदेश के तकनीकी शिक्षण संस्थान कामयाबी के नए मुकाम हासिल कर रहे हैं. आज से कोई 15-16 साल पहले तकनीकी शिक्षा के लिहाज से उत्तर प्रदेश को 'बंजर' ही माना जाता था. तब सरकारी क्षेत्र से इतर निजी क्षेत्र में तकनीकी शिक्षा का परिदृश्य काफी धुंधला था. नतीजतन, बड़ी संख्या में छात्र इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के लिए दक्षिणी राज्यों का रुख करते थे.
मगर बीते 10 साल से राज्य में तकनीकी और पेशेवर शिक्षा का परिदृश्य तेजी से बदला है. 2001-02 में जहां बीटेक के लिए राज्य में केवल 43 संस्थान थे, वहीं पांच साल बाद 2006-07 में इनकी संख्या बढ़कर 91 हो गई है.
2011-12 में इन संस्थाओं की कुल संख्या 291 है. तकनीकी शिक्षा से जुड़े संस्थानों की संख्या में तेजी से इजाफा होने का मुख्य कारण छात्रों में रोजगारोन्मुखी कोर्सेज के प्रति बढ़ता रुझान है. यही वजह है कि राज्य में लखनऊ की गौतम बुद्ध टेक्निकल यूनिवर्सिटी (जीबीटीयू) और नोएडा की महामाया टेक्निकल यूनिवर्सिटी (एमटीयू) से संबद्ध तकनीकी और पेशेवर शिक्षण संस्थानों की संख्या 750 तक पहुंच गई है, जिनमें 3,50,000 छात्र पढ़ाई कर रहे हैं.
छात्रों और अभिभावकों के इस बदले रवैये ने तकनीकी और पेशेवर कॉलेजों के सामने एक चुनौती पेश की हैः गुणवत्तापरक शिक्षा की. यदि गुणवत्ता सुनिश्चित नहीं हो सकी तो राज्य में तकनीकी शिक्षा के विकास के आंकड़ों में बढ़ोतरी की बात करना बेमानी है. सो अच्छे और खराब संस्थानों के बीच फर्क बढ़ता जा रहा है. यही वजह है कि टेक्निकल यूनिवर्सिटी से जुड़े 30 फीसदी संस्थानों की पूरी सीटें नहीं भर पा रहीं.
यूनाइटेड ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूशंस के चेयरमैन सतपाल गुलाटी इसके एक पक्ष की ओर ध्यान दिलाते हैं. वे कहते हैं, ''पैसे वालों के पास जहां जमीन थीं, वहीं पर उन्होंने इंजीनियरिंग या मैनेजमेंट कॉलेज खोल लिए. मगर छात्रों की उपयोगिता पर कोई ध्यान नहीं दिया. ऐसे संस्थान छात्रों को आकर्षित करने में फेल हो रहे हैं. यही वजह है कि 150 से ज्यादा संस्थानों ने अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद से बंदी की अनुमति मांगी है.''
हालांकि इसका एक पहलू यह है कि जितनी तेजी से निजी कॉलेजों का विस्तार हुआ, उस अनुपात में इन कॉलेजों को गुणवत्तापरक मानव संसाधन नहीं मिल पाए और इसका असर पढ़ाई पर भी पड़ा. अगर एक ओर ऐसे कॉलेज हैं जो अपनी निर्धारित छात्र संख्या पूरी नहीं कर पा रहे हैं तो दूसरी ओर ऐसे भी संस्थान हैं जो लगातार अपनी गुणवत्ता में इजाफा कर छात्रों के आकर्षण का केंद्र बने हुए हैं.
आखिर तकनीकी शिक्षा के मामले में गुणवत्ता की कसौटी क्या है? लखनऊ के श्री रामस्वरूप मेमोरियल कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग ऐंड मैनेजमेंट (एसआरएमसीईएम) लखनऊ से इसी वर्ष बीटेक करने वाली रुचिरा शुक्ल बताती हैं, ''अच्छी फैकल्टी, लैब और प्लेसमेंट के आधार पर किसी भी संस्थान की क्वालिटी आंकी जा सकती है.''
कॉलेजों को भी इसका अंदाजा है और अब इन तीनों बिंदुओं पर तकनीकी संस्थानों ने अपना पूरा ध्यान लगा दिया है. आइआइटी-कानपुर के गोल्ड मेडलिस्ट और श्री रामस्वरूप मेमोरियल ग्रुप ऑफ प्रोफेशनल कॉलेजेज के एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर पंकज अग्रवाल ने अपने संस्थान में लैब की क्वालिटी पर खासा ध्यान दिया है. वे नियमित रूप से अपने संस्थान के सभी लैब्स की निगरानी करते हैं. हर लैब के लिए अलग से मैनुअल तैयार किए गए हैं जिन्हें प्रत्येक सेमेस्टर से पहले छात्रों प्तको दे दिया जाता है.
पंकज बताते हैं, ''हमारे सभी लैब्स के उपकरणों की सेंसिटिविटी रेंज बहुत ज्यादा है. अब तो बाजार में बनी-बनाई लैब किट भी आती हैं लेकिन हमारे संस्थान में इनका कोई उपयोग नहीं होता. छात्रों को लैब से जुड़े बेसिक फॉरमेशन खुद ही करने पड़ते हैं.''
कानपुर इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के सचिव अनिल अग्रवाल भी कानपुर आइआइटी के पूर्व छात्र हैं. अनिल ने भी अपने संस्थान के सभी लैब्स का निर्माण आइआइटी और अन्य ख्याति प्राप्त तकनीकी संस्थानों के विशेषज्ञों की निगरानी में कराया है. वे कहते हैं, ''तकनीकी कॉलेजों के बीच अब प्रतिस्पर्धा काफी बढ़ गई है. सभी संस्थान अब अपने आप को हर तरह से दुरुस्त करने के हरसंभव प्रयास में लगे हैं. इसने शिक्षा की गुणवत्ता के स्तर को ऊंचा किया है.''
कई बार हिंदी माध्यम से पढ़ाई करने वाले छात्रों को भी अंग्रेजी में इंजीनियरिंग की किताबें पढ़ने में दिक्कतों से दो-चार होना पड़ता है. झांसी के एसआर ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूशंस के चेयरमैन सुरेंद्र राय बताते हैं, ''हमारे संस्थान का रिसर्च एंड डेवलेपमेंट विभाग इंडस्ट्री की मांग पर नजर रखता है. इसी के मुताबिक हम अपने छात्रों को ढालते हैं.''
छात्रों को रोजगार मिलने की संभावनाएं उनके व्यक्तित्व विकास पर भी निर्भर करती हैं और बगैर आकर्षक कम्युनिकेशन स्किल के व्यक्तित्व विकास संभव नहीं है. श्री राममूर्ति स्मारक कालेज ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी के चेयरमैन देवमूर्ति अग्रवाल बताते हैं, ''छात्रों का पर्सनालिटी डेवलपमेंट बगैर कम्युनिकेशन स्किल के संभव नहीं है. इसी को ध्यान में रखते हुए हमने अपने संस्थान में लैंग्वेज लैब की स्थापना की है.''
करीब सभी बड़े संस्थान नियमित रूप से अब अपने यहां पढ़ाई से इतर गतिविधियों को बढ़ावा देने लगे हैं. जीएलए ग्रुप ऑफ कॉलेजेज के प्रमुख नारायण दास अग्रवाल बताते हैं, ''इंडस्ट्री की मांग में भी परिवर्तन हुआ है. अब एक छात्र में केवल अच्छे टीम लीडर के गुण ही नहीं परखे जाते बल्कि यह भी देखा जाता है कि उसमें एक अच्छा टीम मेंबर बनने के गुण हैं कि नहीं.''
बहरहाल भले ही प्रदेश में तकनीकी शिक्षा वह पहचान हासिल नहीं कर पाई है जैसा कि देश के कुछ अन्य राज्यों की स्थिति है लेकिन इतना जरूर है कि कुछ संस्थान अपनी खुद की कोशिशों से पेशेवर शिक्षा को नई उड़ान और दिशा देने की कोशिश जरूर कर रहे हैं.