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स्मृति शेषः साहित्य वार्षिकी में मंगलेश डबराल

क्या तुम मुक्तिबोध जैसी जिंदगी जीना पसंद करोगे? या निराला जैसी? नागार्जुन और त्रिलोचन जैसी? भुवनेश्वर जैसी?

साहित्य वार्षिकी में मंगलेश डबराल
साहित्य वार्षिकी में मंगलेश डबराल
अपडेटेड 9 दिसंबर , 2020

साहित्य वार्षिकी 2019

डायरी अंश

घर में बहुत-सा कबाड़ जमा था: पिता के जमाने की दवा की खाली शीशियां, पासिंग शो, सीजर्स और कैवेंडर्स की सिगरेटों के खाली टिन के डिब्बे, जेबी मंघाराम के बिस्किट के खोखले पैकेट, पुराने पेन, जिनमें किसी के ढक्कन गायब थे तो किसी की निबें या नीचे के हिस्से, पर्दों से अलग हो चुके उनके छल्ले, तस्वीरों के फ्रेम जिनमें तस्वीरें नहीं थीं और उनके गत्ते, जेबी डायरियां जिन पर अंग्रेजी और उर्दू में कुछ लिखा था या जिनके पन्ने गायब थे और सिर्फ प्लास्टिक के खोल बचे थे, दोनों तरफ से जलने वाली तीलियों वाली जादुई माचिसें और ताश के गठ्ठर, जो पिता ने ताश का जादू सीखने के लिए मंगवाए होंगे, लेकिन यह समझना कठिन था कि उनसे कौन-सा जादू दिखाया जाता होगा. इसके अलावा पुराने भोथरे चाकू और चश्मे, जो अब पिता की आंखों पर फिट नहीं होते थे, कोडक के बॉक्स कैमरे की निगेटिव फिल्में और धूल साफ करने के कुछ पुराने झाडऩ, जो अब खुद धूल से भरे हुए थे. इस कबाडख़ाने में दादा का वन्न्त भी मौजूद था: धूसर दिशासूचक कंपास, जिन्हें छूने पर उनके भीतर के कांटे कुछ देर थरथराते थे, पुरानी बंद पड़ी घडिय़ां जिनमें से कुछ पर स्विस-मेड लिखा था और उनके दोनों तरफ बारीक गणनाओं से भरे संगमरमरी डायल थे (उनमें शायद स्टॉप वाच भी होती थी और शायद वे पुराने जहाजियों के काम की रही होंगी). यह हैरतनाक भंडार था. पिता कोई भी चीज फेंकते नहीं थे, जब तक वह खुद ही अदृश्य न हो जाए. मेरी मां और पांच बहनों के लिए वह भंडार जैसे सोने की खान था. या कोई पवित्र वस्तु. वे उसे संभाल कर रखतीं. मुझे कई बार लगता था, इन्हीं खाली चीजों के कारण घर में गरीबी बढ़ रही है. एकाध बार मैंने दबे ढंग से यह कहने की कोशिश भी की, लेकिन बहनें कहतीं, 'अरे, वे पिताजी की चीजें है!’

इस खजाने की प्रेरणा से मैंने तय किया कि कोई खाली या टूटा हुआ सामान अपने पास नहीं रखूंगा. उसे तुरंत फेंक दूंगा. लेकिन ऐसी चीजों को फेंकते रहने के बाद भी मैं कबाड़ से मुन्न्त नहीं हो पाया. घिसी पेंसिलों, घिसे हुए रबरों, पुराने कागजों, फाइलों, डाक में आए लिफाफों, किताबों से अलग हुए जर्जर पन्नों और क्लिपों, और दवा की शीशियों का अंबार साफ होता और फिर जमा होने लगता. सफाई की तुलना में बेकार हो चुकी सामग्री हमेशा ज्यादा इकठ्ठा होती जाती. एक दिन मैंने पाया कि इस मामले में मैं अपने पिता जैसा हो चला हूं: अपने अतीत से, उसके सामान को लादे रहने से, गायब हो चुकी चीजों के बचे हुए अंगों से मोह—यह क्या है? कभी लगता है मैं हू-ब-हू अपने पिता की तरह खांस रहा हूं या उन्हीं की तरह नाक सुड़क रहा हूं. एक उम्र के बाद क्या आदमी अपने किसी पूर्वज की नकल हो जाता है? किसी की हंसी अपने मामा या दादा से मिलने लगती है और किसी के चलने का ढंग मां जैसा हो जाता है.

करीब चालीस साल पहले पोलैंड के फिल्मकार क्षिस्तोफ जानुस्सी  की एक फिल्म दिल्ली के एक फिल्म समारोह में देखी थी. शायद उसका नाम द इलुमिनेशंस था. उसमें एक युवा इंजीनियर जीवन भर अपने पिता से असहमत रहता है, लेकिन उनकी मृत्यु के बाद देखता है कि उसके एक गाल में थोड़ी-थोड़ी देर में हू-ब-हू इस तरह की चिलकन होने लगी है जैसी उसके पिता के गाल में होती थी! शायद यही उसकी विरासत, उसका उत्तराधिकार है. विष्णु खरे की भी एक कविता इस दाय के बारे में है. एक युवक जब अपने बूढ़े पिता को खुद से बात करते हुए देखता है तो हैरत में पड़ जाता है, उसे इस गुत्थी का जवाब नहीं मिलता, लेकिन पिता की मृत्यु के बाद एक दिन वह अपने को भी खुद से संबोधित पाता है तो अचानक जैसे सब कुछ उजागर हो उठता है और उसे लगता है कि अब उसे खुद ही जीवन के मुश्किल सवालों के जवाब ढूंढऩे होंगे.

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बचपन में जब भी मुझे बुखार होता, मां कहती—बर्फ पडऩे वाली है. उसकी बात सच निकलती. मां इस वाक्य को उलटकर कभी नहीं कहती थी. पिता मुझे कोई बहुत कड़वी दवा देते जिसका तब मेरे लिए कोई नाम नहीं था और मेरे कंपकंपाते शरीर पर रजाई उढ़ाकर पसीना निकालने को कहते. लेकिन मैं उनकी गैर-मौजूदगी में खिड़की खोलता और बाहर सफेद फाहों की तरह गिरती बर्फ देखने लगता. पिता मुझे डपटते हुए से खींचकर रजाई के भीतर कर देते. मैं जानता था, बाहर बच्चे बर्फ में भीग रहे हैं, खेल रहे हैं, एक-दूसरे पर बर्फ के छोटे-छोटे गोले बनाकर फेंक रहे हैं. मैं जानता था कि दो दिन बाद यह बर्फ नहीं होगी. हमारे गांव में बर्फ सिर्फ दो दिन टिकती थी. दो दिन बाद मेरा बुखार उतर जाता और बाहर बर्फ पिघल चुकी होती.

अब जब बुखार आता है, बाहर बर्फ नहीं गिर रही होती. मैं कल्पना करता हूं कि इस बुखार में बाहर बर्फ पडऩे वाली है. लेकिन ऐसा कुछ नहीं होता.

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चीजों को मैंने तब छुआ जब वे खासी दूर चली गई थीं. जब प्रेम एक निर्वात था और करुणा एक अमूर्तन. जब स्मृति एक अंधकार थी और विस्मरण दूर चांद की तरह चमकता था. जब पूर्वज अदृश्य थे और मैं उनसे बात करना चाहता था.

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हर भले आदमी की तरह एक बड़ा-सा उपन्यास मेरे भीतर भी है. वह कभी-कभी हलचल करता है, लेकिन ज्यादातर किसी प्रागैतिहासिक, आदिम जंतु की तरह कहीं पड़ा रहता है. अचानक क्चयाल आता है कि उसे जगा दिया जाए. लेकिन शायद कोई भी सच्ची कहानी तब कही जानी चाहिए जब वह एक अफवाह और एक गप्प बन कर रह जाए. उस कहानी का यथार्थ इसी के बाद शुरू होता होगा.

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एक कविता के पूरा होने पर कभी-कभी लगता है जैसे एक रोटी पक गई हो. बहुत भूख लगी हो तो पहली रोटी का स्वाद कैसा मीठा, कितना अविस्मरणीय होता है! उस रोटी को आप सूखी भी खा सकते हैं, उसमें अंतर्निहित मिठास के साथ. पहली रोटी पहले प्यार की तरह होती है: सुंदर, मुलायम, अपनी आंतरिक भाप से उभरी हुई और अपने अंतरतम में एक मद्धिम मीठा स्वाद भरे हुए, जिसके स्पंदन उसके पोर-पोर में उसके कोरों तक फैले होते हैं. लेकिन कविता की पहली रोटी बार-बार नहीं पकती. मुश्किल से पकती है और वह भूख भी अब बहुत नहीं दिखती जो पहली रोटी के लिए लालायित हो.

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मुक्तिबोध की कविताएं पढ़ते हुए लगता है हम कविता ही नहीं, उसके लिखे जाने की प्रक्रिया को भी पढ़ रहे हैं, उसके साथ-साथ चलते हुए उन अप्रत्याशित मोड़ों-घुमावों और अंधेरों को देख रहे हैं जिन्हें कवि भी देख रहा है. जैसे पहली बार. वह कोई बनी-बनाई, पूर्व-गठित या पूर्व-निर्मित कविता नहीं होती, बल्कि आगे बढऩे के साथ ही बढ़ रही होती है. इस तरह कवि का वह अंतर्संघर्ष भी उसमें मौजूद रहता है जो कविता लिखने के क्षणों में किया गया. बहुत कम कविताएं ऐसी हैं जिनमें यह खूबी हो. हमारी ज्यादातर कविताएं 'बनी-बनाई’ सी होती हैं, उन्हें दिमाग में पहले ढाल लिया गया होता है और फिर कागज पर उतार लिया जाता है. कविता में तकलीफ वहीं ज्यादा सच्ची दिखती है जहां उसे लिखे जाने की छटपटाहट भी मौजूद हो. हिंदी में कुछ ही कविताएं ऐसी हैं जिनके भीतर किसी खोज या यात्रा, काव्य-अनुभव से सटकर आगे बढऩे, लिखते हुए ही अनुभव का अनायास विस्तार पाने की तड़प हो. अंधेरे में के अलावा रघुवीर सहाय की रामदास, आलोक धन्वा की ब्रूनो की बेटियां, पतंग, विष्णु खरे की लालटेन जलाना और अपने आप, कात्यायनी की हॉकी खेलती लड़कियां, शमशेर की टूटी हुई बिखरी हुई, असद जैदी की बहनें और सामान की तलाश, लीलाधर जगूड़ी की काखड आदि ऐसी ही हैं जो कागज पर उतार दी गईं नहीं, बल्कि कागज के साथ-साथ स्थानांतरण करती हुई लगती हैं.

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मर गया देश, अरे/ जीवित रह गए तुम! मुक्तिबोध की महान कृति अंधेरे में की यह अभिव्यक्ति अक्सर 'हांट’ करती है—उनकी बाकी चीजों के अलावा. यह लगता है आज के हिंदुस्तान और आज के हम लोगों के बारे में है. यह देश मर रहा है, बल्कि मरते हुए अब अपने ही लोगों को मार भी रहा है.

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क्या तुम मुक्तिबोध जैसी जिंदगी जीना पसंद करोगे? या निराला जैसी? नागार्जुन और त्रिलोचन जैसी? भुवनेश्वर जैसी?

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कविता कैसी हो? यह बहुत जटिल, रहस्यमय सवाल है. लेकिन पिछले दिनों मणिपुर के अंग्रेजी-मणिपुरी कवि रॉबिन नान्दोम की एक कविता पढ़ी जिसका अनुवाद असद जैदी ने किया है. रॉबिन मेरे भी बहुत प्रिय कवि हैं, और शायद उत्तर-पूर्व के सबसे अच्छे समकालीन कवि. कविता का शीर्षक है बदनाम बस्तियां:

कभी-कभी बिला वजह कोई बस्ती बदनाम हो जाया करती है. अगर किसी आम दिन आप वहां जाएं तो आपको दिखेगा उसके ऊपर तना नीला आसमान, गहरे हरे चीड़ के दरक्चत और धूल भरे रास्ते को झुककर चूमते बांस. सच तो यह है कि इसके तमाम सर्द मकानों में प्यार किया गया और यहां के मृतक एक शांत कब्रिस्तान में दफन हैं, और आप समझ नहीं पाएंगे कि बाहर के लोग इस जगह से क्यों अजीब सी नफरत करते हैं. शायद एक रात खबर पाकर अद्र्धसैनिक बल के घबराए हुए जवानों ने यहां के किसी अभागे मकान के दरवाजे पर किशोरवय के दो-एक उग्रवादियों के चिथड़े उड़ा दिए थे. विडंबना यह कि वे क्रांतिकारी इस मोहल्ले के थे ही नहीं, वे बस एक गलत समय पर एक दावत में शरीक होने आए थे. यह भी कतई मुमकिन है कि इस आस्थाहीन दौर में चुड़ैलों और जादूगरों को व्यग्रता से खोजते कुछ मर्दों और औरतों ने खुद को मध्ययुगीन औजारों में बदल कर चांदनी रात में अपशकुन की तरह खड़े एक मकान को आग लगा दी हो, जिसमें रहते विचित्र से बूढ़े-बुढिय़ा जल मरे हों.

इस बस्ती को कई विशेषणों से नवाजा गया है, मसलन गुप्त ठिकाना, और कहा जाता है कि इसकी दीवारों पर ये निशान गोलियों के हैं. बेहतर हो आप यहां की औरतों के साथ कोई चन्न्कर न चलाएं, क्योंकि सूरज डूबते ही यह जगह खतरनाक हो जाया करती है. लेकिन ऐसी बस्तियों की तादाद, संदेह की ताकत से गोया, बढ़ती ही जा रही है.

कविता हो तो ऐसी. एक स्थानीयता के भूगोल, जीवन, उसकी मासूमियत और उसके प्रति सत्ता के रवैये और दूसरों के पूर्वाग्रहों को एक साथ समेट कर एक साथ एक नाजुक और तीखा वन्न्तव्य निर्मित करने वाली.

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ज्यादातर अच्छी कविताएं यातना या पीड़ा और ग्लानि के बोध से लिखी गई हैं. आनंद की अनुभूति ने बहुत कम अच्छी कविताओं को जन्म दिया. आनंद का स्वरूप अक्सर उपभोगात्मक होता है, लेकिन दुख को उपभोक्ता सामग्री में बदलना कठिन है. जो कवि ऐसा करते दिखते हैं वे दुख का व्यापार करने की विफलकोशिश कर रहे होते हैं. मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय में इतनी 'सफरिंग’  मिलती है कि अगर उनके संग्रह मेज पर खुले पड़े हों तो मैं रात को सोने से पहले उन्हें बंद करके औंधे मुंह रख देता हूं ताकि वे मुझे भी चैन से नींद में जाने दें. कई साल पहले मैंने इलाहाबाद में फिराक गोरखपुरी को इंटरव्यू करने के लिए एक पत्र लिखा था तो उनका जवाब आया, 'बर्खुरदार, कभी दिन में आ जाइए क्योंकि मैं शाम या रात को कुछ नहीं पढ़ता-लिखता. अच्छी शायरी और बुरी शायरी दोनों मुझे सोने नहीं देतीं.’

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प्रतिबद्धता और प्रतिरोध की कविता हमेशा राजनीतिक होती है, शायद क्रांतिकारी नहीं होती लेकिन वह क्रांति का स्वप्न देखती रहती है. क्रांतिकारी तो राजनीतिक दलों को होना होता है जो कि आज चिराग लेकर खोजने से भी नहीं मिलते.

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यह अस्मिताओं के संघर्ष का ही नहीं, उनके परस्पर प्रवेश, उनके गड्डमड्ड होने का भी समय है; वरना क्या बात है कि हमारे दौर में कलाकार व्यापारी की तरह दिखता है, बुद्धिजीवी दलाल की तरह, आलोचक जनसंपर्क अधिकारी की तरह, विद्वान प्रचारक की तरह, हत्यारा मासूम की तरह, रिश्वतखोर इज्जतदार की तरह, चापलूस स्वाभिमानी की तरह, ताकतवर शिकार की तरह, आततायी उत्पीडि़त की तरह? एक भ्रष्टाचारी दूसरे भ्रष्टाचारी को अच्छा मनुष्य मानता है. भ्रष्टाचार उनके बीच एक मानवीय मूल्य है. एक दिन एक व्यन्न्ति ने, जिसे मैं अच्छा मनुष्य समझता था, मुझसे कहा कि आपने मेरे लिए काफी कुछ किया है और अब तो मुझे आपके घर मिठाई लेकर आना पड़ेगा. एक स्त्री, जिसे मैं अच्छी मनुष्य मानता था, मुझे एक कमीज देते हुए बोली कि आपने मेरा इतना सारा काम किया है, सो मैं यह कमीज आपके लिए लाई हूं. लेकिन दुनिया कुछ इसी तरह है. कोई अच्छा-सा लेनदेन अगर दो शत्रु देशों के बीच हो, दो राष्ट्राध्यक्षों के बीच हो, दो व्यक्तियों के बीच हो तो वह प्रेम कहलाता है.

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मैं कविता लिखने का कोई तर्क या ताॢककता खोजता रहता हूं, लेकिन मुझे कविता लिखने का पागलपन खोजना चाहिए. एक बुखार, एक तकलीफ, एक उन्माद. या फिर ताॢककता और पागलपन के बीच की कोई जगह. लेकिन शायद उसे खोजने में सारी उम्र बीत जाती है. कभी लगता है हमारी तमाम कविता बहुत स-तर्क, सावधान और वकीलाना बहसों से भर गई है और अपने प्रत्यक्ष शब्दों में सब कुछ प्रकट किए दे रही है. उसके भीतर ऐसा कुछ नहीं बचा है जो बाद में, फिर कभी, कई वर्ष बाद व्यन्न्त होने के लिए बचा हो. उसके सारे रहस्य उसकी त्वचा पर, खुले में ला दिए गए हैं. उसे पढ़ते वन्न्त दिमाग पर बहुत जोर नहीं देना पड़ता, बल्कि उसे आराम ही मिलता है. वह हद दर्जे की एकरैखिक है. मुझ समेत.

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कहते हैं कि उस्ताद अमीर खां कहते थे कि मैं एक कगार पर चलता हूं, जरा भी फिसला तो सीधे नीचे गिरूंगा. बीच में कोई जगह नहीं है.

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बरसों पहले ज्ञानरंजन की कहानी घंटा पढ़ी थी और तय किया था कि न कभी किसी का घंटा बनूंगा और न बनाऊंगा हालांकि इसकी नौबत कई बार आई.

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आंखों से आंसू आने के बाद आप तुरंत ही उन्हें पोंछ लेते हैं और इस तरह रोने की वजह सामने साफ हो उठती है. अगर आप आंसू न पोंछें, उन्हें बहने दें तो आंखों पर आंसुओं की झिल्ली बन जाती हैं और उनके कारण रोने का कारण दिखाई नहीं देता. यह कहीं बेहतर है.

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लेकिन वह क्या है जो कविता के गद्य को दूसरे गद्यों से अलग करता है? जब हम किसी उत्कृष्ट फिल्म, कलाकृति, उपन्यास या कहानी को देखते-पढ़ते हैं तो उसे सेल्युलाइड या कैनवस या कागज पर कविता करार देते हैं. शायद वह कोई संवेदना है, कोई मानवीय आवेग और सघनता और गहराई और विचलित करने वाली कोई वैचारिक भावना, जो किसी अभिव्यक्ति को कविता बना देती है. इसी वजह से कई बार बेहद नीरस-शुष्क गद्य भी बड़ी कविता में तब्दील हुआ है. एक कवि की उन्न्ति को कुछ बदल कर कहें तो 'भाषा के तमाम शब्द जैसे किसी बारिश में भीगते हुए खड़े रहते हैं और कुछ शब्द होते हैं जिन पर बिजली गिरती है और वे कविता बन जाते हैं.’ शायद बिजली से वंचित शब्द गद्य ही बने रहते होंगे. अगर हम मानवीय अनुभवों की अभिव्यक्ति के अंतिम प्रारूप या ड्राक्रट बनाने की कोशिश करें तो शायद वे कविता में ही होंगे. इसीलिए कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो, बाइबिल, मोनालिसा, वान गाग का तारों भरी रात, तोल्स्तोय का पुनरुत्थान और मिकेलान्जेलो का डेविड कविता की तरह लगते हैं.

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पोलैंड के महान कवि तादेउष रूजेविच चीन की दीवार पर लिखी एक कविता में कहते हैं: दीवार एक विषय-पाठ है/ उन लोगों के लिए/ जो कल्पना के यथार्थ की कल्पना करने में असमर्थ हैं.

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सुबह दरवाजे पर आनेवाले दैनिक अखबार से अब कागज और स्याही की महक नहीं आती. वह एक डरावनी चीज है. वह जैसे खून टपकाता हुआ दरवाजे पर गिरता है. अत्याचार, हत्या, मॉब लिंचिंग, लूटपाट, अपहरण, बलात्कार, मासूमों को सताना, आत्मघाती विस्फोट, अकारण हिंसा, सांप्रदायिक उन्मादी भाषण और उन तमाम चीजों की भरमार, जो जीवन में नकारात्मक, कुत्सित और निंदनीय हैं. अखबार इतनी बुरी खबरों से भरे हैं जितनी शायद कोई कविता भी नहीं होगी. या शायद यह कहना ठीक होगा कि सुबह का अखबार ही एक भीषण कविता है.

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प्रतिनिधि कविताएं. इसमें तस्वीर अच्छी है क्योंकि एक बढिय़ा फोटोकार संजय बोराडे ने खींची है. पंकज चतुर्वेदी ने बहुत प्रेम और आत्मीयता से भूमिका लिखी है—और प्रतिभावान तो वह है ही. लेकिन जब कोई किताब छप रही होती है, तो मेरा रोमांच बना रहता है और जब वह छप कर आ जाती है तो कुछ ही देर में मैं उससे अलग-सा हो जाता हूं. वह बेकार लगने लगती है. जैसे यह वह नहीं था जिसकी मैं कल्पना करता था और वह भी पता नहीं क्या था जिसकी मैं कल्पना करता था. चमकती हुई चीजें आकर्षित करती हैं, लेकिन जैसे ही वे मिलती हैं, उनकी निरर्थकता नजर आने लगती है. चलता हूं कुछ दूर तक हरेक राहे-रौ के साथ/ जानता नहीं हूं अभी रहगुजर को मैं!

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अमेरिका के सार्वजनिक बुद्धिजीवी और भाषाविद्‌ नोम चॉम्स्की का कहना है कि वंचित समाज के प्रति सुविधासंपन्न वर्ग की बेरुखी किसी भी दूसरे देश के मुकाबले भारत में कहीं ज्यादा है. मध्यवर्ग हमेशा उम्मीद बंधाने वाला वर्ग रहा है. ज्यादातर परिवर्तनकारी शक्तियां उसके भीतर से उपजती रही हैं, लेकिन अब उसके भीतर सवाल नहीं रह गए हैं. वह अपने में लिप्त सिर्फ उपभोग कर रहा है और दुनिया का सबसे बड़ा और निकृष्ट उपभोक्ता बनना चाहता है. उसके जीवन से दुख, करुणा और हमदर्दियां समाप्त हो चुकी हैं और आत्मा भ्रष्ट हो गई है.

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शायद यथार्थ को कवियों के मुकाबले उद्योगपति, व्यापारी, रीयल एस्टेट के डीलर, दलाल, तस्कर और वे लोग जो खुद को नियंता कहते हैं, कहीं ज्यादा जानते हैं क्योंकि उन्हें इसी यथार्थ में से अपनी भ्रष्ट ताकत और संदिग्ध संपत्ति हासिल करनी होती है. उसे इंटरनेट के महाबली गूगल का पूर्व सीईओ एरिक श्मिट भी कहीं ज्यादा जानता है जिसने कहा था कि ''हम जानते हैं कि आप कहां पर हैं. हम जानते हैं आप कहां पर थे और हम कुछ-कुछ यह भी जान सकते हैं कि आप अभी क्या सोच रहे हैं.’’ लेकिन कवियों के लिए यथार्थ इससे कहीं जुदा और कभी-कभी तो विलोम भी होगा, क्योंकि उनके लिए वह एक नैतिक पड़ताल की जगह है. और जैसा कि रघुवीर सहाय मानते थे, 'यथार्थ यथास्थिति नहीं’ होता. वस्तुगत, तटस्थ और सूचनात्मक यथार्थ कविता के बहुत काम का नहीं है. यथार्थ की नैतिकता ही उसका यथार्थ हो सकता है. एक कवि के लिए शब्द एक अत्यंत अमूल्य, अद्वितीय और पवित्र जगह है, हालांकि राजनीति, व्यापार और प्रॉपर्टी डीलरों के लिए वह झूठ को छिपाने की आड़ हो सकता है और इन दिनों सत्ता-राजनीति उसका बेबाकी से इस्तेमाल कर रही है.

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तीन दिन में चार तस्वीरें जगह-जगह दिखाई दीं: नरेंद्र दामोदर दास मोदी प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने से पहले राजघाट में बापू की समाधि पर फूल चढ़ाते प्रणाम-परिक्रमा करते सीस नवाते हुए; संघ परिवार के कुछ समर्थक बापू की प्रतिमा को चप्पलों से पीटते मुस्कराते फोटो खिंचाते हुए; एक हिंदू-संघी तथाकथित साध्वी गर्व से बापू की तस्वीर पर पिस्तौल चलाती हुई; एक और साध्वी भारत माता को बचाने के लिए कुछ छात्राओं के बीच हथियार बांटती हुई. ये तस्वीरें हमारे वक्त की एक बेहद पेचीदा पहेली बनाती हैं. इसे कैसे समझा जाए?

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पाकिस्तान से युद्ध नहीं होता. पाकिस्तान से युद्ध क्यों नहीं होता? क्या हम युद्ध नहीं चाहते? क्या पाकिस्तान युद्ध नहीं चाहता? क्या पाकिस्तान और हम एक-दूसरे के शत्रु नहीं हैं? क्या पाकिस्तान और हम एक-दूसरे के लिए 'दूसरे’ नहीं हैं? लेकिन तब भी पाकिस्तान से युद्ध नहीं होता. क्या हमारे जवान इतने कायर हैं कि सीमा पर लड़ते हुए नहीं मरना चाहते? क्या पाकिस्तान के जांबाज इतने बुजदिल हैं कि सरहद पर मौत के घाट नहीं उतरना चाहते? क्या हमारी इतनी सारी मिसाइलें दीवाली पर पटाखों की तरह छोडऩे के लिए रखी हुई हैं? क्या उनके परमाणु बम ईद पर पटाखों की तरह चलाने को रखे हुए हैं? पाकिस्तान से युद्ध क्यों नहीं होता? क्या पाकिस्तान हमारा पड़ोसी नहीं है? क्या पाकिस्तान वह नहीं है जो हम नहीं हैं? क्या पाकिस्तान कोई दूसरा नहीं है? क्या पाकिस्तान हमारा शत्रु नहीं है? आश्चर्य, इतना सब कुछ है तब भी युद्ध नहीं होता. चलिए, कोई बात नहीं. अगर पाकिस्तान से युद्ध नहीं होता है तो हम हिन्दुस्तान से ही युद्ध करते हैं. (एक विलक्षण यूक्रेनी कविता से प्रेरित)

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भाषाओं का भी अपना एक देश होता है. एक भूगोल और एक लोकतंत्र. नागरिकों की ही तरह. कहने के लिए संघ परिवार और भाजपा का राज समूचे देश में है, लेकिन भाषायी लिहाज से देखें तो उनका कोई प्रभाव हिंदी पट्टी से बाहर नहीं है—गुजराती और मराठी को छोड़कर. बांग्ला, ओडिय़ा, कन्नड़, तेलुगु, तमिल, मलयालम, कश्मीरी, उर्दू, पंजाबी, मणिपुरी आदि उसके असर से अभी मुक्त हैं. इन भाषाओं पर प्रभाव न होने का अर्थ है उन भाषाओं कीसंस्कृतियों पर भी प्रभाव का न होना. हमारी सांस्कृतिक सामासिकताएं अभी तक इस प्रदूषण की पहुंच से बाहर हैं. दरअसल संघ परिवार अब भी एक उत्तर भारतीय हिंदी-क्षेत्रीय परिघटना है, सार्वदेशिक नहीं. हाल ही में असम और मणिपुर में उसकी सरकारें शुद्ध तिकड़म और छल के बल पर बनी हैं. यह बात दीगर है कि उत्तर भारत के लोग इसी के बल पर बमकते रहते हैं.

 

 

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