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उपन्यास: पीछा मृग मरीचिका का

साइबर लॉटरी कांड के जरिए भूमंडलीकरण के दौर में चल रही लूट की परतें खोलता है यह उपन्यास. हालांकि कल्पना के लिए उतनी जगह नहीं छोड़ता.

अपडेटेड 21 मई , 2012

स्वर्णमृग
गिरिराज किशोर
राजपाल प्रकाशन,
दरियागंज, नई दिल्ली,
कीमतः 145 रु.
sales@rajpublishing.com

अब तक विभिन्न कथाकारों ने हिंदी कथा साहित्य में अपनी-अपनी तरह से भूमंडलीकरण की संस्कृति का पुरजोर प्रतिरोध किया है. अग्रणी उपन्यासकार गिरिराज किशोर का ताजा उपन्यास स्वर्णमृग उसी की ताजा कड़ी है. इसमें भूमंडलीकरण के कितने ही भयों की चर्चा करके कथा को साइबर क्राइम पर केंद्रित किया गया है.

साइबर क्राइम की दुनिया पर यह हिंदी का पहला उपन्यास जरूर है लेकिन पुस्तक के आवरण पर यह घोषणा (लेखकीय या प्रकाशकीय?) कि यह वैश्वीकरण की त्रासदी पर पहला मौलिक उपन्यास है, जल्दी हजम नहीं होती. इससे पहले भूमंडलीकरण की अपसंस्कृति के प्रतिरोध में रवींद्र वर्मा, काशीनाथ सिंह, अलका सरावगी, राजू शर्मा वगैरह के उपन्यास आ चुके हैं.

स्वर्णमृग की विशेषता यह है कि यह साइबर क्राइम की उस दुनिया के अंदर गहराई से प्रवेश कराता है, जो नित्य लगभग सभी कंप्यूटरों और मोबाइलों पर आपके द्वारा जीती गई किसी लॉटरी की विदेश से सूचना देते रहते हैं. रकम भी लाखों डॉलरों और पाउंड में.

सामान्य आदमी आज इजी मनी के फेर में ऐसा पड़ा है कि वह इनके संजाल में फंस जाता है. ''हमारा गरीब देश एक विचित्र मानसिकता का शिकार हो रहा है. बिना कुछ किए करोड़पति या अरबपति बनने की लालसा. यह वर्ग इंटरनेट-कामी वर्ग है जो शिक्षित और आधुनिक सभ्यता का संवाहक होने का दावा करता है. यह खेल मल्टीनेशनल के नाम पर उनकी आनुषंगिक कंपनियां या उनसे जुड़े अंग्रेजीदां लोग अपने को डिप्लोमैट का दर्जा देकर विदेशी बिचौलिए खेल खेल रहे हैं...'' इसी चाल का शिकार कथानायक पुरुषोत्तम होता है, जिसे पुरुषो कह-पुकारकर ही कथा गति पकड़ती है. उपन्यास आज की इस दशा पर करारी चोट करता है कि हमारी पूरी संस्कृति क्रेडिट कार्ड संस्कृति, उधारजीवी संस्कृति बनती चली जा रही है.

असल में वैश्वीकृत नए आर्थिक विकास की परिकल्पना के साथ अमेरिका ने एक कालिदह का निर्माण किया, जिसमें आज वह स्वयं डूब रहा है. अकूत दौलत पाने के इसी स्वर्णमृग के पीछे-पीछे दौड़ता पुरुषो इंग्लैंड की कंपनी के प्रतिनिधि, उस देश का डिप्लोमैट बने डेविड मूर के जाल में फंसता चला जाता है. पर यह कथा पाठक के मन में बार-बार एक सवाल उठाती है.

उपन्यास का मध्य आते-आते पाठक को यह समझ आने लगता है कि यह मूर की रुपया ऐंठने की साजिश है, पुरुषोत्तम जैसा पात्र इसे क्यों नहीं समझ पाता? बहरहाल, उपन्यास साइबर क्राइम के लॉटरी कांडों की असलियत की अच्छी पोल खोलता है.

यह उस सत्य की ओर इंगित करता है कि वैश्वीकरण के इस युग में इंसानी रिश्तों को पीछे छोड़कर पैसे की ऐसी सुनामी आई है, जिसमें बह जाने के लिए प्रोत्साहित करने की स्थितियां कदम-कदम पर प्रस्तुत हैं. उपन्यास आज के मनुष्य की इस त्रासदी को गहरी संवेदना से प्रस्तुत करता है.

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