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अपने बूते की मौत के भोज पर मनाही

भारतीय डाक सेवा की नौकरी छोड़कर नागौर जिले के मेड़ता शहर के अशोक चौधरी ने अपने कस्बे में कपड़े का धंधा शुरू किया था.

अपडेटेड 21 मई , 2011

भारतीय डाक सेवा की नौकरी छोड़कर नागौर जिले के मेड़ता शहर के अशोक चौधरी ने अपने कस्बे में कपड़े का धंधा शुरू किया था. एक दिन कहीं जाने के लिए उन्हें गाड़ी की जरूरत पड़ी. सभी पहचान वालों को फोन किया, कोई गाड़ी ही खाली नहीं मिली. क्यों?

सब आसपास के गांवों के लोगों को लेकर किसी गांव में मृत्युभोज के एक आयोजन में गई हुई थीं. कार्यक्रम रद्द करके बैठे चौधरी के दिमाग में मृत्युभोज घूमता रहा. थोड़ी जिज्ञासा जताई तो पता चला कि मृत्युभोज में मृतक के परिजनों को भारी-भरकम खर्च करना पड़ता है. वे अमीर हों या गरीब. मई-जून में दुकानदारी मंदी थी तो चौधरी को इस कुरीति पर अध्ययन करने का भी वक्त मिल गया.

वे इस नतीजे पर पहुंचे कि इसे रोकने के लिए कोई पहल करने से डरता है. लोगों में डर था दिवंगत बुजुर्गों का मृत्युभोज नहीं किया तो गांव में उन पर कल को कोई बात उठ सकती है.

गांव में 10-20 लोगों के बीच रखी जाने वाली राय या संदेश ज्‍यादा प्रभावी होता है. यही सोचकर जुलाई, 2005 को उन्होंने अभिनव राजस्थान नाम से एक अभियान शुरू किया. युवाओं को साथ लेकर रोज 4-5 गांवों का दौरा शुरू किया. जिस गांव में जाते, वहीं के नौजवानों की मदद से गांव के  गुवाड़ (सार्वजनिक स्थल) में ग्रामीणों को इकट्ठा कर सभाएं कीं, तर्क दिया कि मृत्युभोज पर होने वाले लाखों के खर्च को बच्चों की पढ़ाई और उनके भविष्य के लिए बचत पर क्यों न खर्च किया जाए.

युवाओं को सिर हिलाते देख बुजुर्ग भी सोचने पर मजबूर हुए. ढाई सौ घरों की आबादी वाले लुणियास गांव में मृत्युभोज का माने बदल गया. यह पूरी तरह से बंद तो नहीं हुआ लेकिन फर्क व्यापक पड़ा. पहले कई गांवों के लोग जीमते थे. संख्या हजार के करीब पहुंच जाती.

अब आंकड़ा सौ तक भी नहीं पहुंच पाता. पत्तल का दायरा भी सिमटा. मिठाइयां और दूसरे तमाम पकवान बनने बंद हुए. सब्जी-पूड़ी तक मामला आया. खर्च भी लाखों से सिमटकर कुछेक हजार के दायरे में आ गया. लुणियास के ही सुखाराम बताते हैं, ''गांव में सभा के बाद यहां मृत्युभोज का खर्च दस फीसदी भी नहीं रहा. अब ऐसे मौकों पर गांव के लोग जीमणे नहीं जाते. 30 साल की उम्र में हाल ही दम तोड़ने वाले गांव के धीरूराम के इलाज पर परिजनों और रिश्तेदारों को काफी खर्च करना पड़ा था. मृत्युभोज बंद न हुआ होता तो घरवालों के लिए जमीन बेचने की नौबत आ जाती, जो कि यहां आम बात रही है.

कई गांवों में चौधरी का अभियान खासा असरकारक रहा. जिले के डांगावास, इनाणा, रायधनू जैसे पचासों गांवों में मृत्युभोज बिल्कुल बंद हो गया. नागौर ही नहीं, पाली और जोधपुर जिलों के सैकड़ों गांवों में लोगों का नजरिया बदल चुका है. पाली के  पीपाड़ इलाके के गांवों में भी मृत्युभोज की पत्तल में से तमाम व्यंजन गायब होने लगे हैं.

गौरतलब है कि पश्चिमी राजस्थान में मृत्युभोज और दूसरे मौकों पर अफीम सार्वजनिक तौर पर परोसी जाती है. ऐसे आयोजनों में होने वाले खर्चे एक तरफ और मृत्युभोज का खर्च एक तरफ. पर चौधरी के अभियान के बाद अफीम की मनुहार पूरी तरह से उठ गई. सरकारी नौकरी में रहे प्रताप सिंह बताते हैं, ''पहले मृत्युभोज पर पूरे 10-12 दिन तक अफीम की मनुहार की जाती थी, जो अब बंद हो चुकी है.'' न पहले की तरह जमावड़ा लगता है, न ही मनुहार होती है.

चौधरी के अभियान पर खर्च! नाममात्र का. 5-7 लोगों के गांव-गांव जाने के लिए वाहन का खर्च वे लोग मिलकर उठा लेते हैं. बस. मृत्युभोज  को बंद करने के दावे करने वाली सरकारें और उनके तंत्र भले न कामयाब हुई हों पर चौधरी ने तो एक मिसाल कायम ही कर दी.

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