scorecardresearch

पिंडर नदी परियोजना: ऐसे विकास का क्या करें?

विकास के नाम पर बन रही इन जनविरोधी परियोजनाओं से स्थानीय लोगों का विकास कतई नहीं हो रहा है.

पिंडर नदी परियोजना
पिंडर नदी परियोजना
अपडेटेड 12 फ़रवरी , 2012

इस वक्त गंगा की प्रमुख सहायक नदी पिंडर पर 1,300 करोड़ रु. की लागत से बन रही 252 मेगावाट की देवसारी जल विद्युत परियोजना विवादों के घेरे में है. इस परियोजना का निर्माण कर रही एजेंसी सतलुज जल विद्युत निगम की कार्यप्रणाली के चलते स्थानीय जनता में काफी आक्रोश है. आलम यह है कि पिंडर घाटी के लोग सड़कों पर उतर आए हैं. इस परियोजना के खिलाफ  गठित भूस्वामी संघर्ष समिति का कहना है कि निगम को न तो स्थानीय जनता के सवालों की चिंता है और न पर्यावरण से जुड़े पहलुओं की.

यह परियोजना पर्यावरणीय दृष्टि से संवेदनशील और भूकंपीय जोन 4-5 में स्थित है. पर्यावरण मंत्रालय भी परियोजना के संभावित असर पर सवाल उठा चुका है. उधर, जनता को भरोसे में लिए बगैर परियोजना अधिकारी जन सुनवाई का दिखावा कर रहे हैं और भारी विरोध के बावजूद कंपनी काम पूरा करने की हड़बड़ी में है. वह यह बताने की स्थिति में नहीं है कि बांध की गहराई व ऊंचाई कितनी होगी और  इससे पर्यावरण पर क्या असर पड़ेगा.

पिंडर गंगा की इकलौती ऐसी सहायक नदी बची है, जिस पर अब तक कोई परियोजना नहीं है. मंदाकिनी घाटी में बांधों के असर को देख चुके पिंडर घाटी के लोग अब इस बांध के खिलाफ  मुखर हो गए हैं. उनकी मांग है कि राज्‍य की इस इकलौती बांध रहित नदी को अविरल बहने दिया जाए.

देवसारी जल विद्युत परियोजना से पिंडर घाटी के 26 गांव प्रभावित होंगे. केंद्र और हिमाचल सरकार के संयुक्त उपक्रम सतुलज जल विद्युत निगम की ओर से प्रस्तावित इस परियोजना की पर्यावरणीय जन सुनवाई स्थानीय जनता के विरोध के कारण तीन साल में भी पूरी नहीं हो पाई. 13 अक्तूबर, 2009 को कुलसारी में आयोजित परियोजना के लिए पहली जन सुनवाई जोरदार विरोध के बाद स्थगित हो गई.

22 जुलाई 2010 को ब्लॉक मुख्यालय देवाल में आयोजित  दूसरी जन सुनवाई का भी यही हश्र हुआ. राज्‍य पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण बोर्ड की 20 जनवरी 2011 को देवाल ब्लॉक में आयोजित तीसरी सुनवाई में पुलिस बल का भी बोलबाला रहा और बैरिकेड लगाकर स्थानीय लोगों को जाने से रोका गया. भीतर सिर्फ परियोजना के समर्थक थे.

परियोजना से सीधे तौर पर प्रभावित होने वाले सरकोट, सोडिंग, देवसारी, पूर्णा, देवालगाड़, थराली, पठानी, सिलोड़ी, पैनगढ़, चैपड़, कैल, तलार, गढ़कोट, चैरंगा और लौसरी गांव के लोग अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं. इनमें आधा दर्जन गांव ऐसे हैं जिनका वजूद परियोजना निर्माण के बाद समाप्त हो जाएगा. केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय की स्वीकृ त अंतिम पर्यावरण मूल्यांकन रिपोर्ट के मुताबिक, इस बांध के निर्माण में 223.36 हेक्टेयर भूमि अधिग्रहीत होगी और इसका जल संग्रह क्षेत्र 1,138 वर्ग किलोमीटर तक फैला होगा. इस परियोजना की वजह से 500 से अधिक परिवार प्रभावित होंगे.

जल, जंगल, जमीन, स्थानीय पारिस्थितिकी, पर्यावरण और जनजीवन पर होने वाले असर के साथ ही संवेदनशील भौगोलिक परिस्थितियों के बीच प्रस्तावित इस बांध को लेकर जानकारों की दूसरी आशंकाएं भी हैं. पिंडर घाटी का यह समूचा मध्य हिमालयी क्षेत्र भूकंपीय दृष्टि से संवेदनशील है और सीस्मिक जोन 4-5 में आता है.

जियोलॉजिक सर्वे ऑफ  इंडिया की रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि जिन क्षेत्रों में बड़े बांध बनाए गए, वहां भूगर्भीय हलचल तेज होने के साथ भू-कटाव और भू-धसाव की समस्या कई गुना बढ़ गई है. टिहरी बांध निर्माण के बाद प्रतापनगर और भिलंगना के हजारों परिवार इस संकट को झेल रहे हैं.

बांध बनने के बाद टिहरी जिले के लगभग 130 गांवों में भूस्खलन और चट्टान खिसकने की समस्या और बढ़ गई है. टिहरी बांध से लगे क्षेत्रों में बादल फटने से बीते तीन वर्ष में 30 से अधिक लोगों की मौत हुई है. अब इसी तरह का डर पिंडर क्षेत्र के लोगों को भी घेर रहा है. 2010 में भी इस क्षेत्र के कई गांव भूस्खलन की समस्या से प्रभावित रहे.

देवसारी परियोजना के नंदकेसरी में बनने वाले मुख्य जलाशय की मुख्य टनल को पैनगाड़, सुनाऊ, देवलगाड़, सूना, थराली, कुन्नीपर्था, चेपडू, नंदकेसरी गांवों के नीचे से गुजारा जाएगा. ऐसे में पानी के भारी दबाव से तय है कि इस क्षेत्र में भूगर्भीय हलचल बढ़ने के साथ ही भूस्खलन भी तेज हो जाएगा. 2004 में राज्‍य के सीमांत जनपद पिथौरागढ़ के धारचूला में बनी धौलीगंगा जल विद्युत परियोजना की मुख्य टनल में हुए रिसाव के कारण स्यांकुरी गांव के 18 परिवारों के घर जमींदोज हो गए और खेत-खलिहान पूरी तरह    से तबाह हो गए. यही नहीं, दर्जनों घरों में दरारें पड़ गई थीं.

उधर, तीन पर्यावरणीय सुनवाइयों में से अंतिम सुनवाई को सफल बताते हुए केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय को रिपोर्ट भी भेज दी गई. रिपोर्ट के आधार पर मंत्रालय की पर्यावरण मूल्यांकन समिति ने परियोजना को हरी झ्ंडी दिखा दी है, जबकि इसका विरोध कर रहे माटू जनसंगठन और भूस्वामी संघर्ष समिति का कहना है कि 20 जनवरी, 2011 को हुई जिस जनसुनवाई को आखिरी और सफ ल माना जा रहा है, उसमें भारी संख्या में पुलिस तैनात की गई थी. यहां तक कि अपना पक्ष रखने गए ग्रामीणों को बोलने भी नहीं दिया गया. निगम की मंत्रालय को भेजी गई रिपोर्ट से भी यह बात साबित होती है, जिसमें साफ लिखा है कि जन सुनवाई के पक्ष में 13 लोगों ने अपनी बात रखी.

सवाल यह है कि जिस परियोजना की जन सुनवाई तीन साल में भी पूरी नहीं हो पाई, जिसमें दर्जनों गांवों के 500 परिवार प्रभावित हो रहे हैं, उसे सिर्फ 13 लोगों के पक्ष के बाद ही अंतिम कैसे मान लिया गया? विडंबना यह कि विरोध की आवाज न तो केंद्र और न ही राज्य सरकार तक पहुंच पा रही है. राज्‍य सरकार ने सियासी मलाई के चक्कर में चुनाव से पहले नवंबर में परियोजना के लिए भूमि उपलब्ध करवा दी, लेकिन ग्रामीणों के सवालों पर मौन है.

इस परियोजना से जनजीवन के साथ प्राचीन आस्था के केंद्र भी संकट में पड़ गए हैं. इस क्षेत्र में स्थित कर्णप्रयाग इकलौती ऐसी जगह है, जो अब तक बांधों के प्रभाव से अछूती थी. लेकिन अब वह भी संकट में है. इस बांध के बनने से देवाल से लेकर पैठाणी तक पिंडर नदी के किनारे बसे 200 परिवारों के सामने आजीविका का संकट खड़ा हो जाएगा, जो मछली और अन्य प्राकृतिक संसाधनों के लिए नदी पर निर्भर हैं. नंदकेसरी से पैठाणी तक के सघन वन समाप्त हो जाएंगे. 17.9 किमी लंबी सुरंग के चलते कर्णप्रयाग पिंडर नदी की सुरंग में कैद हो जाएगा, क्योंकि इस सुरंग से लगभग 20 किमी क्षेत्र में नदी जलविहीन हो जाएगी.

नदी के उज्‍म से लेकर कर्णप्रयाग तक 70 किमी के क्षेत्र में 24 जल विद्युत परियोजनाएं निमार्णाधीन और प्रस्तावित हैं, जिसके लिए तकरीबन तीस किलोमीटर लंबी सुरंग बनाई जाएगी. इसके चलते आज नहीं तो कल इस जगह के लोगों को विस्थापित होना पड़ेगा.

हिमालयी पर्यावरण शिक्षा संस्थान, उत्तरकाशी के निदेशक एवं पर्यावरणविद् सुरेश भाई कहते हैं कि पिंडर घाटी में बन रही यह सुरंग बहुत खतरनाक है. यह जिन गांवों के निकट से गुजरेगी, वहां भूस्खलन का खतरा बना रहेगा. पिंडर घाटी में चल रहे आंदोलन के अगुआ माटू जनसंगठन के विमल भाई का कहना है कि राष्ट्रीय नदी गंगा के पांच प्रयागों में पिंडर गंगा ही अब तक निर्बाध बह रही है. कम से कम गंगा की एक सहायक नदी  को तो अक्षुण्ण छोड़ दिया जाए.

भूस्वामी संघर्ष समिति के संयोजक मदन मिश्र कहते हैं कि यह आंदोलन का ही असर है कि जहां पहले अधिकारी केवल 20 गांवों को प्रभावित बता रहे थे, वहीं अब उन्होंने यह संख्या 36 मान ली है.  

चुनावों के दौरान यह मुद्दा हावी रहा. माकपा इसके विरोध में सामने आ चुकी लोगों का कहना है कि अगर देवसारी परियोजना का निर्माण होता है तो पुरानी टिहरी के बाद एक और सांस्कृतिक विविधता वाला क्षेत्र जलमग्न हो जाएगा.

Advertisement
Advertisement