इस बार के गणतंत्र दिवस पर एक ऐतिहासिक दृश्य देखने को मिला. दिल्ली में इंडिया गेट स्थित राजपथ पर देश के इस सबसे बड़े समारोह में वायु सेना की टुकड़ी का नेतृत्व कर रही थी राजस्थान के शेखावाटी अंचल की एक बेटी स्नेहा शेखावत. उन्होंने राष्ट्रपति के नाते तीनों सेनाओं की प्रमुख और शेखावाटी की ही बेटी प्रतिभा देवीसिंह पाटील को सलामी दी. इस खास मौके पर सेना की किसी टुकड़ी की अगुआई करने वाली वे देश की पहली महिला सैन्य अधिकारी बन गईं. संयोग देखिए कि सर्वश्रेष्ठ परेड दस्ते का खिताब भी वायु सेना को ही मिला. यह घटना सोच के स्तर पर शेखावाटी की महिलाओं में तेजी से आ रहे बदलाव की ओर इशारा कर रही थी. एक तरह से इसने शेखावाटी की उन साहसी युवतियों के इरादों को बल ही दिया जो देश की सर्वोच्च सैन्य इकाई में आना चाहती हैं.
आइए, इस रुझान के तार को पकड़ने की कोशिश करें. इसकी शुरुआत कागज के एक टुकड़े से हुई. बात 1992 की है. 28 अप्रै़ल, 1986 को जन्मी स्नेहा की उम्र उस वक्त 7 साल थी. वे कागज के टुकड़ों से जहाज बनाने और उड़ाने लगीं. घर वाले उसे ऐसा बार-बार करते देखते. लेकिन इसका अंदाज उन्हें भी न था कि यही लड़की एक दिन राजपथ पर एक इतिहास रचेगी. बचपन के खेल के उन्हीं कुछ लम्हों में इस नन्ही बिटिया के दिलो-दिमाग में पायलट बनने का सपना बैठ गया. उन दिनों की याद दिलाने पर अब वे बस हंस देती हैं.
पारिवारिक माहौल ने भी उनके सपनों को हवा देने में कोई कसर न छोड़ी. गुजरात राजभवन मे अवर सचिव महावीर सिंह शेखावत और उनकी पत्नी जागृति दोनों बेटी के लिए कुछ भी करने को तैयार थे. गुजरात में स्कूली शिक्षा के बाद बी.एससी. की पढ़ाई उन्होंने राजस्थान में ही जोधपुर से की. वायु सेना में आगाज के लिए जरूरी परीक्षाओं/साक्षात्कार का रास्ता पार करने के बाद डेढ़ साल की ट्रेनिंग उन्होंने हैदराबाद में ली. आज वे वायु सेना के लड़ाकू जहाज उड़ा रही हैं. उन्हीं के शब्दों में, 'पायलट बनना मेरा सबसे बड़ा सपना था, जो आखिरकार पूरा हुआ.' शेखावाटी के सीकर जिले के हरदासपुर गांव की स्नेहा की साथी पायलट सौरभ से आंखें चार हुईं और 2010 में दोनों ने एक-दूसरे के गले में माला डाल दी.
इस तरह का सपना पालने वाली वे शेखावाटी की अकेली युवती नहीं थीं. बीसियों और इस रास्ते पर चलने की तैयारी कर रही थीं. जिन्हें कामयाबी मिली, उनमें वीणा सहारण भी हैं. आज वे आइएल-76 नाम का जहाज उड़ा रही हैं. इतना ही नहीं, इस विमान को उड़ाने वाली वे देश की पहली महिला पायलट हैं. इससे पहले इस जहाज को पुरुष पायलट ही उड़ाया करते थे. इसकी वजह भी हैः आइएल-76 का वजन 190 टन होता है और यातायात के हिसाब से यह देश का सबसे बड़ा जहाज है. युद्ध और आपदा जैसी स्थितियों में यह वायु सेना का सबसे उपयोगी वाहन है.
इस जहाज की कमान महिला पायलट के हाथों में देने की पहल भारतीय वायु सेना के इतिहास में बड़ा कदम थी. वीणा यह जिम्मेदारी उठाने के लिए लगातार दस्तक देती आ रही थीं. उन्होंने इससे पहले एएन-32 नाम का जहाज उड़ाकर अपनी योग्यता साबित की. इस जहाज से वे देश के दुर्गम सैन्य स्थलों पर राशन और दूसरी जरूरी चीजें पहुंचाती थीं. कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश जैसे पहाड़ी प्रदेशों के दुर्गम इलाकों मे वे पूरी दक्षता और हौसले के साथ उड़ान भरती रहीं. भूकंप, बाढ़ और सूनामी जैसी आपदाओं पर उन्हें जरूरी जिम्मेदारियां सौंपने में वायु सेना के अधिकारियों को संकोच न हुआ. उनकी काबिलियत पर पूरा भरोसा हो जाने के बाद आखिरकार 2009 में उन्हें आइएल-76 की कमान सौंप दी गई. फिलहाल चंडीगढ़ में तैनात स्क्वाड्रन लीडर वीणा अब भी इस जहाज को उड़ाने वाली एकमात्र महिला पायलट हैं. वे वायु सेना के एचपीटी-32 और डीओ 228 नाम के जहाज भी उड़ा चुकी हैं.
शेखावाटी के चूरू जिले के रतनपुरा गांव की 30 वर्षीया वीणा के उड़ने के सपने और हौसले उम्र के साथ लगातार जवान होते गए. उनके पिता हरि सिंह सहारण सेना मे कर्नल थे. ताऊ और नाना भी भी फौजी थे. इस तरह घर में सैन्य माहौल था. 12 जून, 1981 को जन्मी वीणा की स्कूली शिक्षा पिता की पोस्टिंग के हिसाब से कई जगहों पर हुई. खासकर दिल्ली, जयपुर और बीकानेर. यह विज्ञान स्नातक छात्रा 2001 में फिजिक्स में दिल्ली यूनिवर्सिटी टॉप कर गई. स्नातक परीक्षा का नतीजा आता, उससे पहले ही सर्विस सेलेक्शन बोर्ड (एसएसबी) ने वीणा का चयन कर लिया. दस साल की नौकरी में तीन तरक्की पा चुकी वीणा की मानें तो सेना की नौकरी लड़कियों के हिसाब से सबसे अच्छी है. उनके शब्दों में, 'देखिए, लड़कियां चाहे शहर की हों या गांव की, प्रतिभा सब में होती है. जरूरत बस परिजनों से थोड़ा-सा प्रोत्साहन मिलने की होती है.' और उड़ने का सपना पूरा होने की खुशी? 'वह कोई बड़ी बात नहीं. एक दिशा में ईमानदारी से मेहनत के साथ लगे रहें तो कामयाबी मिलनी ही है.' 2010 में वीणा ने थल सेना के कैप्टन तरुण सिंह से ब्याह कर लिया. यानी बाकी जिंदगी भी सैन्य माहौल में ही कटेगी.
ऐसा भी नहीं कि सेना की ओर रुख करने वाली, शेखावाटी की सारी लड़कियों की राह इतनी ही आसान रही हो. 26 साल की अंजु मील को ही लीजिए. सीकर के लालासी गांव की अंजु 2009 में सेना में लेफ्टिनेंट के पद पर भर्ती हुईं. अगले ही साल तरक्की पाकर आज वे कैप्टन हैं. सीआरपीएफ में निरीक्षक पद से रिटायर रामप्रताप मील और गृहिणी मां भंवरी देवी की बेटी अंजु के लिए ठेठ गांव में रहकर सेना में पहुंच पाना चुनौती भरा था. लेकिन बचपन का सपना उन्हें उसी ओर खींच रहा था. जयपुर से विज्ञान स्नातक अंजु अजमेर में स्कूली पढ़ाई के दौरान एथलेटिक्स की स्पर्धाओं में अक्सर अव्वल आती रहीं. उनकी कद-काठी सैनिकों जैसी थी ही. फिर क्या था! उन्होंने सेना में जाने वाली परीक्षाओं में दमखम आजमाना शुरू कर दिया. 2009 में उन्हें मंजिल मिल गई. तीन भाई-बहनों में मझली अंजु को बड़ी बहन मंजु से सबसे ज्यादा मदद मिली. 'दी ने मुझे कभी निराश नहीं होने दिया. हर मोड़ पर मेरे लिए प्रेरणा बनकर खड़ी रहीं.' दो महीने पहले ही एक बीमा कंपनी में काम करने वाले अनिल सुंडा से उनका रिश्ता हो गया है. अंजु जयपुर के सैनिक अस्पताल में नियुक्त हैं.
अंचल के लोग भी अब यहां की लड़कियों के कदमों तले से आती आहट को महसूस कर रहे हैं. सेना में मेजर रहे जेराम की सुनिए, 'शेखावाटी में फौजियों की तादाद पहले से ही अच्छी-खासी रही है. रिटायर फौजी तो रहते ही हैं, अभी जो हैं वे भी छुट्टियों में जब आते हैं तो घर पर फौज के ही किस्से-कहानियां सुनाई जाती हैं. इससे घर की छोरियों की भी सेना को लेकर जिज्ञासा बढ़ी है.' वे कहते हैं कि सेना के तमाम पदों के लिए भर्तियों की खबर सबसे पहले इसी इलाके में फैलती है.
शेखावाटी की लड़कियों की बुलंद आहट अब पड़ोसी जिले की छोरियों को भी चुनौती दे रही है. सीकर से सटे नागौर जिले के डीडवाना के छोटे गांव भवादिया की 27 वर्षीया दीपिका राठौड़ ने इस चुनौती को स्वीकार भी किया है. दीपिका का बचपन आम लड़कियों की तरह ही बीता. लेकिन नेतृत्व करना उनकी फितरत में था. जयपुर में स्कूली शिक्षा के बाद वहीं के भवानी निकेतन महिला महाविद्यालय से स्नातक किया. वे वहीं छात्रासंघ की अध्यक्ष बनीं. तभी उनका ध्यान एनसीसी की ओर गया और वे इससे जुड़ गईं. एनसीसी में रहते हुए दीपिका ने माउंट एवरेस्ट पर भी चढ़ाई की. एनसीसी के दिनों के रोमांच और अनुशासन ने दीपिका के लिए सेना में जाने के सपने बुन दिए. मेहनत और लगन की वजह से दीपिका को एनसीसी की अव्वल कैडेट का अवार्ड भी मिला. इस अवार्ड ने उनके लिए आगे का ऊहापोह दूर कर दिया. एसएसबी का इम्तहान दिया और 2008 में सेना में लेफ्टिनेंट के पद पर जा लगीं. तरक्की पाकर 2010 में कैप्टन बन गईं. दीपिका को नृत्य का शौक शुरू से रहा है. स्कूल-कॉलेज के दिनों में नृत्य के अपने हुनर को उन्होंने तराशा था. पिछले साल मर्चेंट नेवी के इंजीनियर जितेंद्र सिंह शेखावत से उनकी शादी हो गई.
अपने गांव भवादिया से खास लगाव रखने वाली दीपिका के पिता गणपत सिंह राठौड़ राजस्थान वित्त आयोग में उप-निदेशक हैं तो मां संतोष कंवर गृहिणी हैं. पिता के शब्दों में, 'दीपिका का एटीट्यूड बचपन से ही आम लड़कियों से अलग था. और एनसीसी से जुड़ने के बाद तो जैसे उसे नए पंख लग गए.' 1984 में जन्मीं दीपिका आज अपना सपना पूरा होने से खुश हैं. वीणा की तरह वे भी लड़कियों के लिए सेना की नौकरी की वकालत करती हैं. इसके अलावा, गांव की लड़कियों के सामने आने वाली मुश्किलों की ओर वे इशारा करती हैं, 'परिजनों को घर की लड़की की क्षमताओं को देखते हुए उसके अनुरूप घर का माहौल तैयार करना चाहिए. लेकिन दिशाहीन शिक्षा, उनकी आजादी पर अंकुश और नकारात्मक सोच इन लड़कियों के पैरों को बेड़ियों की तरह जकड़ लेती हैं.' दीपिका एक बार फिर माउंट एवरेस्ट के लिए रवाना हो रही हैं. एवरेस्ट पर झंडा फहराने के लिए सेना की एक टीम बनी है, जिसमें थल सेनाध्यक्ष ने सात महिला फौजियों को चुना है. उन महिला फौजियों में जयपुर की मेजर नेहा भटनागर भी हैं. एवरेस्ट पर महिला फौजियों का यह अब तक का दूसरा दौरा है. इससे पहले 2005 में एक दल भेजा गया था. यह दल 22 मार्च को रवाना होगा और 2 जून को लौटेगा. यहां बता दें कि दीपिका की बहन रुचिका भी कॉलेज में एनसीसी से जुड़ी हुई हैं और हाल ही उन्होंने सेना की नौकरी की परीक्षा भी दी है.
प्रदेश में स्वास्थ्य और शिक्षा की नौकरियों में अव्वल रहने का डंका बजा चुकीं शेखावाटी की लड़कियां अब सेना जैसे चुनौती भरे क्षेत्र में अपना दमखम आजमा रही हैं. यह हाल के वर्षों का घटनाक्रम है. इसके पीछे बड़ी वजह कुछ नया करने की चाह है. शेखावाटी क्षेत्र के शिक्षा में आगे होने की वजह से कुछ नया होने का माहौल अपने आप तैयार हो गया. प्रदेश में कई ऐसे गांव हैं, जहां एकाध ही कोई सरकारी नौकरी में होता है. ऐसे गांवों के लिए सरकारी नौकरी बड़ी बात है, वह कोई भी हो. लेकिन शेखावाटी अंचल में तो घर-घर में सरकारी नौकर हैं. शिक्षा और स्वास्थ्य विभाग में तो अनगिनत.
सेना में अभी तक लड़कों का दबदबा था. शायद इस तथ्य ने भी यहां की लड़कियों को दमखम और दबंगई वाली फौजी नौकरी के लिए प्रेरित किया. हालांकि ऐसा कोई आंकड़ा तो उपलब्ध नहीं है लेकिन पिछले पांच साल में इस रुझन में तेजी आई है. सेना भी इन लड़कियों का दिख खोलकर स्वागत कर रही है. स्नेहा कहती हैं, 'फौज में महिला-पुरुष में भेदभाव जैसी कोई बात नहीं. ऐसा होता तो मैं राजपथ पर सलामी परेड की अगुआई करने वाली देश की पहली महिला सैन्य अधिकारी न बन पाती.' गांव की लड़कियों के लिए वे एक बड़ा कारगर सूत्र देती हैं: 'उन्हें सारी झिझक और संकोच छोड़कर इस विश्वास के साथ घर से निकलना चाहिए कि मैं सब कुछ कर सकती हूं.'
यह हो भी रहा है. शेखावाटी की बालाएं सेना के अलावा पुलिस और प्रशासनिक नौकरियों में भी तेजी से दखल दे रही हैं. झुंझुनूं के चिड़ावा क्षेत्र के बुड़ानिया गांव की हाल ही भारतीय पुलिस सेवा के तहत लगीं सरोज कुमारी ऐसा ही उदाहरण हैं. साधारण परिवार में जन्मी सरोज को स्कूली पढ़ाई के दिनों में कई किलोमीटर पैदल चलकर जाना पड़ता था. दो बार राजस्थान प्रशासनिक सेवा में पहुंच पाने में नाकाम रहीं सरोज ने हार नहीं मानी और बीते दिनों आइपीएस बन गईं. उनका सपना दूसरी किरण बेदी बनने का है.
हाल के वर्षों में शेखावाटी में ऐसे दर्जनों हैं. खासकर सेना में अब जब जय हिंद का स्वर गूंजता है तो उसमें शेखावाटी की छोरियों के गले की अनुगूंज भी साफ सुनाई देती है.