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संस्मरण: बचपन का विस्तृत आकाश

मनुष्य के जीवन की किताब का सबसे प्यारा, निर्दोष, सुखमय, चिंतामुक्त, स्वर्णिम अध्याय बचपन का समय ही गिना जाता है.

अपडेटेड 12 नवंबर , 2011

बड़ों का बचपन
संजीव ठाकुर
एकलव्य, बीडीए कॉलोनी, शिवाजी नगर, भोपाल
कीमतः 290 रु.

मनुष्य के जीवन की किताब का सबसे प्यारा, निर्दोष, सुखमय, चिंतामुक्त, स्वर्णिम अध्याय बचपन का समय ही गिना जाता है. बचपन कैसा भी गुजरे, आदमी जीवन के तमाम मोड़ों पर बचपन के दिनों की ओर ही लौटता है. बचपन के दिन भी क्या दिन थे! लोग बड़े या महत्वपूर्ण हो जाने के बाद भी बार-बार बचपन की बातों को याद करते हैं. उन दिनों की धींगामुश्ती, झ्गड़े, खेलकूद, संगीसाथी और बेफिक्री की बातें, शरारतें, पढ़ाई से जी चुराना, तमाम रूपों में बचपन के दिन घेरते हैं. इन अनमोल दिनों को बड़ों का बचपन नाम की किताब में संजीव ठाकुर ने उतारा है. इसमें अपने-अपने क्षेत्रों में नाम कमा चुके या जगप्रसिद्ध व्यक्तित्वों के अलग-अलग जीवन प्रसंगों को उन्होंने आत्मकथा शैली में लिखा है.
एक तरह से कहा जाए तो बड़ों की कहानी उन्हीं की जुबानी. इसमें अपने बचपन का कोई एक प्रसंग या घटना का जिक्र लिए हुए महात्मा गांधी, डॉ. आंबेडकर, लोकनायक जयप्रकाश, एपीजे अब्दुल कलाम, डॉ. राजेंद्र प्रसाद,, रवींद्रनाथ टैगोर, राजा रवि वर्मा, शरतचंद आदि मौजूद हैं. इनके अलावा माओ-त्से-तुंग, चार्ली चैप्लिन, ज्‍यां जाक रूसो और मैक्सिम गोर्की तक के बचपन प्रसंग हैं इसमें. बड़ों का बचपन पढ़ने से पता चलता है कि उनका बचपन भी साधारण, सामान्य मानी जाने वाली बातों से होकर ही गुजरा है. उनकी लगन, मेहनत और संघर्षों ने धीरे-धीरे उनमें बड़े आदमी की योग्यताओं और क्षमताओं को विकसित किया.
लेखक के 'दो शब्द' अनुसार, इन प्रसंगों का आधार इन व्यक्तित्वों की आत्मकथाएं, जीवनियां और संस्मरणों की किताबें हैं. विशेष रूप से वह घटना-प्रसंग ही उठाया गया है, जिसने इन व्यक्तित्वों के जीवन को सर्वाधिक प्रभावित किया. लेखक ने बच्चों की समझ में आने वाली सहज सरल भाषा में हर व्यक्तित्व का कोई रोचक, प्रेरक और अलग-सा प्रसंग कथा में ढालकर तैयार किया है.
विभिन्न व्यक्तित्वों की पारिवारिक पृष्ठभूमि, वातावरण, मां-पिता और संबंधित लोगों की सोच, व्यवहार और स्वभावगत बातों को आत्मकथा वर्णन शैली में उतारा गया है. गांधी के बचपन के चोरी प्रसंग और अन्य बुराइयों के प्रति क्षणिक आकर्षण वाले वाकए तो हैं ही, चैप्लिन के अपनी गरीबी और मुश्किल भरे दिनों के चित्रण के साथ वह मार्मिक घटना भी है, जो उनके जगजाहिर हंसोड़ रूप का कारण बना था. वे लिखते हैं: ''मैं ड्रेसिंग रूम में गया. इधर-उधर देखा. पास ही एक ढीली-ढाली पतलून थी, मैंने उसे पहन लिया. अपने पैरों से बहुत बड़े जूते पहन लिए. छोटी-सी टोपी सिर पर डाल ली. टूथब्रश जैसी मूछें लगा लीं. एक पतली-सी छड़ी को उठा लिया. छड़ी लहराते और कमर लचकाते जब मैं बाहर आया तो लोग जोर-जोर से हंसने लगे...यही मेरा वह रूप था, जो हमेशा मेरे साथ चिपका रहा और लोगों की प्रशंसा पाता रहा. गोर्की के संघर्षों और मनस्थितियों से प्रसंग का शीर्षक हैः और मैं जीवन की राहों पर निकल पड़ा. प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने भाई से सीखा स्वदेशी का पाठ.
इस तरह बड़ों का बचपन में संजीव ठाकुर ने अपने-अपने कार्यक्षेत्रों में शिखर छूने वाली बड़ी शख्सियतों के बचपन की गलियों में उतरकर उनके प्रेरक, रोचक और हृदयस्पर्शी प्रसंगों को कलमबद्ध किया है. उनके चुनाव का आधार क्या है, इसका खुलासा उन्होंने नहीं किया है. शब्दांकन बच्चों के साथ बड़ों के लिए भी सहज है. किस्साबयानी प्रवाहमयी है. इन संस्मरणों से गंभीर चिंतनपरक सोच चाहे न निकलती तो, पर संभावनाओं के आकाश की मुट्ठी को खुलते हुए पुस्तक रूप में देखना अच्छा लगता है.

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