जब भी किसी के बचपन का कोई हीरो गुजर जाता है तो वह अपने साथ उसके जीवन का भी कुछ हिस्सा ले जाता है.
शम्मी कपूर उन आश्चर्यजनक रूप से मुश्किल वर्षों में छाए हुए थे जब बंगाल में एक अज्ञात जूट मिल बस्ती से लेकर हर तरह की क्रांति से लबरेज अप्रिय कलकत्ता तक हंसी-ठिठोली और आशावाद ही इकलौते मार्गदर्शक थे. किशोरावस्था के दूसरे चरण में उम्मीद भी बहुत बड़ी महत्वाकांक्षा लगती है.
शम्मी कपूर हमारे मार्गदर्शक थे, क्योंकि उनमें किशोरों की तीन जरूरी खूबियां थीं: वे जुनूनी थे; वे अपनी शर्तों पर अपनी महबूबा हासिल करते थे; और अंत हमेशा खुशगवार होता था. उन्होंने दुनिया को बदलने और प्यार के सपने के बीच के बिंदुओं को मिलाया.
प्यार, अपनी लुका-छिपी की सारी प्रवृत्तियों के साथ असली जिंदगी के साए में रहता थाः पेट्रोमैक्स की रोशनी में होने वाले मुशायरों की सड़कछाप शायरी में; दिल्लगी में; और एक के बाद एक बच्चे पैदा करने में, जो संयुक्त परिवारों में साफ दिखने वाली हकीकत है. प्यार के पहले या बाद के नतीजे के रूप में यौन संबंध ज्यादा गोपनीय था.
शम्मी ने प्यार को मस्ती के झ्टके के साथ अंतरंगता से ऐसे अलग कर दिया जिससे यौन संबंध की उत्तेजना का स्पष्ट संकेत मिलता था. वैसे, इस करार में एक सुरक्षा शर्त जुड़ी हुई थीः मस्ती या चंचलता पूरी तरह से शाश्वत, आंतरिक, जन्म-जन्मांतर के सच्चे प्यार का लक्षण थी.
लेकिन यहां तक कि जब उनका दिल टूट भी जाता तो भी उनकी तीखी पलकें नहीं झुकती थीं, भले ही आसमान में उदासी क्यों न छा जाए. कौन-सा सैक्सोफोन अपने मालिक की सेवा में इससे ज्यादा गमजदा रहा होगा जितना शम्मी का वाद्ययंत्र है दुनिया उसी की जमाना उसी का, मुहब्बत में जो हो गया हो किसी का में लगता है.
ब्रह्मचारी में पियानो पर उनकी उंगलियां ऐसे बरसती हैं मानो मुमताज की मुसीबतों के लिए वही जिम्मेदार हो. उन्होंने सौ से ज्यादा फिल्मों में अभिनय किया लेकिन मुझे नहीं लगता कि पंजाबी प्रेम कथा हीर-रांझा उन कृतियों का हिस्सा थी. अगर शम्मी रांझा होते तो वे रावी नदी के तट पर एक ग्रांड पियानो रखते और वह किरदार से पूरी तरह मेल खाता.
चालीस साल बाद उस चीख को नजरअंदाज करना आसान है जो पेट से निकली, गले में आई और फिर जिसने आपके दिमाग को उड़ा दियाः याह्यह्यह्यह्यह्यह्य! मेरे लिए, स्वप्ना नामक खटमल भरे सिनेमा हॉल में, जंगली की वह चीख परंपरा के बेवकूफाना उबाऊपन से मुक्ति की आवाज थी. अचानक, प्रेमियों ने आंसू बहाना छोड़ दिया जैसा कि दिलीपकुमार बाल्टीभर बहाते थे; या देशभक्ति के साथ चलना छोड़ दिया, जिसे राज कपूर जरूरी समझ्ते थे; या पेट दर्द के मरीज की तरह चेहरा बनाना छोड़ दिया, जो राजेंद्र कुमार की खूबी थी.
जब मैं 10 साल का था और अभी-अभी बोर्डिंग स्कूल की सजा सुनाई गई थी तभी शम्मी कपूर ने हमें बताया कि जाकर हम अपनी आवाज ढूंढें, भले ही वह कभी-कभार की चिल्लाहट साबित हो. अगर बन सकते हो तो प्रतिभाशाली बनो; अगर बनना पड़े तो बेवकूफ भी बनो; लेकिन किसी भी मामले में असली बनो. दोनों ही रूपों में मजा था, मस्ती थी.
शम्मी के गाने की आवाज मोहम्मद रफी की थी. वे दोनों मिलकर हिमालय जितना आरोह-अवरोह नापते हैं लेकिन इससे भी सटीक ढंग से कहें तो सुबह की खिलखिलाती धूप से लेकर शाम की धुंध और मखमली रात तक सफर करते थे. सर पर टोपी लाल खिलखिलाती चमक बिखेरने वाले उन अनगिनत यादगार गानों में से महज एक है.
शम्मी जब इस रंग बदलती दुनिया में इनसान की नीयत ठीक नहीं, निकला न करो तुम सज धज कर ईमान की नीयत ठीक नहीं गाते हैं तो शाम ढलने लगती है. जब रॉकी तीसरी मंजिल में ड्रम संभालता है तो रात अपने शबाब पर होती है, वे बलखाती हेलेन को मात देते हैं.
शम्मी, रफी, शंकर-जयकिशन या ओ.पी. नय्यर और शायर हसरत जयपुरी की जमात ने जब संगीत के उतार-चढ़ाव के साथ शब्दों को मिलाया होगा और उसमें शम्मी कपूर का जोश डाला होगा तो कितना मजा आया होगा. शम्मी ने उन महान लोगों की सराहना की जिन्होंने हिंदी फिल्मी गानों को शानदार कला में तब्दील किया.
जब तलत महमूद ने अभिनेता बनने की कोशिश की तो शम्मी ने उन्हें एक समझ्दारी भरी सलाह दी. ''तलत साहब, आप इतना अच्छा गाते हैं...आप अभिनय करके अपना वक्त क्यों जाया कर रहे हैं?''
केवल रफी और शम्मी ही ब्रिटिश साम्राज्य के उच्च अभिजात वर्ग की गर्जना को मधुर भारतीय गुनगुनाहट में तब्दील कर सकते थे. ब्रिटेन का सत्ताधारी वर्ग जाड़े में बारिश और बर्फबारी के दौरान लोमड़ी के शिकार पर जाता था तब ''टैली हो!'' (शिकार दिखने पर शिकारियों और शिकारी कुत्तों को उकसाने के लिए लगाई जाने वाली आवाज) चिल्लाता था, जिसे पी.जी. वुडहाउस ने अपने उपन्यासों में लोकप्रिय बना दिया.
शम्मी और रफी ने उसे तेज आवाज में हलका बना दिया, और उसमें संगीत का ऐसा जादू भर दिया जो आज भी दिलो-दिमाग को उसी तरह मस्त कर देता है जैसे चार दशक पहले कर देता था. आप बार बार देखो, हजार बार देखो सुनिए और आपका मन मचल उठेगा. अगर आप बिना मचले किसी न किसी से कभी न कभी, कहीं न कहीं दिल लगाना पड़ेगा बैठे-बैठे सुन लेते हैं, तो शायद आप बिना दिल के ही पैदा हुए होंगे.
हमने शम्मी के मोटापे, हेलीकॉप्टर से नहाने का कपड़ा अपनी तोंद के इर्दगिर्द लटकाए किसी र की तरह स्विमसूट में स्कीइंग करती छरहरी शर्मीला की तरफ चौंकाने वाले ढंग से बढ़ने को भुला दिया; उनका वक्त से पहले जरूरत से ज्यादा मोटापा और अस्वाभाविक अभिनय, सब कुछ भुला दिया क्योंकि उन्होंने हमें एक ऐसा सबक सिखाया जिसकी हमें अनिश्चितता भरे उन संघर्षों में जरूरत थीः एटीट्यूड. अलविदा, सर! तुमने मुझ्को हंसना सिखाया, रोने कहोगे रो लेंगे अब.