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डबल आर वाले इरफान

मैंने भी “आह, आह, आह! साहिबज़ादे डबल आर वाले इरफ़ान खान, जो पान सिंह तोमर का गैंग हो. भय्ये तुम तो फ़ाइटर थे. हार क्यों गए? अब हम जैसे छोटों को रिचार्ज कौन करेगा?” के साथ श्रद्धा-सुमन अर्पित कर दिया.

इलस्ट्रेशनः कौकब अहमद
इलस्ट्रेशनः कौकब अहमद
अपडेटेड 3 मई , 2020

दिल और तबीयत 28 अप्रैल की रात से ही भारी थी. 29 अप्रैल को पापा की आठवीं बरसी थी. बहुत कुछ लिख सकता हूं पापा के बारे में. लेकिन निजता और सार्वजनिकता दो विपरीत बातें हैं. फिर खुदा ने सुन ली और ग़ज़ल के फ़ार्मेट में चार अशआर मेरे कर्ब को बयान करने लिए हो गए. सुबह पापा को फोन लगाया. मां ने उठाया, मैंने उन्हें और उन्होंने मुझे दिलासा दिलाने की एक्टिंग की. फिर, सरकारी कार्यों में बिज़ी हो गया.

कई बार रोने को जी चाहता रहा. मगर उस दिन थाने में सीनियर अफ़सरान की चेकिंग थी. चाहकर भी रोने की फ़ुरसत न मिली. फिर इरफ़ान, डबल आर वाले साहेबज़ादे इरफान अली ख़ान की ख़बर आई. दिल बैठ सा गया. हलक़ बंद हो गया. ज़बान अटक गई. आह, आह और आह! तीन बार एक ही शब्द बाहर आया. 28 अप्रैल की ही रात में उनके आसीयू में जाने ख़बर टीवी पर पढ़ी थी. पत्नीजी से ज़िक्र किया था कि फ़ाइटर आदमी है, बाहर आ जाएगा. अब कोई बावर्दी रो सकता है क्या? और फिर अपने कुलीग्स के सामने? और उस पर कि जिससे कोई डायरेक्ट लिंक भी न हो, रिश्ता भी न हो. मैं रोया, खामोश चीख़ों के साथ रोया, रुंधे गले से रोया, चश्मा बार-बार साफ करके रोया.

पत्नी जी को फोन लगाया, दुख न बंट सका. गणेश से बात की, मगर ग़म से नहीं पार हो सका. अभी पिछले महीने ही क़मरुल भाई ने कितना रुलाया था. वे तो अपने थे लेकिन, डबल आर वाले इरफ़ान से मेरा सिर्फ़ दर्शक वाला रिश्ता है. फिर दिल क्यूँ इतना फट रहा है? साथियों के धड़ाधड़ जज़्बातों से भरे स्टेटस आ रहे थे. अपने अपने तरीकों से वे इरफ़ान को श्रद्धांजलि दे रहे थे. उनके द्वारा बोले गए डायलॉग्स के साथ स्टेट्स डाल रहे थे. शायर साथी अशआर के साथ खिराज पेश कर रहे थे.

मैंने भी “आह, आह, आह! साहिबज़ादे डबल आर वाले इरफ़ान ख़ां. जो पान सिंह तोमर का गैंग हो. भय्ये तुम तो फ़ाइटर थे. हार क्यों गए? अब हम जैसे छोटों को रिचार्ज कौन करेगा?” के साथ श्रद्धा-सुमन अर्पित कर दिया. उंगलियां लिखने को बेचैन थीं मगर दिल की हालत माक़ूल न थी. फिर दिल मुझ से बोलाः

लिखना बन्धु

थोड़ा ठहर कर

दर्द की बारिश ज़रा आहिस्ता हो जाए

तब लिखना.

आंखें देखने लगें बिन धुंधलाये हुए

तब लिखना.

आवाज़ निकलने लगे बिना भर्राए हुए

तब लिखना.

मगर लिखना

क्योंकि,

राजू से उसके मालिक ने कहा था

शो मस्ट गो ऑन.

(मेरा नाम जोकरः सर्कस मालिक ने राजू की मां की मौत पर भी उससे कहा था कि शो मस्ट गो ऑन)

यार! एहसास का सरमाया अभी बाक़ी है

तेरे कासा ए तलब में, तो छलकने दे #सुहैब

मतलब दर्द की बारिश मद्धम हो गई है...

मीरा नायर जैसी फ़िल्मसाज़ों की पिक्चरें हम जैसे साधारण समझ रखने वाले दर्शक कहां देखते हैं. एक आम हिन्दुस्तानी अपनी रोज़ी रोटी कमाने के बाद बचे हुए समय में क्रिकेट के अलावा मेनस्ट्रीम का सिनेमा ही देखता है. 'सलाम बॉम्बे' का नाम मुझे सिर्फ़ जनरल नॉलेज केटेगरी वाले ज्ञान के कारण याद है. ‘चंद्रकांता’ भी चंद्रकांता उर्फ़ शिखा स्वरूप और शाहबाज़ ख़ान उर्फ हैदर अली की वजह से याद है. हाँ उसमें यक्कू (गंगाजल वाले डीएसपी) और बद्रीनाथ कभी-कभी अट्रैक्ट करते थे. वह समयकाल दिल्ली में मेरे नए-नए सेट होने का था. टीवी उन दिनों घर-गांव वाली तन्मयता और धार्मिक-कर्तव्य-परायणता के तौर पर देखने से छूट गया था.

वैसे भी 90वें के दशक वाला वह दौर ट्रेडीशनल हिंदी फिल्मों के हीरो के मापदंडों पर उतरने वाले तीन आमिर-सलमान-शाहरुख खानों का दौर था. फ़िटनेस कुमार अक्षय ने भी जगह बना ली थी. तब इस लेंकी-लेग्स, उभरी हुई आंखों वाले कॉमन मैन इरफान खान को देखने की कहां फ़ुरसत थी. फिर सन 2003 में एक हादसा हुआ.

‘स सेक्स-वेक्स हो गया क्या?’ इस प्रश्नसूचक वक्तव्य पर मैं चौंक कर सीट पर सीधा बैठ गया. फिर इस प्रश्न का आदर्शवादिता से भरे भाव से जवाब ‘ हम उसे दिल से प्यार करते हैं’ मिलने पर, प्रश्नकर्ता के मुख पर छिपा हुआ सुकून मुझे विचलित कर गया. यहां से ‘हासिल’ हुआ खलनायक, असली खलनायक रणविजय सिंह, जिसने अपनी सजातीयता की आड़ में पूरी लवस्टोरी की ही पटकथा बदल दी. जी हां मैं बात कर रहा हूं फ़िल्म ‘हासिल’ की. रणविजय का एहसान उतारने के लिए हमारे चाकलेटी जिम्मी शेरगिल साहेब यूनिवर्सिटी की लड़कियों में अपनी पोपुलरिटी को भुनाने के लिए ‘हीरोइन’ की क्लास में पहुंच जाते हैं. कन्वेसिंग शुरू होते ही हीरोइन क्लास छोड़ देती है. उम्मीदवार महसूस कर लेता है मगर उसका महसूस करना दिखता नहीं है.

अगले सीन में गंगा किनारे उम्मीदवार हीरो के साथ अलग से बतिया रहा है. लीड क्वेश्चन से पहले इधर-उधर की बात करता है. फिर चेक करता है डाइरेक्ट, अपने मन की बात, ‘स सेक्स-वेक्स हो गया क्या?’ हीरो तब भी महसूस नहीं कर पाता कि उसके संकटमोचक सीनियर के मनोभाव क्या हैं? जब तक रणविजय के अंतर्भाव आप पर और हीरो पर खुलते हैं, बहुत देर हो चुकी होती है. लेकिन अंतर्भाव खुलने-खुलाने की यह मेहनत इरफान खान को 'नाम' का संजय दत्त या फिर 'सत्या' का मनोज वाजपेयी बना गयी. इस फ़िल्म के बाद मुझे तय करना पड़ गया कि अब तो इस बंदे को देखना पड़ेगा ही.

उसके बाद आई ‘मक़बूल’. नौकरी की व्यस्तता के चलते रिलीज़ के समय इस फ़िल्म को पिक्चर-हाल में नहीं देख सका. अखबार, टीवी में रिव्यू पढ़कर और सुनकर, उसके न देख पाने का अफसोस होता रहा. एक साल के भीतर विडियो-पाइरेट्स के सौजन्य से मक़बूल देखना नसीब हुई. विशाल भारद्वाज से लगाव उनके ‘चड्ढी पहन के फूल खिलने के’ समय से ही है. एक और बात उनके बिजनौरी होने की भी है. मेरे ख़्याल में शेक्सपीयर भी अपनी रचनाओं को विशालमय होते देख भारतीय नागरिकता ले ही लेते.

खैर बात को इरफान पर ही रखते हैं. मक़बूल, अब्बाजी का ज़रखरीद, उसके एहसानों के बोझ तले दबा ग़ुलाम, मगर संभावित उत्तराधिकारी के सपनों को जीता किरदार है. तब्बू भी है तो ज़रखरीद ही मगर "त्रिया चरित्रं, पुरुषस्य भाग्यम, देवौ ना जानाति कुतो मनुष्यः" का जीता जागता अवतार. अब्बाजी को खाते समय फंदा लगना, गुलाम का बेक़रारी से अंदर कमरे से पानी का जग लाने का प्रयास, त्रिया का इठलाना, जग को होल्ड ऑन पर रखते हुए पूछना, 'अब तुझे प्यास नहीं लगती मियां? यहीं से ग़ुलाम के दिमाग़ को दिल से अलग करना. फिर पीरसाब की मज़ार का सफ़र-ए-ज़ियारत. तब्बू के नंगे पैरों पैदल चलने से घायल तलवों के चूमने का दर्द, रिवर-व्यू-मिरर से ग़ुलाम के चेहरे पर ' नंगे पैरों पैदल' चलने की तकलीफ़ से ज़्यादा दिखता है.

अब्बाजी के ग़ुलाम की निरर्थक सी प्रेजेंस में अपनी प्रॉपर्टी तब्बू को सहलाना और इस सहलाने के अनुक्रम में ग़ुलाम के चेहरे पर आई हुई बेबसी आपको बरबस सालती जाती है. इसके बाद आर्किटेक्ट द्वारा मारीशस के रिज़ार्ट के मॉडेल को डिस्कशन के लिए लाना. साथ-साथ चलता दूसरा सीन, 'मालिक' का बेड रूम सीन है. मालिक का मात्र पाजामे में उबलता और ढलकता हुआ जिस्म, पाजामे के कमरबंद में उड़से हुए रिवाल्वर को बाहर निकालना, सामने शय्या पर, उदासीन, निर्लिप्त और अर्धनग्न मगर मिस्ट्रेस्-धर्म को निबाहने को तैयार लेटी हुई 'प्रोपर्टी' तब्बू। बाहर ग़ुलाम का तत्परता से मालिक को मारिशस-रिज़ार्ट को दिखाने की उत्सुकता. ‘---सो रहे हैं।‘ ‘इस वक़्त?’ ‘नींद और भूख का कोई टाइम थोड़े ही होता है. हे हे हे हे.’

बाहर रिज़ॉर्ट के मॉडल पर डिस्कशन. बेडरूम में 'दिनदहाड़े' सोने की अंतरंगता की कल्पना इरफान के चेहरे पर इश्क़ वाली बेबसी के साथ स्वामीभक्ति की मजबूरी वाले भावों के सम्मिश्रण के साथ उभरती है. मक़बूल को 'मियां मक़बूल' बनने का निर्णायक क्षण, जिसमें अब्बाजी के संभावित उत्ताधिकारी को मॉरीशस भेजना और ख़ुद उसका एग्ज़ीक्यूशन यानि एलिमिनेशन होना, निर्धारित हो जाता है. अब मेरे लिए इरफान को देखना चित्रपट-प्रेमी के तौर पर एक रिलिजियस ड्यूटी हो जाता है.

अब आती है 2010 वाली 'पान सिंह तोमर'. मेरी बिटिया पांच बरस की हो चुकी है. मैं उसके साथ फिल्म देखना ऐसे फील करने लगता हूं कि जैसे हम अपने पापा के साथ मासिक-उत्सव के तौर पर देखने जाते थे. बुंदेलखंडी उच्चारण में कमाल की संवाद अदायगी. मेरी ननिहाल इटावा की है. इटावा की जमना से चंबल का इलाका शुरू हो जाता है. पापा की सर्विस का पहला हिस्सा बुंदेलखंड में गुज़रा है. मुझे पान सिंह तोमर ऐसी लगी कि मैं ननिहाल के देहात में बैठा हूं.

पान सिंह तोमर की कहानी वही है जो महाभारत काल से है. मतलब खानदानी जायदाद का असमान बंटवारा. मैं महसूस किया है कि पैतृक जायदाद के मामले में एक मां-जाए भाई-बहन बड़े होकर भाई-बहन कम, शेयर होल्डर अर्थात साझीदार ज़ियादा हो जाते हैं और क़दरन मज़बूत साझीदार कमज़ोर का हिस्सा हड़प कर जाता है या फिर लायन्स शेयर खुद रखता है. फिर हकतल्फ़ी की खलिश के साथ कमज़ोर शेयरहोल्डर उम्मीद में जीता हुआ खत्म हो जाता है या फिर पान सिंह की तरह डकैत, नहीं-नहीं, बाग़ी हो जाता है बड़ा भाई, जिसको सम्मान में जिंदगी भर पान सिंह ने दद्दा कहा, भागता है मगर, सिविलयन की तरह, एक पैर पेड़ की झूलती शाखा के पार उतारता है और हाथों से पेड़ की डाल को पकड़ कर बमुश्किल तमाम पिछले पैर को समेटता हुआ पार करता है.

उसके पीछे इंटरनेशनल भगैया, थ्री नॉट थ्री के साथ दाहिने हाथ की तर्जनी को अपने मखसूस अंदाज़ में घुमाते हुए (जैसे कि पेस बौलर ओपनर बैट्समेन का मिडिल स्टम्प उखाड़ने के बाद लहराता है) पेड़ को ओब्स्टेकल की तरह सहजता से पार करता है. फिर पान सिंह पूछता है,

“अरे कहां भगा जा रहा दद्दा?

हम से भग के चले जाओगे का?

अब तू जे बता कहां गए तेरे रछक्क?

अब तू ये जमीन जोत लेगा का?

हमाई मां ने तेरा का बिगाड़ा? जो तू वा को बंदूक की बट से मारा. हमाई बूढ़ी मां को तू बंदूक के बट तो मारो. अरे हम तो तुझे दद्दा दद्दा कहते रहे. हमसे का गलती हो गयी? का गलती हो गई कि तूने हमसे हमारो खेल का मैदान छीन लियो और तेरे लोगन ने हमाए हाथ मे जे पकड़ा दी. जे बात का जबाब कौन दोगो.”

“जे बात का जबाब कौन दोगो.” दूसरी बार इतनी शिद्दत से कहे गए इस आर्तनाद से पूरा पिक्चर हाल पान सिंह तोमर की तरह चीख़ता सा लगा मुझे. आह! इतना तेज़ भी क्या भागना कि ज़िन्दगी की दौड़ 53 स्टेप्स में ही पूरी कर ली.

'हैदर' (2014) के आते-आते, इरफान, लार्जर दैन द लाइफ वाले स्टार्डम से आगे निकल आए थे. ‘रूहदार’ ऐसा ही किरदार था कि बशीर बद्र साहब के इस शेर के मुताबिक, “ख़ुदा ऐसे इरफ़ान का नाम है-रहे सामने और दिखाई न दे.” डाक्टर मीर के कहने पर कि आप मरने वाले हैं पर, रूहदार-उवाच:

“डॉक्टर साब मैं नहीं मरने वाला.

वो कैसे जनाब?

ऐसे कि आप ज़िस्म हैं, मैं रूह.

आप फ़ानी, मैं लाफ़ानी.

रूहदार तुम शिया हो या सुन्नी?

दरिया भी मैं, दरख़्त भी मैं.

जेहलम भी मैं, चिनार भी मैं.

दैर हूं, हरम भी हूं.

शिया भी हूं, सुन्नी भी हूं

मैं हूं पंडित.

मैं था, मैं हूं, और मैं ही रहूंगा.”

कहने का मतलब यह है हज़रात! कि आपको सिर्फ़ जिस्म का तिलिस्म तोड़ना है. सब कुछ शफ़्फ़ाफ, क्रिस्टल क्लेयर मतलब रूहदार हो जाना है. जीवन मरण के चक्कर से दूर.

अनल हक़. अहम ब्रह्मास्मि, मैं ही मैं हूँ, दूसरा कोई नहीं.

उपसंहार: मेरे नज़दीक इरफान की फिल्म देखना आइपीएल वाली क्रिकेट जैसा हो गया है. आइपीएल वाली क्रिकेट में आप चाहकर भी एक टीम के फेथफुल नहीं रह पाते. आपके हर टीम में पसंददीदा खिलाड़ी होते हैं. छक्कों के लगते समय आप हिटिंग बैट्समेन हो जाते हो, स्टम्प उखाड़ने पर आप कामयाब बालर और रन रोकने के वक़्त आप धांसू फ़ील्डर. वैसे ही आप इरफान के हर किरदार से मुहब्बत कर ही लेते हैं. एक पुलिस वाले होने के बावजूद आप पान सिंह तोमर में पुलिस के खिलाफ़ हो सकते हो. कामयाब पुलिस मैन हो तो कामयाबी से ‘मन ऊब’ जाता है. आप एक न मिलने वाली खुशी को ढूंढने का 'रोग' पाल लेते हो. रूहदार बनकर केटेलिस्ट का काम करते हो. रणविजय सिंह हो तो येन-केन-प्रकारेण 'चुनाव एवं प्यार' में सब जायज़ मानने वाले बन जाते हो.

अंत में, मैं इन लाइनों के माध्यम से विशाल भारद्वाज और तिग्मांशु धूलिया साहबान का शुक्रिया भी अदा करना चाहता हूं और कहना चाहता हूं कि आप लोग सिनेमा बनाते रहिए. हम लोग जो भी आप बनाते रहो हम बनते रहेंगे. क्यूं कि...

पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात.

इक दिना छिप जायेगा, ज्यूं तारा परभात.

अब देखिये रीशि कपूर (ऋषि आपके लिए होंगे) साहब ने भी इस मुल्क को खुदा हाफ़िज़ कह दिया. आप कहो न कहो. अब उन पर भी लिखना है, क्यूंकि मालिक ने राजू को कहा था, शो मस्ट गो ऑन.

'जेहा चिरी लिखिया, देहा हुक्म कमाई;

घल्ले आवे नानका सददे उट्ठी जाईं’

(लेखक सुहैब फ़ारूक़ी शायर हैं और फ़िलहाल दिल्ली पुलिस में अधिकारी हैं)

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