पाटलिपुत्र की सम्राज्ञी
शरद पगारे
वाणी प्रकाशन,
नई दिल्ली-2,
कीमतः 695 रु.
रिवर्स इंजीनियरिंगः पगारे
शरद पगारे इससे पहले गुलारा बेगम, गंधर्वसेन, और बेगम जैनाबादी जैसे ऐतिहासिक उपन्यास लिखकर इस विधा में अपनी पहचान बना चुके हैं. पर यह नवीनतम वृहद उपन्यास पाटलिपुत्र की सम्राज्ञी इस मायने में भिन्न है कि इसके माध्यम से लेखक ने अतीत के उन तथ्यों, पात्रों और घटनाओं को मुखर किया है जिनके बारे में इतिहास मौन है.
अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में भूमिका लिखते हुए पगारे कहते हैं, ''ऐतिहासिक उपन्यास ऐतिहासिक सत्यों-तथ्यों और साहित्यिक कल्पना के यथार्थ का समन्वय है-सीमाओं और संभावनाओं में बंटा हुआ.
इतिहास में उपलब्ध सामग्री उसकी सीमाएं हैं. आप उनसे छेड़छाड़ नहीं कर सकते. वैसा करना इतिहास के साथ अन्याय होगा. अतः इतिहास और साहित्य का संतुलित समन्वय ऐतिहासिक उपन्यास की प्रथम और अंतिम शर्त है...''
यह उपन्यास ब्राह्मण पुत्री अशोक की मां सम्राज्ञी धर्मा पर केंद्रित है जो पाटलिपुत्र के सम्राट बिंदुसार की सोलह पटरानियों में से एक थी. पर इस बहाने विविध प्रसंगों, विवादों और दूसरे चरित्रों के ऐसे अनेक द्वीपों का निर्माण सामने आया है जो अतीत के उस काल खंड का अंग होते हुए भी सामयिक राजनैतिक, सामाजिक और मानवीय विसंगतियों को बखूबी उभारकर साकार कर देते हैं.
शब्दावली और वातावरण का विवरण कुछ ऐसा प्रभावशाली है कि लेखक की अध्ययनशीलता और तीक्ष्ण दृष्टि का प्रमाण अनायास ही स्थापित हो जाता है. पर यह लेखक के इस दावे के विरुद्ध जाता है कि रचना सम्राज्ञी धर्मा पर ही केंद्रित है क्योंकि इसमें स्त्री शोषण, सशक्तिकरण, भ्रष्टाचार, तिरिया चरित्तर, दलित विमर्श, पूंजी, कूटनीति और व्यवस्थागत शोषण जैसे आज के समकालीन प्रसंग भी तीव्रता से अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हुए प्रतीत होते हैं. साथ ही चंद्रगुप्त, महामात्य चाणक्य, अशोक, चित्रलेखा, महामात्य खल्लाटक, जैनाचार्य भद्रबा', बिंदुसार, ऋषिप्रवर पिंगलवत्स, दलित हिरण्यक, सुबंधु, गणिका कुसुमिता जैसे कई पात्र हैं, जिनका चरित्र विशद रूप से इस कृति में प्रकट हुआ है और धर्मा के तुल्य भी है.
फिर भी धर्मा के प्रति लेखक का अपना मोह है. इसकी पृष्ठभूमि में लेखक ने भूमिका में जो कारण बताए हैं वे स्वयं अपने आप में रोचक कथा रस से पूर्ण हैं. पगारे लिखते हैं, ''हम भारतीय जन्म कुंडली में बहुत विश्वास करते हैं. इतिहास में अल्पज्ञात धर्मा के बारे में और ज्यादा जानने के लिए मैंने उसकी कुंडली बनवाई...''
इस तरह का 'रिवर्स इंजीनियरिंग' वाला प्रयोग निस्संदेह ही उपन्यास विधा में नया है. एक और निजी घटना विवरण दे लेखक ने कदाचित् चौंकाने की हद तक उपक्रम किया है-''पाटलिपुत्र की सम्राज्ञी'' को अंतिम रूप से गढ़ने के पूर्व तीन बार 80 पृष्ठ लिखकर रद्द किए... लगा नहीं लिख पाऊंगा.. लिखना बंद कर दिया. तभी चमत्कार हुआ.
एक सांझ एक अत्यंत रूपसी मिलने आई और बोली कि आप धर्मा की कहानी लिखते क्यों नहीं? लेखक ने अपनी विवशता जताई तो वह बोली, 'जब आप अल्पज्ञात ऐतिहासिक पात्रों गुलारा बेगम और बेगम जैनाबादी पर प्रामाणिक सामग्री के अभाव के बाद भी पुरस्कृत उपन्यास लिख सकते हैं तो धर्मा पर क्यों नहीं?...धर्मा की वकालत करने वाली आप कौन? स्वयं धर्मा...वती, अभागी धर्मा, जिसके साथ इतिहासकारों ने न्याय नहीं किया...हां हमारे बेटे अशोक को जरूर महान बना दिया...आप हमारे आराध्य देवाधिदेव महादेव का स्मरण कर लिखें, उपन्यास पूरा होगा.''
लेखक जब अपनी रचना प्रक्रिया में गंभीरता से पैठ जाता है तो ऐसे काल्पनिक अनुभवों की प्रामाणिकता पर संदेह करना या न करना कोई मायने नहीं रखता, अलबत्ता दावा रोचक और स्वाभाविक ही लगता है.
लेखक की यह निजी प्रेरणा भी उल्लेखनीय है कि वे मालवा में निमाड़ की नगरी महिष्मती (महेश्वर) से हैं, जो एक पुरातन नगरी है, उज्जैन के समीप. सम्राट होने के पूर्व अशोक उज्जयिनी के उप-राजा रहे थे. उज्जैन तीन हजार वर्ष से भी अधिक प्राचीन नगर है. मातृभूमि का ऋण चुकाने के लिए लेखक ने संगीताचार्य विशाखदत्त फाल्गुनी और वैष्णवी जैसे चरित्रों की कल्पना करके तथाकथित देशकाल को रोमांचक विस्तार दिया है.
कुल मिलाकर लेखक की अपनी निजी अथवा अकादमिक प्रेरणा जो भी रही हो, पर अंततः हिंदी साहित्य को एक विशाल अन्यतम ऐतिहासिक औपन्यासिक कृति की जो उपलब्धि पाटलिपुत्र की सम्राज्ञी के रूप में हुई है, उससे इनकार नहीं किया जा सकता.