जगह नेहरू प्लेस कंप्यूटर मार्केट. सुबह के 10 बजे हैं. अचानक कुछ किशोर नमूदार होते हैं. टाइट जींस, पांव में फैशनेबल जूते, छरहरी कद-काठी और एकदम चौकन्ने. दिन के बढ़ने के साथ ही इनकी सक्रियता भी बढ़ती जाती है. 11 बजे तक ये नेहरू प्लेस कंप्यूटर मार्केट में फैल जाते हैं. हाथ में कैटलॉग लिए ये आवाज लगाते हैं, ''सॉफ्टवेयर, सॉफ्टवेयर''...हर गुजरने वाले को कई सॉफ्टवेयर के नाम लेकर फुसलाने की कोशिश शुरू हो जाती है. ग्राहक को रुकता देख वे तुरंत कैटलॉग थमाते हैं और कहते हैं, ''सर क्या लेंगे. 150 रु. में विंडोज-7, 300 रु. में कंप्लीट एडोबी पैकेज...'' अगर सौदा पटा तो हाजिर है महंगे सॉफ्टवेयर की पाइरेटेड डीवीडी.
ये किशोर इतने सधे ढंग से इन सॉफ्टवेयर के नाम लेते हैं कि आप गच्चा खा जाएं. नेहरू प्लेस में सॉफ्टवेयर की पाइरेटेड डीवीडी/सीडी बेचने वाला 15 वर्षीय अमित बखूबी सभी सॉफ्टवेयर की एबीसी जानता है. उससे यह पूछने पर कि वह कितना पढ़ा हुआ है उसने जवाब दिया है, ''पांचवीं फेल.'' इन्हें इस रोजमर्रा काम के 150 से 250 रु. मिलते हैं. जानकार मानते हैं कि इन किशोरों को इस काम में लगाने की वजह इनकी कम उम्र है, जिससे कानून का शिकंजा थोड़ा कमजोर पड़ जाता है.
नेहरू प्लेस में पाइरेसी के कारोबार से जुड़ा अनिल (बदला हुआ नाम) बताता है, ''अधिकतर सॉफ्टवेयर इंटरनेट के जरिये क्रैक होते हैं या फिर कई मामलों में तो कंपनी के अंदर के ही लोग शामिल होते हैं.'' सूत्र बताते हैं कि नेहरू प्लेस में पाइरेसी का कारोबार करने वाले इसके आसपास के लाल डोरा क्षेत्रों से ऑपरेट करते हैं. यहां की घनी आबादी के कारण उनके पकड़े जाने का खतरा भी कम है.
अगर पाइरेसी के गणित पर नजर डालें तो पाइरेटेड डीवीडी के कारोबार से जुड़ा बबलू (बदला हुआ नाम) बताता है, ''इस कारोबार में आने के लिए 40,000 से 50,000 रु. खर्च करने होते हैं. फिर पाइरेसी के जरिए हर महीने 20,000 से 25,000 रु. आसानी से कमाए जा सकते हैं. सॉफ्टवेयर के अलावा फिल्म, म्युजिक और गेम की डीवीडी भी बिकती हैं.''
घनी आबादी वाले किसी सस्ते इलाके में एक कमरा, 15,000 से 25,000 रु. तक का एक कंप्यूटर या लैपटॉप, 3,000 से 5,000 रु. तक का कलर प्रिंटर और 12,000 से 20,000 रु. तक का एक मल्टीपल डीवीडी राइटर. इसी से शुरू होता है पाइरेसी का खेल. यह पूछने पर कि सॉफ्टवेयर मिलते कहां से हैं, तो बबलू का जवाब थोड़ा चौंकाने वाला था, ''अमेरिका और यूरोप में कुछ ऐसे लोग भी हैं, जिनके पास सारे रिसोर्स हैं लेकिन करने को कुछ खास नहीं. वे इस तरह के सॉफ्टवेयर खरीदकर उन्हें इंटरनेट पर डाल देते हैं. कई मामलों में हैकर या कंपनी के अंदर के ही लोग बाजार तक सॉफ्टवेयर पहुंचाते हैं. चीन भी पाइरेटेड सॉफ्टवेयर का बड़ा बाजार है.''
माइक्रोसॉफ्ट इंडिया के जेनुइन सॉफ्टवेयर इनिशिएटिव के डायरेक्टर सुमित खन्ना कहते हैं, ''पाइरेटेड सॉफ्टवेयर के कारण इंडस्ट्री को रिसर्च और डेवलपमेंट से जुड़ा बड़ा नुकसान हो रहा है.'' जबकि ऑल दिल्ली कंप्यूटर ट्रेडर्स एसोसिएशन के चेयरमैन श्याम मोदी नेहरू प्लेस की दुकानों में किसी तरह की पाइरेसी से साफ इनकार करते हैं. वे कहते हैं, ''नेहरू प्लेस में दुकानों पर कोई पाइरेटेड माल नहीं मिलता. इस काम को हॉकर्स अंजाम देते हैं और उनके साथ सॉफ्टवेयर कंपनियों की मिलीभगत भी रहती है.''
इस मार्केट में लगभग 10,000 दुकानें हैं और 500 हॉकर्स हैं. इनमें से सिर्फ 100 के ही पास लाइसेंस हैं. ऐसे में इन पर निगरानी एक बड़ा काम है. यह मार्केट कालकाजी थाने के तहत आती है. जब यहां के एसएचओ रणबीर सिंह से बात की गई तो उनका जवाब था, ''फिलहाल ऐसी कोई शिकायत नहीं मिली है. हमारी नॉलेज में इस तरह का कोई काम नहीं हो रहा है.'' जबकि दिल्ली पुलिस के पीआरओ राजन भगत कहते हैं, ''2010-11 में माइक्रोसॉफ्ट की शिकायत पर तीन जगह छापे मारे गए थे. इसमें 2010 में नजफगढ़ में छापा मारने पर नेहरू प्लेस की दुकानों में पाइरेसी की बात निकली थी. वहां छापा मारने पर हमें सॉफ्टवेयर की 530 डीवीडी/सीडी मिली थीं, जिनकी कीमत लगभग 15 लाख रु. थी. दो लोग धरे भी गए थे.''
इसे पाइरेसी की ही मार कहेंगे कि भारत में पीसी सॉफ्टवेयर से जुड़ी कुल कमाई का सिर्फ एक-तिहाई ही सॉफ्टवेयर कंपनियों की जेब में जाता है, बाकी सारा पाइरेसी की भेंट चढ़ जाता है. दुनिया भर के 41 फीसदी कंप्यूटरों में पाइरेटेड सॉफ्टवेयर से काम चल रहा है. जिससे सॉफ्टवेयर इंडस्ट्री को लगभग 53 अरब डॉलर का नुकसान हो रहा है.
पाइरेसी के कारण सरकारी खजाने को भी टैक्स के रूप में बड़ी मार पड़ रही है. माइक्रोसॉफ्ट और एडोबी जैसी सॉफ्टवेयर कंपनियों का प्रतिनिधित्व करने वाले ट्रेड ग्रुप बिजनेस सॉफ्टवेयर एलायंस (बीएसए) की डायरेक्टर लिजम मिश्र बताती हैं, ''बीएसए और आइडीसी के अध्ययन में यह बात सामने आई कि भारत सरकार को 2009 में 65 फीसदी पाइरेसी दर के कारण 86.6 करोड़ डॉलर का नुकसान हुआ था.'' जबकि नेहरू प्लेस में हो रही पाइरेसी से होने वाले नुकसान की बात करें तो श्याम मोदी अंदाज लगाते हैं, ''पाइरेसी के कारोबार से रोजाना लगभग 30 लाख रु. का नुकसान हो रहा है.''
यूनाइटेड स्टेट्स ट्रेड रिप्रेजेंटेटिव (यूएसटीआर) की आइटी क्षेत्र में विश्व के सबसे कुख्यात 30 बाजारों पर आउट-ऑफ-साइकिल रिपोर्ट में नेहरू प्लेस को जगह दी गई है. नेहरू प्लेस के अलावा एशिया के रेड जोंस (थाइलैंड), सिल्क मार्केट (चीन) और उर्दू बाजार (पाकिस्तान) के नाम प्रमुखता से लिए जा सकते हैं.
इस सूची में नाम आने पर नेहरू प्लेस के व्यापारी खासे नाराज भी हैं. अपनी नाराजगी जताते हुए यहां के ब्रॉडवे कंप्यूटर्स के मालिक और ऑल दिल्ली कंप्यूटर ट्रेडर्स एसोसिएशन के प्रेसिडेंट महेंद्र अग्रवाल इसे अमेरिका की साजिश करार देते हैं. उनका कहना है, ''अमेरिका हमारे बाजार को बदनाम करने के लिए ऐसा कर रहा है. पाइरेसी में उसी देश की कंपनियों का हाथ है.'' सॉफ्टवेयर पाइरेसी में कंपनियों की भूमिका पर सवाल उठाते हुए अग्रवाल कहते हैं, ''नेहरू प्लेस में कई बड़ी सॉफ्टवेयर कंपनियों के ऑफिस हैं. उन्हीं के ऑफिस के सामने ये पाइरेटेड सॉफ्टवेयर बिक रहे हैं. वे क्यों नहीं रोकते?''
बेशक पाइरेसी से होने वाला नुकसान बहुत बड़ा है. लेकिन इसका एक कारण सॉफ्टवेयर का महंगा होना माना जाता है. पाइरेसी कारोबार से जुड़े अनिल कहते हैं, ''जितने का कंप्यूटर हार्डवेयर आता है, उससे कई गुना महंगे सॉफ्टवेयर पड़ते हैं.'' नेहरू प्लेस में ही खरीदारी कर रहे डिजाइनिंग से जुड़े छात्र राजेश बताते हैं, ''मैंने 17,000 रु. में कंप्यूटर खरीदा है. विंडोज-7 ही 7,600 रु. का है, एमएस ऑफिस-10-13,000 रु. का और डिजाइनिंग से जुड़े दूसरे पैकेज बहुत महंगे हैं. उन्हें खरीदना मेरे बस की बात नहीं. अपने को तो पाइरेटेड सॉफ्टवेयर ही भाते हैं.''
महंगे सॉफ्टवेयर के बारे में नेहरू प्लेस के एक दुकानदार बताते हैं, ''अगर कंपनी कोई सॉफ्टवेयर 10,000 रु. का बेचती है तो उसे लेने वालों की संख्या कम होगी और उसे कम लोगों को सपोर्ट मुहैया कराना पड़ेगा. उसे कम लोगों को सर्विस देनी पड़ेगी. अगर सॉफ्टवेयर 1,000 रु. का होगा तो कंपनी को 10 सॉफ्टवेयर बेचने पर 10,000 रु. मिलेंगे और उसे सपोर्ट भी 10 लोगों को देना पड़ेगा. इसीलिए कंपनियां इनकी कीमत ज्यादा रखती हैं.''
बेशक पाइरेटेड सस्ता हो सकता है. लेकिन पाइरेटेड सॉफ्टवेयर के खतरे भी कम नहीं हैं. इन्हीं खतरों से रू-ब-रू कराते हुए सुमित खन्ना कहते हैं, ''कस्टमर को इन पाइरेटेड सॉफ्टवेयर के खतरों से वाकिफ होना चाहिए. इनसे डाटा लॉस तो हो ही सकता है, आपकी निजी जानकारी भी गलत हाथों में जा सकती है.'' इसके अलावा, कई बार सिस्टम स्लो चलता है और सिस्टम क्रैश भी हो सकता है. पाइरेटेड एंटीवायरस कई बार वायरस डिटेक्ट करने में भी असफल रहते हैं.
हालांकि पाइरेसी से जुड़े लोग धंधे के पहले की अपेक्षा 20 से 30 फीसदी पर पहुंचने की बात करते हैं. वे बताते हैं, ''अब इंडिविजुअल पाइरेसी ज्यादा बढ़ गई है. कोई दो-तीन लोग सॉफ्टवेयर लेने आते हैं, तो उनमें से कोई न कोई कहेगा कि अरे यह मेरी पेनड्राइव में है. मुझसे ले लेना.'' अगर बीएसए के आंकड़ों को देखें तो इसके पीछे की बात भी समझ में आ जाती है. भारत में कंप्यूटरों की बिक्री में जबरदस्त इजाफा हुआ है. 2010 में यह आंकड़ा लगभग 93 लाख का था. इंटरनेट का प्रयोग भी बढ़ा है. दुनिया भर में इस समय लगभग 1.7 अरब लोग इंटरनेट यूजर हैं. ऐसे में इंटरनेट की बढ़ती जानकारी ने पाइरेसी की नई राहें खोल दी हैं. इस बारे में दिल्ली के छात्र पीयूष बताते हैं, ''अब मुझे पाइरेटेड गेम, फिल्म या सॉफ्टवेयर के लिए बाजार नहीं जाना पड़ता. मेरे यहां 2एमबीपीएस का कनेक्शन है. जो चाहो आसानी से डाउनलोड करो.'' कई ऐसी वेबसाइट हैं जो मनचाहे सॉफ्टवेयर ही नहीं बल्कि फिल्म, गेम या म्युजिक भी उपलब्ध कराती हैं. पीयर टू पीयर के जरिए भी लोग सॉफ्टवेयर खरीदकर अपने पूरे सर्कल में बांट देते हैं.
सूत्र बताते हैं कि दिल्ली के नेहरू प्लेस के साथ ही अब जनकपुरी, तिलक नगर, ओखला, चांदनी चौक, लक्ष्मी नगर और चिराग दिल्ली जैसे इलाकों में भी पाइरेसी का काला कारोबार करने वाले अपनी जड़ें जमाने लगे हैं.'' दिल्ली के पालिका बाजार और गफ्फार मार्केट के नाम तो शुरू से ही पाइरेसी के साथ जुड़ते रहे हैं.
साइबर लॉ विशेषज्ञ और सुप्रीम कोर्ट के वकील पवन दुग्गल सॉफ्टवेयर पाइरेसी की परिभाषा बताते हैं, ''सॉफ्टवेयर के मालिक की मर्जी के बिना उसका प्रयोग, रिप्रोडक्शन या वितरण के मुद्दे.'' विशेषज्ञ सॉफ्टवेयर पाइरेसी के चार रूप बताते हैं. पहला, सॉफ्टवेयर का मालिक लाइसेंस के तहत अधिकृत एक मशीन से ज्यादा में उसे लोड करता है. दूसरा, कंप्यूटर डीलर कंप्यूटर की हार्ड डिस्क में गैर-अधिकृत सॉफ्टवेयर लोड करके देगा. तीसरा, सॉफ्टवेयर का गैरकानूनी रूप से रिप्रोडक्शन और उसे बाजार में बेचना. चौथा, इंटरनेट पाइरेसी. दुग्गल बताते हैं, ''इससे जुड़े कानून कमजोर हैं और जमानती हैं.'' पाइरेसी पर लगाम कसने के लिए मजबूत कानून जरूरी है.
अगर नेहरू प्लेस के इतिहास पर नजर डालें तो 1969 में इसकी प्लानिंग कालकाजी डिस्ट्रिक सेंटर के रूप में हुई थी. इंदिरा गांधी ने 1972 में इसका नामकरण पंडित जवाहरलाल नेहरू के नाम पर नेहरू प्लेस कर दिया. नेहरू प्लेस में 1986 में कंप्यूटर के कारोबार की शुरुआत हुई थी. इसकी लोकप्रियता इतनी बढ़ी कि 1988 में देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी यहां से पर्सनल कंप्यूटर खरीदकर ले गए थे. पाइरेसी रोकने के फायदे पर मिश्र कहती हैं, ''अगर सॉफ्टवेयर पाइरेसी को कम कर दिया जाए तो इससे देश के जीडीपी में 4.6 अरब डॉलर का योगदान होगा. लगभग 59,000 रोजगार सृजित हो सकेंगे.''
बेशक, ढाई दशक पहले एक सकारात्मक पहल के साथ शुरू हुआ नेहरू प्लेस इन दिनों बदनामी का दंश झेल रहा है. इस बाजार को देखने पर यह ऊपर से काफी हद तक शांत नजर आता है. लेकिन अब समय आ गया है कि पाइरेसी पर शिकंजा कसने के लिए इस तरह के ठिकानों की गहरे तक पड़ताल की जाए.