जानी- मानी पत्रिका सामायिक सरस्वती का ताजा अंक हिंदी के सर्वाधिक प्रतिष्ठित आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल की प्रासंगिकता को फिर से समझने-बूझने का प्रयास है. इस अंक के संपादक दिनेश कुमार ने सही लिखा है कि साहित्य की रक्षा करते हुए उसकी सामाजिक सार्थकता को महत्व देने वाले पहले आलोचक हैं आचार्य रामचंद्र शुक्ल.
शुक्ल जी से पहले हिंदी आलोचना में एक शून्य-सा था, अपने समकालीन एवं प्राचीन साहित्य एवं अवधारणाओं को जांचने एवं परखने को कोई निश्चित सिद्धान्त नहीं थे. इस संदर्भ में महाकवि देव एवं बिहारी पर लिखी गई लाला भगवानदीन एवं प. पद्म सिंह शर्मा की रीतिकालीन कविता की प्रशंसापरक एवं तुलनात्मक समीक्षा का उल्लेख है. इन दोनों समीक्षकों ने फारसी, उर्दू एवं संस्कृत कविता से इन कवियों की तुलना की और वाह-वाह की झड़ी लगा दी.
रत्नाकर जी ने भी प्रकारांतर से यह कार्य किया, स्वाभाविक है कि इससे हिंदी आलोचना का भला तो क्या होता, इसकी छवि को नुकसान ही पहुंचा. हालांकि, दोनों आलोचक हिंदी काव्यशास्त्र के मर्मज्ञ थे पर अपने समकाल को लेकर मिसफिट रहे और ठीक यहीं से उत्पन्न शून्य को भरते हुए आचार्य शुक्ल ने हिंदी की सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक आलोचना को एक व्यवस्थित रूप दिया.
उन्होंने हिंदी आलोचना को संस्कृत काव्यशास्त्र के अनुकरण से मुक्त किया तो दूसरी तरफ पश्चिमी आलोचना के अनुकरण से बचाया भी. उन्होनें ही 'लोकमंगल की साधनावस्था', 'लोकमंगल की सिद्धावस्था', 'कर्म सौन्दर्य', 'विरूद्धों का सामंजस्य', 'गल्प प्रबंध', 'प्रसंग गर्भत्व', 'शीलदशा' जैसे पद और अवधारणाएं दीं.
उन्होंने तुलसी, जायसी, सूरदास के काव्यप्रबन्धों का सम्पादन किया और उनकी विस्तृत भूमिकाएं लिखकर काव्य मूल्यांकन के नए आयाम निश्चित किए. इसी के समानांतर उन्होंने दो ऐतिहासिक कार्य और किए- हिंदी शब्द सागर का सम्पादन एवं हिंदी साहित्य के इतिहास का लेखन. हिंदी संसार में इस ग्रन्थ जैसी प्रतिष्ठा किसी और पुस्तक को नहीं मिली. शुक्ल जी की स्थापनाएं आज भी वेद वाक्य के समान है और हिंदी के 80 फीसदी प्राध्यापक-आलोचक उन्हीं के मार्ग का अनुसरण कर रहे हैं, यह हिंदी का दुर्भाग्य है.
दरअसल हिंदी आलोचकों के एक वर्ग में आचार्य शुक्ल का विरोध उनके कबीर सम्बंधित दृष्टिकोण एवं छायावाद, कहानी एवं उपन्यास में विचारों को लेकर है. और इसकी शुरुआत हिंदी के सर्वाधिक जिंदादिल आलोचक डॉ. नामवर सिंह ने अपने गुरु आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी पर लिखी 'दूसरी परंपरा की खोज' पुस्तक से की. उल्लेखनीय है कि यहां संकलित अधिकांश लेख प्रकारांतर से उसी पुस्तक की अवधारणाओं से विरोध जताते हुए शुक्ल जी के विचारों को पुनर्स्थापित करने की कोशिश है. जबकि शुक्ल जी को प्रतिष्ठा को कोई खतरा नहीं है, आख़िरकार किसी भी आलोचक या रचनाकार का महत्व तो इसी बात से किया जाता है कि उसका लेखन या विचार कितने बहस-तलब है अर्थात आप उनसे कितनी जिरह कर सकते हैं. इस सन्दर्भ में हम अगर हिंदी आलोचना के इतिहास को खंगाले तो शुक्ल जी के विचारों से सभी महत्वपूर्ण यथा विजय देव नारायण साही, रामविलास शर्मा, नन्द दुलारे बाजपेयी, आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, नामवर सिंह आदि ने गहरे जा कर मुठभेड़ की है और हिंदी आलोचना को समृद्ध किया है.
और इस पृष्ठभूमि के बाद इस अंक में संकलित विद्वानों यथा- मधुरेश, सुधीश पचौरी, प्रोफेसर गोपेश्वर सिंह, रवि रंजन, श्री भगवान सिंह, सदानंद शाही, कमलेश वर्मा, डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी, ओमप्रकाश सिंह एवं विजयबहादुर सिंह के लेख पर कुछ बातें. ये लेख आचार्य शुक्ल के समीक्षा सिद्धांतों, उनकी अवधारणाओं, उनके युग की सीमा, पाश्चात्य काव्यशास्त्र के साथ उनकी मुठभेड़, तुलसी, जायसी, कबीर पर शुक्ल जी के दृष्टिकोण, रीतिकालीन कवियों को लेकर उनकी अरुचि, छायावाद, रहस्यवाद आदि पर उनकी वैचारिकता पर एवं विभिन्न आलोचनात्मक दृष्टियों का विश्लेषण करते हुए लिखे गए हैं और प्रकारांतर से शुक्ल जी के आलोचनात्मक लेखन को समझने में सहायक हैं.
उल्लेखनीय कहूं या दुर्भाग्य कि अधिकांश लेख शुक्ल जी को लेकर श्रद्धाविगलित रुख का ही पोषण करते हैं. एक तरह की रुपवादी दृष्टि यहां इकट्ठा अधिकांश लेखकों को डॉ. नामवर सिंह के शुक्ल जी से सम्बंधित विचारों खासकर लोक सम्बंधित उनकी अवधारणा को लेकर आपत्ति है. इस संदर्भ में मैं यह बात जरूर कहना चाहूंगा की किसी भी लेखक ने नामवर जी के शुक्ल जी के आलोचनात्मक कृतित्व को लेकर उनके नए दृष्टिकोण का जिक्र नहीं किया है.
नामवर जी ने पिछले वर्ष ही रामचंद्र शुक्ल ग्रंथावली का सम्पादन किया है, और विस्तृत भूमिका लिखकर शुक्ल जी को लेकर फैले कुहासे को साफ़ करने की कोशिश की है. यदि स्पष्ट कहूं कि लेख महत्वपूर्ण है और बहस को आमंत्रित करते है पर विजय बहादुर सिंह का आचार्य शुक्ल के सर्वाधिक प्रखर शिष्य नन्द दुलारे बाजपेयी के अपने गुरु के बारे में एवं सदानंद शाही के लेख उल्लेखनीय हैं.
सुधीश पचौरी गंभीर लेख लिखते हुए भी अपने खिलंदड़ाना स्वभाव को नहीं छोड़ते और व्यंग्य कर जाते हैं जो शुक्ल जी के भक्तों को नागवार गुजर सकता है.
ठीकठाक सामग्री. संपादक दिनेश कुमार इसके लिए बधाई के पात्र हैं. बेहतर होगा की वे त्रिलोचन शास्त्री एवं केदारनाथ सिंह के व्यक्तित्व कृतित्व पर विशेषांक निकालें. रामचंद्र शुक्ल जैसे वटवृक्ष सदैव प्रासंगिक हैं और रहेंगे. उन पर फुर्सत में बात की जा सकती है.
मैंने स्थानाभाव के कारण उन लिखों की बाबत गहराई से बात नहीं की है और इतिहास-दृष्टि, दर्शन आदि कई अवधारणाओं को ओझल किया है. उन पर फिर कभी, गंभीर पाठकों को यह अंक सोचने को विवश करेगा ऐसी उम्मीद है.
पत्रिकाः सामयिक सरस्वती (त्रैमासिक)
अंकः जनवरी-मार्च 2018
संपादकः महेश भारद्वाज
अतिथि संपादकः दिनेश कुमार
मूल्यः 100 रु.