पानीपत की (तीसरी) लड़ाई इतिहास में दर्ज है. पर इससे ज्यादा यह भारतीय जनमानस में लोक चर्चा में जिंदा रही है. 14 जनवरी, 1761 की उस लड़ाई में लगभग नष्ट हो गई एक जाति उस चर्चा का एक अहम पहलू रही है. उस जाति की जड़ें ही जैसे खो गई थीं. उसे खोज निकालना इतिहासकारों के लिए एक चुनौती भरा काम था. दो शताब्दियों के बाद अब यह चुनौती हल हो पाई. जाहिर है, पराक्रमी पूर्वजों से अपना जुड़ाव स्थापित हो जाने से अब वह जाति गर्व के साथ अपने मूल समुदाय से फिर जुड़ सकी.
पानीपत की उस लड़ाई में अफगानी हमलावर अहमदशाह अब्दाली ने अपनी बेहतर रणनीति के चलते सेनापति सदाशिवराव भाऊ की अगुआई वाली बहादुर मराठा सेनाओं को हराकर तितर-बितर कर दिया था. कुछ मराठा सैनिक लापता हो गए. उस युद्ध के 250 साल पूरे होने के साथ वह तलाश भी खत्म हुई.
25 जनवरी 2012: तस्वीरों में देखें इंडिया टुडे
आठ साल के शोध के बाद अब यह साबित करने के लिए पर्याप्त सबूत मिल गए हैं कि पानीपत के आसपास के 230 गांवों में बसे रोड समुदाय के छह लाख लोग दरअसल उन 500 मराठा सैनिकों के ही वंशज हैं, जो अब्दाली की फौज के हाथों, तितर-बितर कर दिए जाने के बाद जंगलों में छिप गए थे. सन् 1761 से पहले के रिकॉर्डों में इस इलाके में रोड जाति का कोई उल्लेख नहीं मिलता. गौरतलब है कि पानीपत की लड़ाई में 50,000 से ज्यादा मराठा सैनिक मारे गए थे, जो बचे, उन्हें जंगलों में छिपना पड़ा क्योंकि अफगानों ने युद्ध का नारा ही दे रखा था, 'एक मराठा मुंडी लाओ, सोने का एक सिक्का पाओ.' युद्ध में मारे गए लोगों में सदाशिवराव भाऊ, पेशवा बालाजी बाजीराव के पुत्र विश्वासराव, ग्वालियर के राजघराने के जनकोजी और तुकोजी सिंधिया, धार और देवास घराने के यशवंतराव पवार जैसे मराठा सेनापतियों के अलावा जाधव, निंबालकर, भापकर (चव्हाण), भोंसले, कदम, फाल्के, भोइते, पैगुडे, सावंत और कई अनजान मराठा परिवारों के जत्थे थे. मराठा तोपखाने के बहादुर मुस्लिम सेनापति इब्राहिम खां गार्दी को तो अफगानों ने बड़ी बेरहमी से मारा. उनका गुनाह? वे मराठों की ओर से लड़ रहे थे. गार्दी की सेना के 5,000 मुस्लिम सैनिक भी इस युद्ध में मारे गए थे. एक ने भी पीठ नहीं दिखाई.
11 जनवरी 2012: तस्वीरों में देखें इंडिया टुडे
रोड समुदाय की जड़ों की खोजबीन एक दशक पहले हरियाणा के पूर्व नौकरशाह और मराठा जागृति संघ के अध्यक्ष, 64 वर्षीय वीरेंद्र सिंह वर्मा उर्फ जाखले ने शुरू की. उन्हीं के शब्दों में, 'हमारी हिंदी बोली में मराठी शब्दों से लेकर, हमारी पुरानी हवेलियों की शैली से लेकर घोड़ों के प्रति हमारे प्रेम, हमारे उपनाम और हमारी परंपराएं साबित करती हैं कि हम पानीपत की लड़ाई से लुप्त हुए मराठा सैनिकों के वंशज हैं. इस जानकारी के सामने आने से पूरा समुदाय पुरानी यादों में डूबने के साथ ही गर्व के भाव से भर गया है.'
जाने-माने मराठा इतिहासकार वसंतराव मोरे कोल्हापुर विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ाते थे. उन्होंने पानीपत युद्ध के रोड मराठाओं का इतिहास नाम से एक पुस्तक लिखी है. वे कहते हैं, 'पानीपत की लड़ाई में लुप्त हुए मराठा सैनिकों की खोज के लिए खुद पेशवाओं की और उसके बाद पंजाब विश्वविद्यालय के विद्वानों की कोशिश कामयाब न हो सकी थी. वजह? उनमें से किसी का भी वास्ता पानीपत के आसपास बसे रोड समुदाय से नहीं पड़ा था. रोड समुदाय के 80 फीसदी से ज्यादा उपनाम मराठों से मिलते-जुलते हैं. यही स्थिति उनकी कई परंपराओं और रोड समुदाय की स्थानीय बोली के कई शब्दों की है.'
04 जनवरी 2012: तस्वीरों में देखें इंडिया टुडे
इस अहम तथ्य को सामने लाने में सबसे बड़ा सुराग तो उपनामों से ही मिला. रोड समुदाय के मराठा उपनामों में पवार, चव्हाण, भोंसले, सावंत, मेमाने, दुधाणे, खोखरे, खसबरे, गोले, धबाड़े, बोडले, झोंढले, शेलार, बटाने और कई अन्य हैं. उनकी भाषा के कई शब्द खास मराठी हैं. महाराष्ट्र की मीठी रोटी पूरणपोली को वे 'पोली' कहते हैं. रुपए को 'हूण' कहा जाता है. छत्रपति शिवाजी की मुद्रा का नाम भी हूण था. पूरे हरियाणा में यही एक ऐसा समुदाय है, जो रात को दाल-चावल खाता है. मराठी गांवों में आज भी यह एक परंपरा है. पानीपत के युद्ध में शामिल कई मराठा सैनिक महाराष्ट्र के तटवर्ती कोंकण इलाके के थे. इसी वजह से रोड समुदाय के गीतों में समुद्र का जिक्र है. हरियाणा की किसी और जाति में इसका जिक्र नहीं. रोड समुदाय की शादियों में मामाओं की उतनी ही महत्वपूर्ण भूमिका होती है, जितनी कि महाराष्ट्र में.
करनाल के पास केमला गांव में अपने घर में हुक्का गुड़गुड़ाते हुए 63 वर्षीय रोड मराठा किसान हरि सिंह पवार कहते हैं, 'इस बात में रत्ती भर भी कोई शक-शुबहा नहीं कि हम पानीपत की लड़ाई से बचे मराठा सैनिकों के वंशज हैं. अभी हाल तक रोड परिवारों में तलवारें और भाले हुआ करते थे. घोड़ों के प्रति हमारा प्रेम तो हर कोई जानता है.' झक सफेद साफ़ा बांधने वाले और पुरानी मराठा परंपरा की बालियां कान में पहनने वाले 80 साल के लखपत सिंह थरडक कहते हैं, 'इस इलाके में रोड ही हैं, जो मराठों की तरह घोड़ों के प्रति अपना प्रेम बरकरार रखे हुए हैं. और यह प्रेम पीढ़ियों से चला आ रहा है.' थरडक के भतीजे और मेहनती किसान 25 वर्षीय राजवीर सिंह और उनके भाई ने गांव में हवेलीनुमा मकान बनवाया है. इस गांव में अभी हाल तक मराठा शैली की हवेलियां होती थीं.
28 दिसम्बर 2011: तस्वीरों में देखें इंडिया टुडे
झांझरी गांव की एक टूटी-फूटी हवेली में मराठा वास्तुकला के अक्स साफ देखे जा सकते हैं. प्रवेशद्वार पर तराशा हुआ लकड़ी का चौकौर दरवाजा, जिसके ऊपर एक तोरणचाप है. वहीं खड़े 36 वर्षीय किसान नरेश खोखरे कहते हैं, 'इसमें और महाराष्ट्र की हवेलियों में एकमात्र अंतर यह है कि महाराष्ट्र की कई हवेलियों में यह चौकौर दरवाजा काले पत्थर का होता है, यहां चूंकि काला पत्थर मिलता नहीं, इसलिए हमने लकड़ी को तराशकर उसका इस्तेमाल किया.'
रोड समुदाय की मराठा जड़ों का निर्णायक सबूत है यहां के गांवों में बात-बात पर 'छत्रपति की जय' (छत्रपति शिवाजी महाराज के नाम पर) बोलना. यह परंपरा पीढ़ियों से चली आ रही है. दादूपुर कला गांव में मराठा उपनाम वाले कई परिवार हैं. यहां हाल ही में रोड मराठा समुदाय का एक बड़ा भवन बनवाया गया है. इसी गांव के 81 साल के इंद्रराज सिंह दुधाने कहते हैं, 'हमारे यहां बच्चे को छींक भी आने पर हमारी माताएं 'छत्रपति की जय' कहती हैं. यह एक बड़ा सबूत है.' उन्हीं के साथ बैठे 86 साल के आभाराम दुधाने कहते हैं, 'महाराष्ट्र की तरह यहां भी दीवाली के बाद पड़ने वाला भाई-दूज का त्यौहार राखी से ज्यादा अहमियत रखता है. यह बात हरियाणा की बाकी जातियों के लिए बेहद अनूठी है.' रोड समुदाय की महिलाओं का पहनावा वैसे तो हरियाणा की बाकी महिलाओं की तरह ही होता है, लेकिन बुजुर्गों के सामने सिर ढांकने की उनकी शैली बिल्कुल ग्रामीण मराठी महिलाओं जैसी ही है.
21 दिसम्बर 2011: तस्वीरों में देखें इंडिया टुडे
कुछ बुजुर्गों के पास बड़ी दिलचस्प बातें हैं. दादूपुर खुर्द गांव में 86 वर्षीया पत्नी सुनहरी देवी और बेटों-बहुओं के साथ रहने वाले 90 साल के बारूराम खसबरे कहते हैं, 'मुझे हल्की-सी याद है, पिताजी मुझसे कहते थे कि पानीपत की लड़ाई से पहले किस तरह हमने कुंजपुरा का किला मुसलमानों से छीना था और किस तरह उस लड़ाई में दुर्घटनावश हमारे कुछ घोड़े फिसलकर एक तालाब में गिर गए थे और फिर हम जंगलों में बस गए.' रोड समुदाय के मराठा संबंधों का एक और संकेत यह है कि इस इलाके में बाकी समुदायों की तुलना में उनकी संतानों की पैदाइश ज्यादा तेज दर से हुई है, ताकि वे बड़ी संख्या से खुद को सुरक्षित कर सकें. 1911 से 2001 के बीच रोड समुदाय की आबादी में 14 गुना से ज्यादा बढ़ोतरी हुई है, जो इस क्षेत्र की अन्य जातियों की तुलना में कई गुना ज्यादा है.
अफगानों को लगभग हरा देने वाले मराठों की वीरता ने अहमदशाह अब्दाली को इतना प्रभावित किया था कि उसने उस वक्त जयपुर के शासक माधव सिंह को लिखी चिट्ठी में लिखाः 'मराठे बहुत ही बहादुरी से लड़े. यह किसी और जाति के बस की बात न थी. ये बेखौफ लड़ाके युद्ध के मैदान में जौहर दिखाने में किसी से कम न थे. लेकिन बेहतर रणनीति और अल्लाह के फजल से आखिर में हम जीते.' अब्दाली, जो इतिहास में अहमदशाह दुर्रानी के नाम से जाना जाता है, 1761 से पहले भारत पर पांच से ज्यादा बार हमला कर चुका था, लेकिन 1761 के बाद उसने भारत पर एक बार भी हमला नहीं किया. इससे पता चलता है कि इसके बाद अब्दाली में भारत पर फिर हमला करने की ताकत नहीं रह गई थी. युद्ध में उसके भी 35,000 से ज्यादा सैनिकों के मारे जाने की बात कही जाती है.
14 दिसंबर 2011: तस्वीरों में देखें इंडिया टुडे
मोरे के शब्दों में, 'उस दौर में जब हम धर्मों/जातियों में बंटे हुए थे. यह युद्ध राष्ट्रीय एकता की शानदार मिसाल पेश करता है. अब्दाली ने गार्दी और उनके मुस्लिम सैनिकों को धर्म के नाम पर फुसलाने की काफी कोशिश की पर नाकाम रहा. युद्ध में घायल मराठा सेनापति महादजी सिंधिया के प्राण एक मुस्लिम राने खां ने बचाए थे. वह सिंधिया का जीवन भर मित्र रहा. सिंधिया उसे इस घटना के बाद से भाई कह कर पुकारते थे.'
पानीपत के युद्ध के बाद 1780 के दशक में जब मराठों ने महादजी सिंधिया की अगुआई में उत्तर भारत में अपनी खोई प्रतिष्ठा हासिल कर ली और मुगल सम्राट शाह आलम के संरक्षक हो गए, तब भी पानीपत की उनके मन में एक खास जगह बनी रही. सिंधिया के सेनापति और जमाई लाडोजीराव शितोले की सेवाओं से खुश होकर शाह आलम ने उन्हें दिल्ली के उत्तर में 100 गांव देने की पेशकश की तो शितोले ने उनसे पानीपत का नाम सम्राट से यह कहते हुए लिया कि 'पानीपत मेरे दिल में बसा हुआ है, क्योंकि हमारे लोगों ने वहां पर अपना खून बहाया है.' 1860 तक पानीपत शितोले की जागीर रहा. बाद में बनारस की संधि में अन्य इलाकों के एवज में इसे अंग्रेजों को सौंप दिया गया.
कुंजपुरा के ऐतिहासिक किले के पास अपने तमाम रिश्तेदारों के साथ रहने वाले रोड मराठा किसान कुलदीप सिंह भोंसले कहते हैं, 'पानीपत के युद्ध में बचे सैनिकों के वंशज होने की बात ने हमें गर्व करने लायक पहचान दी है.' कुंजपुरा में उनके जैसे करीब 200 भोंसले रहते हैं, जिनमें उनके भतीजे रूपेंद्र, जसविंदर और भतीजी मीनलदेवी शामिल हैं.