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किताबें/उपन्यास: मुलक से उजड़ते बार-बार

मुलक में बुनकरों की व्यथा-कथा है. गांव का चौधरी परिवार, उसकी ब का नामर्द पति, बुनकर युवक से रिश्ते का अंदेशा, फिर सारे दलितों का पलायन. कई सवाल छोड़ जाता है यह उपन्यास.

अपडेटेड 22 मई , 2012

मुलक
दलपत चौहान
अनुवाद (गुजराती से): डॉ. किरन सिंह
राधाकृष्ण प्रकाशन,
नई दिल्ली
कीमतः 200 रु.
info@radhakrishnaprakashan.com
बांग्ला और गुजराती दलित साहित्य रचनात्मक लेखन के क्षेत्र में खासा समृद्ध है. यहां आत्मकथाओं का उतना दबाव नहीं जितना हिंदी या मराठी में है. आत्मकथा विधा को अपनी पहचान बनाने की बजाए कथा साहित्य में ज्‍यादा सक्रियता दिखाई जा रही है.

बांग्ला में रिक्शाचालक से उपन्यासकार बने मनोरंजन व्यापारी का चंडाल जीवन बिक्री और लोकप्रियता के शिखर छू रहा है तो गुजराती के वरिष्ठ दलित लेखक दलपत चौहान का नवीनतम उपन्यास भर भांखलु संवेदनशील पाठकों के बीच चर्चा का विषय बना हुआ है. उपन्यास में आत्मकथात्मक तत्व अक्सर पाए जाते हैं. इन उपन्यासों में भी वे तत्व हैं. सामान्य से कुछ ज्‍यादा ही.

आत्मकथा में जो बातें सेंसर कर दी जातीं, वे यहां आकंठ भाव से दर्ज कर दी गई हैं. आत्मग्लानि के प्रत्याशित बोझ से छुटकारा और कथानक में आए जीवित लोगों को किसी अटपटी स्थिति में ले आने की आशंका का निर्मूलन. उपन्यास बेशक प्रामाणिकता का कोई दावा न करे लेकिन संवेदनशीलता, रचनात्मक विश्वसनीयता के मामले में इक्कीस ही ठहरता है.

दलपत चौहान ने अपने उपन्यासों की जो त्रयी रची है, उसमें भर भांखलु के अलावा मुलक और गिद्ध हैं. मुलक उनका पहला उपन्यास है, जिसने उनकी पहचान बनाई. डॉ. किरन सिंह ने हिंदी में इस उपन्यास का बेहतर अनुवाद किया है. गुजरातीभाषी किरन अंग्रेजी और हिंदी की अध्येता हैं और हिंदी की प्राध्यापिका.

अनुवाद मूल जैसा ही लगता है. एक जगह से उजड़कर दूसरी जगह जाने को कामचलाऊ ढंग से देशांतरण कहा जा सकता है. इसके लिए विस्थापन शब्द भी इस्तेमाल किया जा सकता है लेकिन उजड़ने में जो पीड़ा है, वह न तो देशांतरण में आ सकती है और न विस्थापन में.

बांग्ला में उद्वास्तु इसका पर्याय है. गुजराती में इसके लिए हिजरत शब्द प्रयोग में लाया जाता है. हिजरत दलितों की जिंदगी से जुड़ा हुआ शब्द है. मुलक उपन्यास में हिजरत केंद्र में है. अनुवादिका ने यद्यपि देशांतरण शब्द रखा है पर मुझे हिजरत शब्द ही मूल भाव के निकट जान पड़ता है.

भारतीय भाषाओं में आपस में अनुवाद करते समय ऐसे अवधारणात्मक शब्द अपने मूल रूप में ही रखे जाने चाहिए. इससे स्त्रोतभाषा और लक्ष्यभाषा दोनों की नजदीकी बढ़ती है.

मुल्क में होते 'ए मुल्क से बेदखली, वतन के भीतर जलावतन होने का दंश इस भूखंड के दलितों का पुरातन और सनातन अनुभव है. मुलक में इसी हिजरत की कहानी है. हमारे समाज में व्यक्ति नहीं होते, प्रतिनिधि होते हैं, जाति प्रतिनिधि. दलितों के बारे में तो यह शत-प्रतिशत लागू किया जाता है.

अगर इस समुदाय का कोई सदस्य 'चूक' करता है तो उसकी सजा समूचे समुदाय को दी जाती है. हमारे आसपास जो घटनाएं घटती हैं, उसे ध्यान में रखें तो इस बात को आसानी से समझ जा सकता है. गोहाना कांड में दो लोगों के बीच झ्गड़ा हुआ. इत्तेफाकन उन दोनों में से एक दलित था. इस झगड़े का खामियाजा पूरी दलित बस्ती को भुगतना पड़ा. बस्ती आग के हवाले कर दी गई, लूट ली गई. यही सालवन में दोहराया गया. दोनों हरियाणा के भीतर हैं.

अभी जनवरी 2012 में बोलांगीर (ओडिशा) में यही घटित हुआ. दो लोगों के बीच का झ्गड़ा पूरी दलित बस्ती को भुगतना पड़ा. आगजनी के शिकार दलित अब भी शरणार्थी शिविर में रह रहे हैं. उपन्यास की प्रामाणिकता जांचने के लिए किसी शोध-कार्य की जरूरत नहीं है. प्रमाण आसपास ही बिखरे पड़े हैं.

बुनकर जाति गुजरात में अनुसूचित जाति है. उत्तर और पूर्वी भारत में यह अन्य पिछड़ा वर्ग में आती है. गुजरात की दलित जातियों में बुनकरों की संख्या सबसे ज्‍यादा है.

मुलक में बुनकरों की व्यथा-कथा है. गांव का चौधरी परिवार बुनकरों पर दबदबा बनाकर रखता है. चौधरी परिवार की ब है संतोक. उसका पति नामर्द है. यह बात गांव के कुछ लोगों को मालूम है. उसे गर्भ रह जाने पर बड़ी-बूढ़ियों को ताज्‍जुब होता है. बच्चे की पैदाइश के बाद देखने वाले देखते हैं कि उसका चेहरा-मोहरा गांव के बुनकर युवक भगा से मिलता है. खबर जंगल में आग-सी फैलती है. आगजनी का इंतजाम होता है. दलितों को भनक लग जाती है. सारे दलित रातोरात कूच कर जाते हैं. गांव से बाहर निकलते ही उनमें बातचीत शुरू होती है, जो सुबह होने तक चलती रहती है. आवेग-आवेश-संत्रास से घनीभूत बातचीत को चौहान ने पुनर्सृजित किया है. फ्लैशबैक टेक्नीक में उन्हें महारत है.

रात भर की बातचीत दलितों के अतीत-वर्तमान और अनजाने कंटकाकीर्ण भविष्य का औपन्यासिक पाठ है. गांव के दलित जलने से बच गए हैं, इसी अर्थ में उपन्यास सुखांत है. लेकिन इस सुखांतिकी की त्रासद प्रकृति में पाठक आखिरकार हिस्सा बनकर निकलता है. यह कैसा सुखांत है, जिसमें दलितों को उजड़ना पड़ा, अपने पूर्वजों की जमीन से बेदखल-बहिष्कृत होना पड़ा. कहां जाना है, कैसे बसना है, अगली हिजरत कब थोप दी जाएगी, कुछ पता नहीं. सभ्य समाज के नागरिकों को इसका उत्तर खोजना शेष रह जाता है.

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