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उपन्यास: लोकोत्तर दांपत्य प्रेम

इस धरती के सात अजूबों में गिने जाने वाले और आकर्षण के केंद्र 'ताजमहल' को मुगल बादशाह शाहजहां के अपनी पत्नी मुमताज महल के प्रति प्रेम-प्रतीक के रूप में देखा जाता है.

अपडेटेड 3 सितंबर , 2011

मुमताज महल
सुरेश कुमार वर्मा
वाणी प्रकाशन,
नई दिल्ली-2,
कीमतः 495 रु.

मुगलिया रंग निरूपणः सुरेश वर्मा

इस धरती के सात अजूबों में गिने जाने वाले और आकर्षण के केंद्र 'ताजमहल' को मुगल बादशाह शाहजहां के अपनी पत्नी मुमताज महल के प्रति प्रेम-प्रतीक के रूप में देखा जाता है.

यह भव्य इमारत शाहजहां के ख्वाब की तस्वीर मानी जाती है. इतिहास के पन्नों पर मुमताज महल के नाम का उल्लेख एक अनिंद्य सुंदरी के रूप में ही मुख्य तौर पर दर्ज है. अर्जुमंद बानो नाम की यह स्त्री जिसे शाहजहां बहुत चाहता था, यूं एक सीधी-सादी, नेकदिल, मि.जाज से खुशदिल और परदे के  पीछे सेवा और समर्पण भाव से रहने वाली ही थी.

पर वह अपने असाधारण गुणों के कारण बहुत-से संकटों, विपत्तियों, संघर्ष, बाधाओं और कठिनाइयों में अपने पति शहजादा खुर्रम का साथ देती रही. उसने अपने साहस, संकल्प, सेवा और सूझ्बूझ से यह भी प्रमाणित किया कि पुरुष के  लिए स्त्री सर्वोत्तम औषधि है. 19 वर्षों तक वह अपने दांपत्य जीवन में शाहजहां को बांधे रही. उसके उदात्त और लोकोत्तर दांपत्य प्रेम की परिणति ही ताजमहल का निर्माण है.

अपनी ऐतिहासिक कृति मुमताज महल में सुरेश कुमार वर्मा ने मुमताज महल के चरित्र का वह पक्ष चित्रित किया है, जो ऐतिहासिक रूप से अनदेखा ही रह गया था. यह उपन्यास उसके दांपत्य जीवन के साथ उसके व्यक्तित्व के अनेक रंगों का निरूपण करता है.

अर्जुमंद बानो, जिसे मुमताज महल की उपाधि मिली थी, इस उपन्यास में केंद्रीय रूप में है और पाठक उसके  चरित्र के विविध पहलुओं से परिचित होता है. शहजादा खुर्रम और अर्जुमंद का प्रेम विवाहोपरांत ही घनीभूत होने लगता है और दोनों के  अहसास शब्दों में ढलकर सामने आते हैं: ''खुर्रम ने रक्त पद्माभ हथेली को सीने से दबाते हुए कहा, 'आरजू अब्बा'जूर भले ही अपनी अनारकली को हासिल न कर पाए हों, मैंने तो अपनी अनारकली हासिल कर ली है. यह अल्लाह की मेहरबानी और मेरी खुशकिस्मती है.' अर्जुमंद विह्वल हो गई. आंसू डबडबाने लगे.

दुआ के लिए हाथों को उठाकर बोली, हुए जुलमिनन खुदा, तूने अपनी बेमिसाल फैयाजी से दुनिया को क्या-क्या नियामतें नहीं बख्शी हैं. ऐ गरीबनिवाज, मुझ पर अपनी रहमतों का साया डाल. मुझे हिम्मत दे, बसीरत दे, ताकत दे कि एक नेक और ईमानदार बीवी के  फर्ज को निभा सकूं.''

उपन्यास ऐसे कई वाकयों और पन्नों को समेटे हुए है, जब अर्जुमंद अपनी दलीलों और तर्कों से अपनी मेधा का परिचय देती है, शहजादा खुर्रम के युद्ध पर जाने और शाही हुकूमत से बगावत के समय भी अपने मशवरे से उसे प्रभावित करती हैः ''आपसे ज्‍यादा इस बात को कौन समझ सकता है कि हुकूमत के हालात बर्क खिराम बदलते रहते हैं.

आज कुछ हैं तो कल कुछ और. यही कारण है कि सियासत में न तो कभी आखरी 'हां' होता है और कभी आखरी 'न'. सियासत के फैसले 'हां' और 'न' के  बीच मुसल्सल झूलते रहते हैं.''

उपन्यासकार ने अपने वर्णन में हिंदी के परिशिष्ट और शुद्ध शब्दों को अपनाया है तो संवादों में मुगलिया फारसीनिष्ठ उर्दू ही पूर्णतया छाई हुई है. कहीं-कहीं मिलेजुले प्रयोग भी हैं: ''अर्जुमंद की बातों में सलाहियत का माधुर्य था. अभी कुछ दिनों पूर्व तक के शौर्य की जिस दहलीज के  पीछे वह खड़ी थी उस पर उत्तम आर्जव का कालीन बिछा था, जिस पर कदम रखते, खेलते-कूदते वह पली-बढ़ी है.''

यहां सांकेतिकता नजर आती है. उत्तम आर्जव जैन दर्शन से लिया गया शब्द है. लेखक ने ऐतिहासिक तथ्यों का बखूबी निर्वाह किया है. वर्मा इस रचना में मुगल तारीख को उतार लाने में सफल रहे हैं. मुमताज महल के गुणों को आधार बनाकर लिखने का प्रयोजन उपन्यास में लक्षित होता है.

यह उपन्यास उर्दूनिष्ठ वाक्यों की ब'लता के बावजूद प्रवाहमयी भाषा और पठनीयता लिए हुए है, जिसका गंभीर और अन्य सुधी पाठक समान अभिरुचि से आस्वादन कर सकते हैं. मुगालिया वातावरण के अतिरिक्त सियासी निर्णय, राजकीय दांवपेज, महल के अंदरूनी मसलों और उठापटक को भी उपन्यासकार ने अपने वर्णन में उतारा है.

प्राक्कथन में लेखक ने भरोसा जताया है कि ''भले ही आज लोग ताजमहल को शाहजहां के उत्कट प्रेम की निशानी के रूप में देखते हों पर एक दिन यह भी मानेंगे कि शाहजहां का यह प्रेम-प्रतीक इसकी तपःपूत पत्नी के जीवन-मूल्यों का प्रतिदान है. तब उन्हें ताजमहल की शुभ्र झ्लिमिलाहट में मुमताज महल की छवि भी दिखाई देगी.'' अच्छा ही होगा अगर ऐसा हो.

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