अपना आकाश
सूर्यपाल सिंह
पूर्वापर प्रकाशन,
सिविल लाइंस, गोंडा, उत्तर प्रदेश
कीमतः 100 रु.
मजलूमों से सहानुभूतिः सूर्यपाल सिंह
फणीश्वरनाथ 'रेणु' की रचनाओं में जैसे पूर्णिया का मानव-भूगोल विन्यस्त है वैसे गोंडा का सूर्यपाल सिंह की कृतियों में. सिंह वैसे तो कई विधाओं में सक्रिय हैं लेकिन उनकी पहचान उपन्यास लेखन से बनी है. कोई चार बरस पहले उनका उपन्यास कोमल की डायरी पढ़ते हुए ख्याल आया था कि गोंडा जनपद को समग्रता में समझ्ना हो तो सूर्यपाल की रचनाओं का सहारा लेना ही पड़ेगा. पर एक अंचल विशेष को अपनी कृतियों में मूर्तिमान करने वाले सूर्यपाल आंचलिक लेखक नहीं कहे जा सकते.
यह सही है कि वे एक प्रतिबद्ध रचनाकार हैं लेकिन उनकी प्रतिबद्धता का दायरा अंचल विशेष तक महदूद न होकर व्यापक है. वे असल में, लोकरंग के कथाशिल्पी नहीं, जनपक्षधरता और उससे उपजी विचारशीलता के कथाकार हैं.
उनका नया उपन्यास अपना आकाश इसी बात की पुष्टि करता है. लेखक की अब तक की सभी कृतियों में कई स्तरों पर प्रभावशाली लगी है यह. मेरा आशय तैयारी, प्रस्तुति, संतुलन और अंतर्दृष्टि की विशिष्ट गुंथान से है.
अपना आकाश एक पुरवे की कथा है. पुरवा यानी गांव का लघु संस्करण. उत्तर प्रदेश के पूर्वी हिस्से में बहुतायत है इनकी. दो से लेकर 50 घरों का समूह. पुरवों की कहानी पर हिंदी के कथाकारों का ध्यान कम गया है. भूमंडलीकरण की आंधी में पुरवे किस स्थिति का सामना कर रहे हैं, किन सपनों को जी रहे हैं, अपने ढंग से इसी की कथा है इसमें.
स्थानीयता के प्रश्न को यहां नए संदर्भ में उठाया गया है. उपन्यास स्थानीयता को लेकर आग्रही नहीं दिखता. उसका लगाव उन आकांक्षाओं से जरूर है, जो हठी पुरवा के निवासियों ने संजो रखी हैं. तन्नी और तरंती उपन्यास की केंद्रीय पात्र हैं. हठी पुरवा की बारहवीं पास करने वाली पहली लड़कियां. वे आगे पढ़ना चाहती हैं. उनका संघर्ष उस पूरी पीढ़ी के ख्वाबों का रूपक है.
उच्च शिक्षा के लिए गांव से निकलने वाली लड़कियों की यह पीढ़ी संकीर्ण अर्थ में 'करियर कांशस' नहीं है. वह मुक्ति के लिए शिक्षा का वरण कर रही है. पिछली पीढ़ी की वत्सलाधर जैसी स्त्रियां तन्नी और तरंती के लिए आदर्श हैं. उच्च शिक्षा प्राप्त, अपने पैरों पर खड़ी, सलीके की एकल जिंदगी, सामाजिक प्रश्नों से बाखबर, सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में सक्रिय...
अपना आकाश का एक सिरा निजी शिक्षा संस्थाओं की भीतरी दुनिया का खुलासा करता है तो दूसरा सिरा किसान जीवन में आई तब्दीलियों को फोकस करता है. मुनाफाखोरों के शिकंजे में फंसी सरकारी मशीनरी किस तरह आम जनता, विशेषकर किसानों के प्रति क्रूरतर होती गई है, यह भंवरी और मंगल की जिंदगी के जरिए उपस्थित किया गया है. बेटी को पढ़ाने के लिए यह परिवार लहसुन की खेती करता है.
मंडी में ठगा गया मंगल प्रतिरोध की राह चलने की सोचता है. आढ़ती, बिचौलिया और पुलिस का तंत्र ऐसे को क्यों बख्शे? उसकी हत्या का केस आत्महत्या का बनाया जाता है. सूबे के मुख्यमंत्री का बयान है कि उनके राज्य में किसान आत्महत्या नहीं करते. हठी पुरवा का सपना मंगल की हत्या के साथ चकनाचूर. भीतर गहरी बेचैनी.
गांव की दो पीढ़ियों के बीच टकराहट से एक समाधान निकलता दिखता है. एक टीम तैयार होती दिखती है. वही मंगल के हत्यारों को सजा दिलाएगी. संगठन और जागरूकता की जरूरत और सामुदायिक उन्नयन की चिंता इस टीम की पहचान है. लेखक ने माओवाद का भी यथा प्रसंग चित्र खींचा है.
पुराने तंत्र से जूझ्ना जितना आसान दिखता है, नए तंत्र से उतना ही मुश्किल. दोनों शोषण तंत्रों का गठबंधन हो जाए तो मुश्किलों का पारावार नहीं. संकट की विराटता को उपन्यासकार ने ब्यौरों से उकेरा है. अवधी शब्दों से रची किसान कथा की यह दुनिया विचारोत्तेजक, दिलचस्प और मूल्यवान पाठ के रूप में याद की जाएगी.