कहानीकार प्रेम भारद्वाज के इस संग्रह की अधिकांश कहानियों में राजनैतिक और सामाजिक शक्तियों के खिलाफ प्रतिरोध की आकुल अभिव्यक्ति है. सामाजिक सरोकारों के प्रति सचेत रचनाकार ने हमारे आसपास की दृश्य-अदृश्य हकीकतों, बेचैन कर देने वाली घटनाओं और टूटते-बिखरते जीवन के मूर्त-अमूर्त ब्यौरों को पूरे पैनेपन से उकेरा है.
गांव हो या शहर, निम्न वर्ग हो या मध्यवर्ग, राजनैतिक, प्रशासनिक दांवपेंच से त्रस्त आमजन की कातर पुकार हो या सरकारी दमन की शिकार स्त्री की व्यथा-कथा-कहानीकार की दृष्टि से कुछ भी ओट में नहीं रह गया है. चाहे वह संग्रह की श्रेष्ठ कहानी शहर की मौत हो, चाहे अपराधबोध की अनीता जैसे पात्र हों या जड़ें कहानी के नायक का आत्मसंघर्ष, कहानीकार अनायास संवेदना की तह तक पहुंचकर सादगीपूर्ण भाषा के सहारे मर्मस्थल को छूने में सफल होता है. लेकिन आसमान चुप है मुखर ढंग से सांप्रदायिक समस्या की पृष्ठभूमि में रची गई यथार्थपरक कहानी है.
बेरोजगारी, नक्सलवाद, बाबरी विध्वंस से उपजी सामाजिक विषमता और क्रांतिकारी साथी सोमदा जैसे पात्रों के जरिए प्रगतिशील संगठनों में उभरते बुर्जुआवाद और अंतर्विरोधी चेहरे, उनके चरित्र और बदली चाल वाले पात्रों की आमद पर लेखकीय चिंता पाठकों का ध्यान खींचती है. शीर्षक कहानी इंतजार पांचवें सपने का प्रगतिशीलता के नाम पर खड़े किए गए ऐसे तमाम संगठनों में पनपते अवसरवादी पलायनवाद, हिंसा और पार्टी के होलटाइमर पात्र की बेबसी, छटपटाहट, उदासी, हताशा, अंदरूनी टूटफूट और धीरे-धीरे ढहते जाते वजूद की मार्मिक कथा है.
ऐसी कहानियों में रचनाकार सचेत मन से सरोकारों की लंबी लड़ाई में खुद साझीदार बनकर सामाजिक शक्तियों के खिलाफ तनकर खड़ा हो जाता है. कहीं-कहीं पर लेखक खुद को प्रवक्ता बनने से नहीं रोक पाता. अधिकांश कहानियों में आम आदमी के जीवनसंघर्ष, बेबसी, विगत की यादों के खौफ तले मनुष्य होने की यातना को निर्ममता से उजागर किया गया है.
हल्के-फुल्के शैल्पिक प्रयोग को छोड़ दें तो अधिकांश कहानियां भाषिक चमत्कारों से परे जाकर अलग ढंग से यथार्थ की जमीन पर बुनी गई हैं. प्रचुर कल्पना शक्ति के जरिए रची-बुनी, सौंदर्यबोध और प्रेम की तरलता में डूबी कृत्रिम दुनिया का आत्मगत संवाद धीरे-धीरे बड़े सवालों को छूता हुआ आम आदमी की व्यथा-कथा बांचते हुए इंसानियत की आवाज उठाने लगता है.
काल्पनिक आनंदलोक खड़ा करना संभवतः लेखक की मंशा न रही हो, इसीलिए पात्रों की कथाभूमि यथार्थ का दामन नहीं छोड़ पाती. फैंटेंसी नामक खूबसूरत कहानी जरूर अनूठे तरीके से काल्पनिक सम्मोहन का जादू रचती है, जिसे पढ़कर पाठक अनायास पहुंच जाता है एक मासूम दुनिया की तरफ जहां छल, विद्वेष, अवसरवाद या स्वार्थपरता से बिलकुल अलग दुनिया बिछी हुई है.
प्रेम और कलात्मक सौंदर्य के तयशुदा प्रतिमान रचने की बजाए लेखक ने चुनी है यथार्थ की खुरदुरी चट्टान जिस पर खड़े होकर उसने खुद लड़ने की ठानी है सरोकारों की लंबी लड़ाई. ऐसी मनोभूमि पर संवेदना के भल भल बहते झ्रने भला क्यूंकर फूटते? इन्हीं चट्टानों के बीच कहीं-कहीं रिसते झ्रनों के निशान जरूर कहानियों ने छोड़े हैं.