बात 2 मई, 2012 की सुबह की है. दिल्ली स्थित सेना मुख्यालय में सैन्य अभियान निदेशालय के अफसरों ने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड के सदस्यों के लिए एक ब्रीफिंग रखी. इसमें सियाचिन ग्लेशियर को सेनामुक्त किए जाने के सामरिक नुकसान पर एक प्रजेंटेशन दिया गया. अब ये अफसर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भी ब्रीफ करना चाह रहे हैं.
यूपीए सरकार ने जैसे ही पाकिस्तान की ओर अमन के कबूतर छोड़े हैं, सेनाध्यक्ष जनरल वी.के. सिंह के नेतृत्व में सेना ने सियाचिन पर खतरे का सायरन बजा दिया है. रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी ने 30 अप्रैल को लोकसभा को सूचित किया था कि सरकार सियाचिन को सेनामुक्त करने के लिए पाकिस्तान के साथ सार्थक संवाद करने में जुटी है. इसकी तैयारी के लिए साल के अंत तक दोनों देशों के रक्षा सचिव इस्लामाबाद में मुलाकात करेंगे. शहादत के दम पर सियाचिन को जीतने वाली भारतीय फौज इस बात पर अडिग है कि नेताओं को सियाचिन का सौदा करने से हर हाल में रोकना है.
हमेशा की तरह एंटनी मनमोहन सिंह की शांति पटकथा को दोहरा रहे थे. यूपीए के पहले कार्यकाल में 13 जून, 2005 को प्रधानमंत्री ने सियाचिन बेस कैंप पर जवानों को संबोधित करते हुए कहा थाः ''सियाचिन को सबसे ऊंचा युद्धक्षेत्र माना जाता है जहां जिंदा रहना मुश्किल है. अब समय आ गया है कि हम संघर्ष के इस बिंदु को अमन के प्रतीक में बदलने के प्रयास करें.'' सरकार में बैठे सूत्रों के मुताबिक, सियाचिन से सेना हटाने के मुद्दे पर वार्ता को प्रधानमंत्री ने ही बढ़ावा दिया है.
सूत्रों की मानें तो प्रधानमंत्री के लिए दुनिया का सबसे ऊंचा युद्धक्षेत्र-जो भारतीय सेना की कुर्बानी का बर्फ से ढका प्रतीक है-जम्मू और कश्मीर से अलहदा एक मसला है और सेना हटाने का अर्थ बातचीत के उस माहौल को बहाल करना होगा जो 26/11 के मुंबई हमलों के बाद पटरी से उतर गया था.
पाकिस्तान के साथ विश्वास बहाली का मनमोहन सिंह का तरीका सेना को सियाचिन से हटाना है. हालांकि इसके विरोध में खड़े लोगों का मानना है कि मनमोहन सिंह को भी नोबेल शांति पुरस्कार का बुखार चढ़ चुका है और वे राष्ट्रीय हितों की कीमत पर अस्थायी निजी प्रशंसा के लोभ में फंस गए हैं. वे ऐसा करके इतिहास में दर्ज हो जाना चाहते हैं.
सियाचिन दुनिया का सबसे बड़ा पहाड़ी ग्लेशियर है जो 21,000 फुट की ऊंचाई पर स्थित है. यहां तापमान शून्य से 50 डिग्री नीचे तक चला जाता है, फिर भी भारतीय सेना यहां हरदम मुस्तैद रहती है. सियाचिन ग्लेशियर के दक्षिण पश्चिमी किनारे पर साल्टोरो रिज है. 1984 में भारतीय गुप्तचर एजेंसियों को इस बात के ठोस सुराग मिले थे कि पाकिस्तानी फौज साल्टोरो पर कब्जा जमाने की योजना बना रही है. उस समय परवेज मुशरर्फ स्कर्दू ब्रिगेड के कमांडर थे और ऑफिसर इन चार्ज ऑपरेशंस भी थे.
13 अप्रैल, 1984 को भारतीय फौज ने मेघदूत के नाम से हवाई अभियान शुरू किया. कुमाऊं रेजीमेंट के पर्वतारोहियों को साल्टोरो रिज पर उतारा गया ताकि वे प्रमुख शिखरों पर कब्जा कर सकें. 48 घंटे के भीतर ही पाकिस्तानी फौज ने भी ऑपरेशन शुरू कर दिया. काफी ऊंचाई पर भयंकर ठंड में लड़ाई छिड़ गई, लेकिन पहले कब्जा जमाने वाली भारतीय सेना वहां बनी रही.
भारतीय सेना इस बढ़त को थाल में सजाकर पाकिस्तानी फौज को कतई नहीं सौंपना चाहती. यहां सैन्य टुकड़ियों पर भारतीय सेना का प्रति दिन पांच करोड़ रु. खर्च आता है. यहां हादसे भी हुए हैं जिनमें कई जवान मारे गए हैं. पाकिस्तानी सेना के प्रवक्ता मेजर जनरल अतहर अब्बास ने 14 अप्रैल को न्यूयॉर्क टाइम्स को बताया था कि वहां 1984 से लेकर अब तक 3,000 पाकिस्तानी जवान मारे जा चुके हैं, जिनमें 90 फीसदी मौसम की मार के शिकार हुए हैं.
पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल अशफाक परवेज कयानी ने 18 अप्रैल को ग्यारी बेस पर हिमस्खलन से 140 जवानों के मारे जाने के बाद काफी अफसोस के साथ कहा था कि इस विवाद को अब सुलझ लिया जाना चाहिए.
उन्होंने कहा, ''दोनों मुल्कों को मिल-बैठकर सियाचिन समेत सारे मुद्दे सुलझ लेने चाहिए. पाकिस्तान ने सियाचिन पर अपनी फौज भारतीय फौज द्वारा ग्लेशियर के एक हिस्से पर कब्जे के जवाब में तैनात की थी. फौजी तो मुल्क की हिफाजत का अपना फर्ज निभा रहे हैं, लेकिन हल खोजने का काम तो सियासी लीडरशिप को ही करना है.''
इस त्रासदी ने पाकिस्तान में सियासी दिलों को बदला है. पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने सियाचिन से पाकिस्तानी फौज को एकतरफा तौर पर वापस बुलाने की जरूरत के बारे में कहा है. शरीफ ने 17 अप्रैल को हिमस्खलन वाले इलाके का दौरा करने के बाद स्कर्दू हवाई अड्डे पर पत्रकारों से कहा, ''इसे अहं का मामला न बनाएं. पाकिस्तान को पहल करनी चाहिए.'' यह बात अलग है कि जमीनी स्तर पर भावनाएं इतनी तीखी हैं कि उसने शरीफ को बयान वापस लेने पर मजबूर कर दिया. और प्रधानमंत्री पद के दावेदार और पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ के नेता इमरान खान ने इंडिया टुडे को बताया, ''पाकिस्तान और हिंदुस्तान को सियाचिन से एक साथ टुकड़ियां हटा लेनी चाहिए.''
इस तरह के बयान मनमोहन सिंह के लिए सुरीली धुनों जैसे हैं. रक्षा राज्यमंत्री एम.एम. पल्लमराजू ने कयानी के बयान का स्वागत करने में जरा भी देरी नहीं लगाई. सियाचिन को अमन का शिखर बनाने की मनमोहन सिंह की आकांक्षा को अचानक सीमा पार से हवा मिलने लगी. अब तक सियाचिन पर दोनों देशों के बीच 12 दौर की वार्ता हो चुकी है, लेकिन मामला अटका पड़ा है. पाकिस्तान अब भी एक्चुअल ग्राउंड पोजीशन लाइन (एजीपीएल) को नहीं मानता क्योंकि इससे वहां की जनता में यह संदेश जाएगा कि उसकी सेना कभी सियाचिन पर थी ही नहीं. भारतीय फौज साल्टोरो रिज पर है जबकि पाकिस्तानी फौज ग्लेशियर से कम-से-कम दो से सात किमी की दूरी पर है. सरकारी सूत्रों का कहना है कि प्रधानमंत्री को सेना हटाने की राह में पड़े रोड़ों के साफ हो जाने का पूरा भरोसा है.
दोनों ही देश 1984 से लगातार चोटियां फतह करने के लिए होड़ लगा रहे हैं. मुशर्रफ ने सियाचिन का बदला लेने के लिए ही 1999 में करगिल में युद्ध छेड़ा, लेकिन मुंह की खाई और 700 से ज्यादा पाकिस्तानी जवान मारे गए. 2003 में रमजान के दौरान युद्ध-विराम घोषित हुआ जो आज तक जारी है. पाकिस्तान ने भारत को इस इलाके से खदेड़ने की कोशिश की है, लेकिन उसके फौजी नाकाम रहे हैं. जो काम वह जंग के मैदान में नहीं कर सका, अब वही कूटनीति से पूरा कर लेने की इच्छा पाले बैठा है.
भारत का मानना है कि यथास्थिति के कारण पाकिस्तान को ज्यादा नुकसान हो रहा है. जहां तक भारतीय सेना का सवाल है, वह सियाचिन पर समझौता नहीं कर सकती. सैन्य मुख्यालय के एक उच्चपदस्थ सूत्र ने बताया, ''अभी सियाचिन से वापसी की कोई वजह नहीं है. सामरिक और तात्कालिक तौर पर इतनी ऊंचाई पर नियंत्रण भारत के हक में है. पाकिस्तान ने कभी भी भारत को मौका नहीं दिया कि वह उस पर भरोसा कर सके. इस बारे में चीफ (वी.के. सिंह) की सोच बहुत साफ है. यदि टुकड़ियों को वापस बुलाने का आदेश आया तो वे लिखित में यह आदेश मांगेंगे और इसका जवाब भी लिखित में ही देंगे कि राष्ट्रीय हित में वह वापसी का विरोध करते हैं. उसके बाद फैसला प्रधानमंत्री पर होगा.'' सूत्रों के मुताबिक, जब पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल जे.जे. सिंह पर सियाचिन से सेना हटाने का दबाव बढ़ा था तो उन्होंने सार्वजनिक तौर पर कह दिया था कि यह राष्ट्रीय हित में नहीं है. सूत्र ने कहा, ''मौजूदा सेनाध्यक्ष सार्वजनिक बयान तो नहीं देंगे, लेकिन राजनैतिक तिकड़मों की वेदी पर राष्ट्रीय हित से समझौता भी नहीं होने देंगे.''
प्रधानमंत्री के अति उत्साह को देखते हुए सेना अब अपने अवकाश प्राप्त जनरलों के जरिए जमीनी हकीकत और साल्टोरो रिज पर कब्जा बनाए रखने की जरूरत पर जागरूकता फैलाने की कोशिश कर रही है. सेना 1947 से लेकर अब तक पाकिस्तान द्वारा किए गए विश्वासघातों की सूची तैयार कर रही है जिसे वह पुराने जनरलों को देगी ताकि वे ''देश को शिक्षित कर सकें.''
मिलिटरी इंटेलिजेंस के पूर्व महानिदेशक लेफ्टिनेंट जनरल रवि साहनी पूछते हैं, ''पाकिस्तान ने 1947 से अब तक हर लिखित और मौखिक करार को तोड़ा है. आखिर हमारे प्रधानमंत्री इस सचाई से आंख मूंद कर पाकिस्तान पर विश्वास क्यों करना चाह रहे हैं?'' पूर्व सेना प्रमुख जनरल वेद प्रकाश मलिक कहते हैं, ''आखिर क्या गारंटी है कि भारत जिन शिखरों को छोड़ेगा, वहां पाकिस्तान कब्जा नहीं करेगा? फरवरी 1999 में लाहौर शांति प्रक्रिया के कुछ महीनों बाद ही पाकिस्तानी सेना ने नियंत्रण रेखा का उल्लंघन करके करगिल में कई भारतीय चौकियों पर कब्जा कर लिया था.
करगिल में यह घुसपैठ 1972 में दोनों सेनाओं और सरकारों द्वारा मान्य शिमला समझौते के तहत परिभाषित नियंत्रण रेखा का उल्लंघन थी.''
देश का सैन्य रणनीतिक समुदाय सरकार के शांति बहाल करने के इस रवैए के बिल्कुल खिलाफ है. वह चाहता है कि पाकिस्तान से घुसपैठ रुके, वह अपने आतंकी शिविरों को बंद करे, भारत के प्रति विद्वेषपूर्ण रवैया रखने वाले अपनी जमीन पर मौजूद आतंकी समूहों को खत्म करे, उसके बाद ही सियाचिन पर आगे बढ़ा जा सकता है. बहरहाल, सियाचिन में भारत को काफी नुकसान हुआ है. पिछले 10 साल के सरकारी आंकड़ों के मुताबिक,2000 में यहां सेना के 204 जवान मारे गए थे.
2001 में यह संख्या 198, 2002 में 201, 2003 में 187, 2004 में 23 (रमजान युद्ध विराम के बाद) और 2005 में सिर्फ दो रही. रक्षा मंत्री एंटनी ने लोकसभा को बताया कि 2011 में मारे गए जवानों की संख्या 26 थी.
रक्षा विश्लेषक और पूर्व डिवीजन कमांडर मेजर जनरल जी.डी. बक्शी कहते हैं, ''ग्लेशियर में हमारी सेना अच्छी तरह तैनात है. हताहतों की संख्या बहुत कम है और परिस्थितियों के हिसाब से टुकड़ियां कमोबेश सुविधा युक्त हैं. दूसरी ओर, पाकिस्तान बड़ी मुश्किल में है. उसकी टुकड़ियां ऐसे मुश्किल हालात में रहने से इनकार करती हैं, लिहाजा यहां की तैनाती पाकिस्तान को नुकसान पहुंचा रही है. उसे लगता है तो वह एकतरफा तौर पर अपनी सेना वापस बुला सकता है. भारत एक कदम भी आगे नहीं बढ़ाएगा.''
इंटेलिजेंस ब्यूरो के पूर्व निदेशक अजित डोवाल चेताते हैं, ''भारत के लिए असल चिंता पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद है. क्या उसने आतंक के कारखाने बंद कर दिए हैं? क्या उसने जमात-उद-दावा के मुखिया हाफिज सईद या दाऊद इब्राहिम को गिरफ्तार कर लिया है? क्या पाकिस्तान ने अपने यहां वे छापेखाने बंद कर दिए है जहां नकली भारतीय नोट छपते हैं? प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सिर्फ खोखले दावों और बेमायने शब्दों के आधार पर सेना को शिखर से हटने को मजबूर नहीं कर सकते.''
रणनीतिक समुदाय मनमोहन सिंह के इस सियाचिन दांव को 'रणनीतिक आत्मघात' का नाम दे रहा है. लेफ्टिनेंट जनरल साहनी पूछते हैं कि आखिर पाकिस्तान भारतीय सेना के वहां से हटने को लेकर इतना उतावला क्यों है? जवाब भी वे खुद ही देते हैं, ''क्योंकि भारतीय सेना की तैनाती वहां इतनी रणनीतिक है कि वह हर चीज पर नजर बनाए रख सकती है और जरूरत पड़ने पर उत्तरी इलाकों में पाकिस्तान-चीन की धुरी को भेद सकती है. साल्टोरो रिज पर कब्जा लद्दाख और करगिल में घुसने से रोकने के लिहाज से भी अहम है. यह हमारी सबसे अग्रिम रक्षा पंक्ति है. हम जहां खड़े हैं, वहां से पीछे हटने और दोबारा तैनाती की कीमत कहीं ज्यादा चुकानी पड़ेगी.''
सेना ने सरकार के लिए काफी विस्तृत प्रजेंटेशन तैयार की है कि आखिर भारत को सियाचिन से सेना क्यों नहीं हटानी चाहिए.
भारतीय फौज प्रभावशाली ऊंचाई पर तैनात है जो पर्वतीय युद्ध के लिहाज से अहम है.
साल्टोरो रिज पर अपनी स्थिति के चलते भारतीय सेना पाकिस्तान-चीन की बढ़ती गतिविधियों पर भी नजर रख सकती है. पाकिस्तान ने कथित तौर पर गिलगित और बाल्तिस्तान का बड़ा हिस्सा चीन को विकास के लिए सौंप दिया है. इन इलाकों में हजारों की संख्या में चीनी टुकड़ियों और इंजीनियरों के होने की रिपोर्ट है.
भारतीय सेना सियाचिन ग्लेशियर के आगे साल्टोरो रिज पर तैनात है जो जम्मू और कश्मीर तथा लद्दाख की रक्षा के लिए अहम है.
पाकिस्तान 2014 में अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की नियोजित वापसी के मद्देनजर वहां रणनीतिक मजबूती पाने के लिए अपना ध्यान अफगानिस्तान पर केंद्रित करना चाहता है. दो मोर्चों पर सैन्य टुकड़ियां तैनात करना उसे महंगा पड़ेगा. 2014 के बाद वह एक बार फिर अपनी पूर्वी सीमा पर ध्यान देगा जिसमें उसके सहयोगी होंगे दोबारा उभर चुके लश्कर-ए-तैयबा, तालिबान और अलकायदा.
बहरहाल, रणनीतिक बिरादरी के चेहरे का रंग उड़ा हुआ है. मेजर जनरल बक्शी कहते हैं, ''पहले शर्म-अल-शेख में शर्मिंदगी भरा समझौता हुआ, जहां मनमोहन सिंह ने बलूचिस्तान पर घुटने टेक दिए. उसके बाद थिंपू में झटका लगा जहां 26/11 के षड्यंत्रकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई न करने के बावजूद पाकिस्तान जिम्मेदारी से बच निकला और अब सियाचिन से प्रस्तावित सेना हटाना. प्रधानमंत्री ने अगर सियाचिन पर सेना की सलाह की उपेक्षा की तो वे राष्ट्र के साथ भारी नाइंसाफी करेंगे.''
सेंटर फॉर लैंड वारफेयर स्टडीज के पूर्व निदेशक ब्रिगेडियर गुरमीत कंवल तर्क देते हैं, ''आज तकनीक के सहारे किसी भी समझौते के उल्लंघन और टुकड़ियों की गतिविधि पर निगरानी रखना संभव है. यदि पाकिस्तान ने समझौते का उल्लंघन किया तो उसके खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई का प्रावधान होगा.'' द्रास में ब्रिगेड का संचालन कर चुके ब्रिगेडियर राजीव विलियम्स कहते हैं, ''भारत और पाकिस्तान को करगिल और सियाचिन से आगे देखना होगा. सेनाएं हटाने से जिंदगियां और कीमती संसाधन दोनों बचेंगे.''
जैसे-जैसे मनमोहन सिंह की पारी शर्मनाक अंत की ओर बढ़ रही है, उनके अंदर बैठा अमन का कबूतर तेजी से पंख फड़फड़ा रहा है. भले ही इसके लिए सियाचिन को क्यों न बेचना पड़े. उन्हें सबसे पहले अपनी फौज को विश्वास में लेना है जिसकी कमान एक लड़ाकू जनरल के हाथ में है. 1 जून को नए सेना प्रमुख आएंगे. कहीं ऐसा तो नहीं कि प्रधानमंत्री सियाचिन का जो तोहफा पाकिस्तान को देना चाह रहे हैं, उसके लिए जनरल बिक्रम सिंह बहाना बनकर आ रहे हों?
-इस्लामाबाद में कसवर अब्बास