रंगों की गंध (1-2)
गोविंद मिश्र
किताबघर प्रकाशन, दरियागंज,
नई दिल्ली2
कीमतः 430 और 495 रु.
यात्रा मनुष्य को बहुत कुछ सिखाती है, अनुभव देती है. लेखकों के लिए तो यात्रा बहुत जरूरी खुराक की तरह है. इस खुराक के बिना लेखकों के लेखन में गतिरोध आ जाता है, स्थिरता आ जाती है. जो लेखक जितनी यात्राएं करते हैं उनका लेखन उतना ही वैविध्यपूर्ण होता है.
यात्राओं को लेखन में शामिल करने का ही परिणाम है कि यात्रावृत्त एक अलग विधा के रूप में हमारे सामने उपस्थित है. यात्रावृत्त लेखकों की यात्राओं का सामान्य विवरण न होकर इस मामले में विशेष होता है कि लेखक अपनी यात्राओं की छोटी से छोटी चीजों को दर्ज करते चलते हैं. किसी जगह को संपूर्णता में देखने-दिखाने का उद्देश्य भी उनके साथ जुड़ा होता है. घूमी गई जगह की सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक-लगभग सभी चीजों पर उनकी नजर होती है. इन सबके कहीं विस्तृत, तो कहीं सांकेतिक वर्णन पाठकों को स्थान विशेष के बारे में जानने-समझने में काफी मददगार साबित होते हैं.
हिंदी में राहुल सांकृत्यायन, अज्ञेय, देवेंद्र सत्यार्थी, नागार्जुन, त्रिलोचन, निर्मल वर्मा आदि ऐसे लेखक हुए हैं जिन्होंने यात्राएं भी काफी की हैं. इस सूची में गोविंद मिश्र का नाम भी बड़े आराम से जोड़ा जा सकता है. गोविंद मिश्र के साथ अच्छी बात यह है कि इन्होंने जितनी यात्राएं की उनमें से कुछ को छोड़कर बाकी को दर्ज भी किया. पटना के किसी ज्योतिषी की भविष्यवाणी (''विदेश यात्रा का जोग नहीं बनता'') को झुठलाते हुए गोविंद मिश्र ने खूब विदेश यात्राएं कीं और उन यात्राओं के विवरणों से पाठकों को खूब रोमांचित भी किया.
देश-विदेश की उनकी यात्राओं का विवरण पढ़कर पाठक जिस सहजता से देश-दुनिया की जानकारी पा सकते हैं उस सहजता से किसी सामान्य ज्ञान की पुस्तक से नहीं पा सकते. और यह जानकारी सामान्य ज्ञान की पुस्तकों-सी शुष्कता से नहीं बल्कि एक जगह से दूसरी जगह जाते हुए, तरह-तरह के लोगों से मिलते हुए, तरह-तरह की सभ्यता संस्कृतियों से रूबरू होते हुए पाई जा सकती है.
मॉरिशस, ब्रिटेन, फ्रांस, बेल्जियम, एम्सटर्डम, जर्मनी, हंगरी, चेकोस्लोवाकिया, स्विट्जरलैंड, के अनेक शहर, अनेक पहाड़, अनेक नदियां, अनेक लोग इन यात्रा-विवरणों में आए हैं. उनके बारे में जानना कई दिलचस्प अनुभवों से गुजरने जैसा है. दूसरी तरफ अपने देश की बस्तर, अरुणाचल, चित्तौड़, पचमढ़ी, हल्दिया, किन्नौर, कांगड़ा आदि जगहों के सामाजिक, सांस्कृतिक और प्राकृतिक रंग और गंध भी प्रचुर मात्रा में इन यात्रावृत्तों में पाए जा सकते हैं. दूसरे देशों में घूमते हुए गोविंद मिश्र उस देश की संस्कृति से अपने देश की संस्कृति की जो तुलना करते रहते हैं उससे दोनों देशों की संस्कृतियों के अंतर का भी पता चलता रहता है.
गोविंद मिश्र के इन यात्रा-वृत्तांतों को पढ़कर वैसे एक बात हर वक्त महसूस होती रहती है
कि वे उस तरह के यायावर तो नहीं ही हैं जैसे उनके पिता जी या नागार्जुन या सत्यार्थी जी थे. गोविंद मिश्र अपने पिता जी या नागार्जुन या सत्यार्थी जी की तरह बिना सुविधा और साधन के यात्रा का जोखिम उठाने वाले यात्री नहीं रहे हैं. हरेक तरह की सुविधा के बीच की गई गोविंद मिश्र की यात्रा इसीलिए प्रायोजित जैसी लगने लगती है. यात्रा में देखी-सुनी हरेक चीज को दर्ज करते चलने का भाव गोविंद मिश्र को सचेत यात्री सिद्ध करता रहता है, जबकि यात्री को कुछ-कुछ अचेत तो होना ही चाहिए. अचेत होकर ही संभवतः किसी यात्रा, किसी स्थान की अंतरात्मा को पकड़ा जा सकता है. सचेत होकर तो उसकी ऊपरी रूपरेखा को ही पकड़ना संभव हो सकता है.