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श्रीलाल शुक्‍ल: विलक्षण गद्यशिल्पी का महाप्रयाण

भारतीय साहित्य के गौरव श्रीलाल शुक्ल 28 अक्तूबर को आखिरकार महाप्रयाण कर गए. वे पिछले कई वर्ष से अस्वस्थ थे. बिस्तर पर ही रहते थे. इसी 18 अक्तूबर को जब उन्हें 45वां ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया तो वे एक अस्पताल में भर्ती थे.

श्रीलाल शुक्ल
श्रीलाल शुक्ल
अपडेटेड 30 अक्टूबर , 2011

भारतीय साहित्य के गौरव श्रीलाल शुक्ल 28 अक्तूबर को आखिरकार महाप्रयाण कर गए. वे पिछले कई वर्ष से अस्वस्थ थे. बिस्तर पर ही रहते थे. इसी 18 अक्तूबर को जब उन्हें 45वां ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया तो वे एक अस्पताल में भर्ती थे.

उनके साथ रहने वाले या मिलने-जुलने वाले लोग गवाह हैं कि अचेत-अवस्था में जाने से ऐन पहले तक शुक्ल जागरूक और जीवंत रहे. स्मृति और चेतना डावांडोल होती रहती थी लेकिन बीच-बीच में वह मेधा कौंध जाती थी, जिसे शब्द-संसार श्रीलाल शुक्ल के नाम से जानता है.
2 नवम्‍बर 2011: तस्‍वीरों में देखें इंडिया टुडे

शुक्ल का जन्म 31 दिसंबर, 1925 को लखनऊ जनपद के गांव अतरौली में हुआ था. उन्होंने 1947 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक परीक्षा पास की. 1949 में राज्‍य सिविल सेवा से नौकरी शुरू की. 1983 में भारतीय प्रशासनिक सेवा से निवृत्त हुए. उनका विधिवत लेखन 1954 से शुरू होता है और इसी के साथ हिंदी गद्य का एक गौरवशाली अध्याय आकार लेने लगता है.

सूनी घाटी का सूरज और अज्ञातवास नामक उपन्यासों के बाद वह उपन्यास आया, जिसने वस्तुतः काल को जीत लिया. 1968 में प्रकाशित राग दरबारी का क्या महत्व है, इसे बताने की जरूरत नहीं. इसी पर उन्हें 1970 का साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला. 10 उपन्यास, चार कहानी संग्रह, नौ व्यंग्य संग्रह, एक आलोचना, दो विनिबंध और एक पुस्तक साक्षात्कारों की-इसमें समाया है श्रीलाल शुक्ल का वाग्‌वैभव.

यह बात स्वीकार करने योग्य है कि राग दरबारी के बाद हिंदी गद्य को दो भागों में बांट कर देखा जा सकता है-राग दरबारी पूर्व हिंदी गद्य और उत्तर राग दरबारी हिंदी गद्य. कोई चाहे तो कितनी ही गद्य रचनाओं में श्रीलाल शुक्ल की छाप देख सकता है.

उनका लेखन हिंदी की इस विपुल मनसियत का प्रतिवाद है, जिससे ह्ढायः पाठकों को टकराना होता है. छोटी-छोटी टिप्पणियों में सीमित होकर हिंदी व्यंग्य हाशिए की वस्तु बना हुआ था. हरिशंकर परसाईं, श्रीलाल शुक्ल और शरद जोशी ने उसे व्यापक सामाजिक सरोकारों के बीच ला खड़ा किया.
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विधा का अतिक्रमण कर व्यंग्य यदि साहित्य के स्वभाव का सहचर बना तो इसमें श्रीलाल शुक्ल की युगांतरकारी भूमिका रही. स्वयं उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा है कि कुछ छिटपुट व्यंग्य-लेखों के बाद राग दरबारी में व्यंजना शक्ति के महाविस्फोट के लिए उन्हें रचना की भूमिका का विवेचन करना पड़ा.

सचमुच राग दरबारी स्वतंत्र भारत के तमाम स्वप्नों और मूल्यों का कठोर यथार्थ प्रस्तुत करता है. शुक्ल अपने उपन्यासों और अपनी कहानियों में लगातार बदलती जीवन स्थितियों का बयान करते हैं. यथार्थवादी हिंदी गद्य के इस विलक्षण शिल्पी को क्या कोई अपदस्थ कर सकेगा?

राग दरबारी के अतिरिक्त उनके उपन्यास मकान, पहला पड़ाव और बिस्त्रामपुर का संत हिंदी उपन्यास के आंगन में अपनी तरह के अकेले वृक्ष हैं. बिस्त्रामपुर का संत में राजनीति, समाजशास्त्र और सांस्कृतिक अपकर्ष का जो मिला-जुला वृत्तांत बना है, उसका रूप 2011 के भारत में ज्‍यादा प्रकट हुआ है.

श्रीलाल जी के रचनात्मक मिजाज को समझने के लिए अवध के खांटी किसान के स्वभाव को समझ्ना जरूरी है. बातचीत में भी जहां कहीं उन्हें कटाक्ष करना होता था, वहां वे अवधी के भाषिक विन्यास का प्रयोग करते थे. गौर से देखें तो राग दरबारी का पूरा ठाट अवधी पर ही खड़ा हुआ है. इससे यह भी प्रमाणित होता है कि भूमंडलीकरण की आंधी में भी स्थानीयता की शक्ति कम नहीं पड़ी है.

शुक्ल साहित्य के साथ कई अन्य कला रूपों के मर्मज्ञ थे. शास्त्रीय संगीत में उनकी गहरी रुचि थी. वरिष्ठ कवि कुंवर नारायण इस संदर्भ में कई संस्मरण सुना सकते हैं. साथ ही शुक्ल का व्यक्तित्व उदात्त शब्द का सटीक भाष्य था. सभाओं, समारोहों, संगोष्ठियों में उनकी विद्वता और विदग्ध प्रत्युत्पन्नमति की तो बस यादें ही शेष हैं.

वे हिंदी के कुछ वाग्मी वक्ताओं में से थे. विचारधारा की कारा से परहेज करने वाले. स्वभावतः प्रगतिशील. अंग्रेजी साहित्य के अधिकारी विद्वान होने के बावजूद उसका आतंक कभी नहीं दिखाया, न लेखन में, न जीवन में.

अनुशासन, मस्ती, जिंदादिली और सदाशयता का उनमें समावेश था. उनमें अंतर्विरोध थे लेकिन उन्हें पीछे धकेल देने का हुनर भी था. एक भरपूर यशस्वी जीवन जिया. पद्मविभूषण सहित दो दर्जन से ज्‍यादा सम्मान मिले. जो सम्मान पाठकों ने दिया, उसका हिसाब तो भविष्य में भी असमाप्त रहेगा.

राग दरबारी, पहला पड़ाव और बिस्त्रामपुर का संत आदि उपन्यास उनके कीर्ति स्तंभ हैं. शुक्ल का न होना शब्द की एक शक्ति का मौन हो जाना है. इस मौन में हिंदी साहित्य का एक परंपरागत स्वप्नजीवी लेखक भी शामिल है, जिसने परिवर्तनकामी सकारात्मक लेखन को बिना किसी आग्रह के पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया. सच तो यह है कि हिंदी गद्य की अनेक विधाएं श्रीलाल शुक्ल की लेखनी से पुनर्नवा हुई हैं.

वे कहते भी थे कि 'लद्धड़ और ललाम' गद्य से मुझे नफरत है. हालांकि नफरत जैसा शब्द उनकी उदारता के शब्दकोश में था ही नहीं. वे उन चंद रचनाकारों में से थे, जिन्होंने हिंदी की ताकत का एहसास विश्वस्तर पर कराया, जिन्हें कभी पाठकों की कमी का विलाप नहीं करना पड़ा. बौद्धिकता और हार्दिकता का उनमें सम्यक संतुलन था. इस साल 31 दिसंबर को वे 86 वर्ष के हो जाते. उनका जाना एक लेखक के जाने से कुछ ज्‍यादा है.

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