सवर्ण भूमिहारों की खतरनाक लेकिन अब मृतप्राय प्रतिबंधित निजी सेना रणवीर सेना के प्रमुख ब्रह्मेश्वर सिंह 'मुखिया' की हत्या से यह साफ हो गया है कि बिहार में किस तरह से अपराध और राजनीति अब भी एक-दूसरे के पर्याय बने हुए हैं. 66 वर्षीय मुखिया वह शख्स था जिसे अप्रैल 1995 से जून 2000 के बीच हुए जाति आधारित लगभग 30 जनसंहारों का कथित तौर पर मास्टरमाइंड कहा जाता था. इन जनसंहारों में दर्जनों बच्चों सहित 279 लोगों की जान गई थी. मुखिया को बिहार के भोजपुर जिले में पिछले शुक्रवार को उस समय गोली मार दी गई, जब वह सुबह-सुबह घूमने निकला था.
अगस्त 2002 में गिरफ्तारी के बाद से न्यायिक हिरासत में नौ वर्ष गुजारने के बाद मुखिया पिछले साल ही जमानत पर रिहा हुआ था. उसके बाद से ही वह उस राज्य में अपनी नेतागीरी फिर से चमकाने की जद्दोजहद में लगा था, जिसे अब निजी सेनाओं की बजाए दो अंकों के आर्थिक विकास के लिए जाना जाने लगा है.
मुखिया खुद और अपने छोटे बेटे इंदुभूषण सिंह के लिए राजनैतिक हसरतें मन में पाले हुआ था. उसने 2004 में बतौर निर्दलीय लोकसभा चुनाव लड़ा था जिसमें वह तीसरे स्थान पर रहा और उसे 1,48,957 वोट मिले थे. इंदुभूषण सिंह भी पंचायत का मुखिया है.
2009 में मुखिया ने थोड़े समय के लिए अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा को ठंडे बस्ते में डाल दिया था और लोकसभा चुनाव से दूरी बनाए रखी थी क्योंकि लंबे समय तक जेल में रहने से उसका असर कमजोर हो चुका था. और इसलिए भी क्योंकि उसे पता था कि उसके कुछ पुराने सहयोगी उसके जनाधार में सेंधमारी कर चुके हैं. जुलाई 2011 में जमानत पर रिहा होने के बाद भूमिहारों के एक जमाने के इस कथित मसीहा को ऊंची जाति के किसानों में फिर से पुरानी स्वीकार्यता मिलने लगी थी. नरसंहार के 16 मामलों में पहले ही बरी हो चुकने के बाद वह राजनैतिक सीढ़ियां चढ़ने का पक्का इरादा कर चुका था.
राजनैतिक ताकत हासिल करने की मुखिया की इच्छा जाहिर तौर पर उसके कुछ अपने ही लोगों से टकरा रही थी, जो यह ताकत पहले ही हासिल कर चुके थे. उन्होंने शुरुआत में इसे मुखिया के ही आशीर्वाद से हासिल किया था. यह कहना आसान नहीं है कि क्या इसी बात ने उन लोगों को उसकी हत्या के लिए प्रेरित किया, जिन्हें उसने कभी आशीर्वाद दिया था.
एक माह पहले यानी 7 मई को मुखिया ने नया दांव खेला था. नब्बे के दशक के दौरान अपने भूमिगत दिनों की खून-खराबे वाली पहचान की राजनीति के विपरीत, मुखिया ने 'किसानों और खेतिहर मजदूरों' के हकों की खातिर अहिंसक लड़ाई लड़ने के लिए उन्हें लामबंद करने की घोषणा की थी. वह अपने राजनैतिक दायरे का विस्तार करने के लिए जिस तरह बेताब हो रहा था, उससे किसी को भी खतरे की बू आ सकती थी.
6 मई, 2012 को ब्रह्मेश्वर सिंह की अध्यक्षता में अखिल भारतीय राष्ट्रवादी किसान संगठन के गठन की घोषणा की गई थी. 13 मई को पटना के नौबतपुर से अभियान शुरू हुआ, जिसके बाद भोजपुर के एकवारी, बक्सर और गया के टेकारी में सभा हुई थी. इसके ठीक बाद ही मुखिया की हत्या हो गई.
संगठन के महासचिव राकेश सिंह कहते हैं कि संगठन का उद्देश्य गैर राजनैतिक तौर पर किसानों और मजदूरों को गोलबंद कर अपने अधिकार के लिए सरकार पर दबाव बनाना था. किसान और मजदूर एक-दूसरे के पूरक रहे हैं, लेकिन गलत नीतियों के कारण एक-दूसरे को विरोध में खड़ा कर दिया गया है.
राकेश कहते हैं, ''मुखियाजी की कमी को पूरा करना संभव नहीं है. लेकिन उनके अभियान को आगे बढ़ाना संगठन का मकसद होगा.'' गौरतलब है कि मुखिया के तीन भाइयों के परिवार में 100 बीघा जमीन है. गांव के अलावा आरा के कतिरा में मकान है. उसके दो बेटे हैं, जिनमें से बड़े बेटे सत्येंद्र कुमार सिंह बीएसएफ में एएसआइ और छोटा बेटा इंदु भूषण 2011 से मुखिया है. यही नही, ब्रह्मेश्वर सिंह के पिता दिवंगत रामबालक सिंह भी लंबे समय तक मुखिया रहे थे.
उधर, इस हत्याकांड की जांच करने वाले पुलिस वालों ने चुप्पी साध रखी है. हत्या के पीछे दो संभावित कारण माने जा रहे हैं-पहला जुलाई 1996 में हुए बथानी टोला नरसंहार के आरोपी रणवीर सेना के लोगों को अप्रैल, 2012 में बरी करने के फैसले पर विरोध जताने के लिए माओवादियों ने बदला लेने के मकसद से यह हत्या की हो.
इस नरसंहार में 21 लोग मारे गए थे. दूसरा एक स्थानीय नेता असुरक्षित महसूस कर रहा था और हो सकता है, उसने मुखिया को खत्म करवाया हो. यह भी साफ नहीं है कि मुखिया अपने पुराने कर्मों के कारण मारा गया या अपनी भावी योजनाओं के कारण. हालांकि इन दोनों में से किसी भी संभावना को अभी तक खारिज नहीं किया गया है. लेकिन यह भी उल्लेखनीय है कि माओवादियों ने अभी तक मुखिया की हत्या की जिम्मेदारी नहीं ली है.
सलाखों के पीछे लंबा समय गुजारने के बाद मुखिया का कद काफी हद तक छोटा हो गया था-इस दौरान उसकी सामाजिक पृष्ठभूमि से कई युवा आगे निकल चुके थे. लेकिन मौत के बाद मुखिया का कद उसकी हैसियत से कहीं ऊंचा हो कर उभरा है.
लगभग हर राजनैतिक दल ने या तो मुखिया की विरासत पर दावेदारी जताई है, और जो लोग यह दावा नहीं कर सकते, वे उसकी हत्या के लिए प्रतिद्वंद्वियों पर आरोप लगा रहे हैं. हालांकि भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सी.पी. ठाकुर, जद (यू) के बागी सांसद राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह, पूर्व केंद्रीय मंत्री अखिलेश सिंह, भाजपा विधायक अनिल कु मार शर्मा सहित कई भूमिहार नेताओं पर-जो 2 जून को मुखिया की शवयात्रा में शामिल हुए-हमले हो रहे थे और हिंसा पर उतारू समर्थक उन्हें अपमानित कर रहे थे. लेकिन वे शवयात्रा में डटे रहे. उन्हें पता था कि राजनीति में बने रहने के लिए उन्हें उस आदमी की मौत पर दुखी होते हुए देखा जाना जरूरी है, जिसने जातिगत नरसंहारों का आदेश दिया था.
मुखिया के जीवन की यह हिलाकर रख देने वाली विडंबना है. जब वह कैद में था, तब उसके द्वारा प्रेरित सामाजिक ध्रुवीकरण की फसल को दूसरे काट रहे थे. अब मुखिया की मृत्यु में भी कई भूमिहार नेता अपना फायदा देख रहे हैं और उसकी विरासत लेकर तीतर होने के चक्कर में हैं, जबकि मुखिया यह विरासत अपने बेटे को सौंपने की फिराक में था. अब बिहार ब्रह्मेश्वर सिंह के युग से कहीं आगे निकल चुका है, जिसमें हर प्रमुख जाति की एक निजी सेना हुआ करती थी.
पहले भूमिहारों की ओर से ब्रह्मऋषि सेना बनाई गई थी और 1994 में रणवीर सेना के लिए मैदान खाली करने के पहले तक वह एक अच्छी-खासी ताकत बन चुकी थी तो वामपंथी गुटों और सवर्ण जातियों की सेनाओं से टक्कर लेने के लिए यादवों ने लोरिक सेना बनाई. कुर्मियों की अपनी भूमि सेना थी और राजपूत जमींदारों ने सनलाइट सेना बनाई. इसके अलावा कई अन्य निजी सेनाएं भी थीं जो नब्बे के दशक में नक्सलवादी गुटों का मुकाबला करने के लिए बनाई गई थीं. जैसे आजाद सेना, श्रीकृ ष्ण सेना और गंगा सेना आदि.
हालांकि ऊंची जातियों और दलितों के बीच सामाजिक भेदभाव आज के बिहार में भी मौजूद हैं, लेकिन उनके राजनैतिक दृष्टिकोणों में अंतर को नीतीश कुमार की समग्रता वाली राजनीति ने काफी हद तक खत्म कर दिया है. हालांकि अप्रैल 2006 में जब नीतीश कुमार सरकार ने बाथे नरसंहार में रणवीर सेना की भूमिका और उसके साथ बड़े नेताओं की कथित मिलीभगत की छानबीन करने के लिए गठित अमीर दास आयोग को भंग करने का फैसला किया था, तब दलितों ने इस निर्णय की काफी आलोचना की थी. लेकिन उसके बाद हुए चुनाव में उन्होंने नीतीश का समर्थन किया.
मुखिया की हत्या और उसके बाद हुआ सामाजिक ध्रुवीकरण, राजग के दो सहयोगियों द्वारा दो सामाजिक समूहों में बनाई गई कामकाजी समझ-बूझ को खत्म कर सकता है. ये दोनों सामाजिक समूह एक-दूसरे से विपरीत चलते हैं. जद (यू) के दलित और अति पिछड़े कार्यकर्ताओं का भारी-भरकम तबका इस बात से बेहद चिंतित है कि भाजपा इस कथित सरगना को एक 'शहीद' के रूप में पेश करने के लिए छटपटा रही है.
जब उसके शव को शनिवार को अंतिम संस्कार के लिए लाया गया था, तब राज्य प्रशासन द्वारा बरती गई नरमी के कारण मुखिया समर्थकों को पटना में बड़े पैमाने पर आगजनी करने से रोकने के लिए कुछ नहीं किया गया. इस नरमी ने नीतीश कु मार के परंपरागत समर्थकों को बेचैन कर दिया है. यह चीज दोनों गठबंधन भागीदारों के लिए असली संकट पैदा कर सकती है.
उधर, राजद प्रमुख लालू प्रसाद को इस सामाजिक ध्रुवीकरण में एक मौके का एहसास हो रहा है और इस कारण उन्होंने हत्या की सीबीआइ जांच की मांग की है. लालू जानते हैं कि सामाजिक रूप से दबंग भूमिहार, जिन्होंने राजद के शासन के खिलाफ सफलतापूर्वक संघर्ष किया, उनकी पार्टी को वोट नहीं देंगे. लेकिन, यदि वे राजग से असंतुष्ट होते हैं, तो हो सकता है, वे कांग्रेस के पक्ष में चले जाएं.
इसी तरह, अगर मुखिया की विरासत के वारिसों पर काबू नहीं पाया गया, तो अति पिछड़ी जातियां और महादलित-जो नीतीश सरकार की नींव हैं-का भी राजग से मोहभंग हो सकता है. साफ है कि नीतीश का सबसे फौरी काम यही है कि राज्य में एक सही संतुलन कायम किया जाए.
-साथ में अशोक कुमार प्रियदर्शी