ममता बनर्जी ने 19 मार्च को एक टेलीविजन इंटरव्यू में दिनेश त्रिवेदी को हटाने का विचित्र तर्क दिया. उन्होंने कहा, ‘(त्रिवेदी ने) हमारा चपरासी को निकाल दिया.’ चपरासी दरअसल एक मुखबिर था जिसे दीदी ने रेल भवन स्थित त्रिवेदी के दफ्तर में रखा हुआ था.
जब उन्होंने जुलाई, 2011 में रेल मंत्री के रूप में ममता की जगह ली और अपनी राजनैतिक बॉस के ज्यादातर स्टाफ को बनाए रखा तो वे नहीं जानते थे कि उसमें एक वह चपरासी भी है. उन्हें चपरासी की हैसियत का पता उस समय चला जब उन्होंने उसे एक महिला आगंतुक के साथ बदतमीजी करने पर अपने ऑफिस से हटा दिया. चपरासी की कहानी त्रिवेदी और उनकी राजनैतिक बॉस के बीच संबंधों का संकेत मात्र है. ममता को हमेशा संदेह रहा कि उनके वोट से जीतने वाले त्रिवेदी दिल से कांग्रेस के साथ हैं.
असंतोष की गर्मी के इस मौसम में लुटियंस की दिल्ली में अपदस्थ चपरासी बर्खास्त कैबिनेट मंत्री से कहीं अधिक योग्य है. कैबिनेट मंत्री का अपराध केवल इतना था कि उनके पास रेलवे के आधुनिकीकरण के लिए एक योजना थी. गर्मी जैसे-जैसे बढ़ती जा रही है, बुरी तरह से झुलसी हुई यूपीए सरकार को कहीं से कोई मदद नहीं मिल रही है.
इसलिए उसे अपने तेजतर्रार मित्र दलों की दया पर निर्भर रहना पड़ रहा है. एक मित्र दल तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) की सशक्त लेकिन तुनकमिजाज नेता ममता प्रधानमंत्री को अपनी मुश्किल धुनों पर नचा रही हैं. प्रधानमंत्री का हर लड़खड़ाता कदम इस बात का संकेत है कि वे अपनी कुर्सी बचाने के लिए किस हद तक जा सकते हैं. जब ममता ने दुस्साहस करने वाले दिनेश त्रिवेदी, को हटाने के लिए कहा तो मनमोहन सिंह ने घुटने टेकते हुए उनकी मांग मान ली.
ममता कम्युनिस्टों से बंगाल जीतने के बाद से ही दिल्ली पर कहर बरपा रही हैं. उनकी हर सनक, हर झ्ल्लाहट शक्ति का प्रदर्शन है क्योंकि उनके पास 19 सांसद हैं. खस्ताहाल यूपीए सरकार को सत्ता में बने रहने के लिए उनका समर्थन जरूरी है. ममता जब चाहेंगी कि भूमि अधिग्रहण विधेयक में संशोधन किया जाए तो संशोधन निश्चित रूप से होगा.
जब वे बांग्लादेश के साथ तीस्ता जल बंटवारे पर अपनी असहमति से प्रधानमंत्री को शर्मसार करना चाहेंगी तो मनमोहन उनके बिना ढाका जाएंगे. जब वे राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में शामिल होना नहीं चाहेंगी, नहीं शामिल होंगी. जब वे समान विचार वाले दूसरे लोगों के साथ रिटेल में विदेशी निवेश का विरोध करेंगी तो केंद्र अपनी योजना को ठंडे बस्ते में डाल देगा. जब वे मुकुल राय जैसे नेता को त्रिवेदी की जगह बिठाना चाहेंगी, तो बिठा देंगी. वे चाहती थीं कि रेल भाड़ा कम हो जाए, सो हो गया.
सो, अब यह बात मान ली गई है कि गुस्साई दीदी को यूपीए सरकार में दखलंदाजी की पूरी आजादी है. लेकिन यूपीए सरकार को अपनी मर्जी से कुछ करने की आजादी नहीं है. दीदी ऐसा कर सकती हैं क्योंकि वे शिखर पर खड़ी हैं और यूपीए मरणासन्न पड़ा है. यदि वे एक उतावले जन नेता की परम शक्ति की मूर्त रूप हैं तो यूपीए बिखरने की कगार पर खड़े घर की तरह है. वे नए जोश से भरे मित्र दलों की प्रत्यक्ष प्रतिनिधि हैं जो हमला करने के लिए तैयार तो हैं, लेकिन मारने के लिए नहीं.
मरा हुआ यूपीए सहयोगी दलों के हितों को पूरा नहीं करेगा, लेकिन दिल्ली में लड़खड़ाती, छटपटाती, प्राणों की भीख मांगती सरकार उनकी हर ख्वाहिश पूरी करेगी. वे जो भी कीमत चाहेंगे, थोड़ी-सी सौदेबाजी से मिल जाएगी. इसकी बेहतरीन मिसाल योजना आयोग के 19 मार्च के फैसले पर उनका रोष है. योजना आयोग ने शहरी क्षेत्रों में गरीबी रेखा को 2011 के 32 रु. प्रति व्यक्ति से घटाकर 28 रु. और ग्रामीण क्षेत्रों में 26 रु. से घटाकर 22 रु. करने का फैसला किया था.
नई कसौटी दर्शाती है कि गरीबी घटी है. वर्ष 2004-05 में 37 फीसदी आबादी गरीब थी जो 2009-10 में घटकर लगभग 30 प्रतिशत पर आ गई. समाजवादी पार्टी (सपा) के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने 21 मार्च को संसद के बाहर कहा, ‘इसके लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जिम्मेदार हैं क्योंकि वे योजना आयोग के अध्यक्ष हैं. उन्हें योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया को पद से हटा देना चाहिए. आंकड़े पूरी तरह से गलत हैं.
यूपीए के घटक दल ऐसे समय में आक्रामक हुए हैं जब भारत की जनता सत्ता-विरोधी मूड में है. इस महीने के शुरू में उत्तर प्रदेश का स्पष्ट जनादेश और 21 मार्च के उप-चुनाव नतीजे इस बात के संकेत हैं कि सत्ताधारी पार्टियों के खिलाफ लोगों में रोष है. यूपीए के घटक दल उसके बिल्कुल कमजोर होने पर हमला करना चाहते हैं. और यूपीए आज जितना कमजोर है, उतना पहले कभी नहीं रहा. लेकिन इस रणनीति में ममता अकेले नहीं हैं. यह बात दीगर है कि वे सबसे मुखर हैं.
लोकसभा में 19 मार्च को राष्ट्रपति के अभिभाषण के तुरंत बाद जब मनमोहन सिंह ने सबको खुश करने वाला जवाब दिया तो राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के अध्यक्ष शरद पवार ने कहा कि वे प्रधानमंत्री की कुछ टिप्पणियों से आहत हैं. प्रधानमंत्री ने कहा था, ‘मेरे ख्याल से माननीय सदस्य भी महसूस करते हैं कि हमारी गठबंधन सरकार होने के कारण मुश्किल फैसले लेना और भी मुश्किल हो जाता है. हमें सर्वसम्मति बनाए रखने की जरूरत को ध्यान में रखते हुए नीति बनानी पड़ेगी.’
यह घटक दलों के खिलाफ कोई कड़ा बयान नहीं था, फिर भी आम तौर पर शांत रहने वाले मराठा नेता आहत हो गए. एक दिन बाद, पवार ने मीडिया से कहा कि उनकी पार्टी के कुछ सदस्यों ने उनसे शिकायत की कि अन्य साझीदारों के साथ एनसीपी को भी बेमतलब निशाना बनाया गया जबकि वह किसी तरह की परेशानी खड़ी नहीं करती.
पवार ने कहा, ‘एनसीपी पिछले 7-8 वर्षों से कांग्रेस के साथ है, लेकिन एक भी ऐसी मिसाल नहीं है जब हमने गैर-जिम्मेदाराना तरीके से व्यवहार किया हो. हमने संसद या कैबिनेट की बैठकों का कभी बहिष्कार नहीं किया है. जब हम नीतिगत मुद्दों पर चर्चा के लिए बैठते हैं तो मतभेदों का होना स्वाभाविक है. लेकिन एक बार कैबिनेट के फैसला ले लेने पर हमने सार्वजनिक रूप से उसका विरोध कभी नहीं किया. प्रधानमंत्री के सपाट बयान से हम आहत और दुखी हैं.’ यूपीए को समर्थन देने के आठ साल में यह पहला मौका है जब पवार ने अपनी पीड़ा व्यक्त की है.
पवार लगभग सभी नीतियों पर सरकार के कट्टर समर्थक रहे हैं. इसके बावजूद उनका मानना है कि सरकार ने ऐसे कई मुद्दों पर उनके विचारों की अनदेखी कर दी है जो देश के कृषि मंत्री के रूप में उनके लिए महत्वपूर्ण हैं. खाद्य सुरक्षा विधेयक, कपास और प्याज के निर्यात पर प्रतिबंध लगाने का फैसला और बीटी-बैंगन को अनुमति देना इसकी मिसाल हैं. वाणिज्य मंत्रालय ने पवार से परामर्श किए बिना कपास के निर्यात पर प्रतिबंध लगाने का फैसला कर लिया. पवार ने गुस्से में जब इसका विरोध किया तो सरकार ने यह फैसला वापस ले लिया क्योंकि वह एक और घटक को नाराज नहीं करना चाहती थी.
लखनऊ से आ रही खबरें भी आश्वस्त करने वाली नहीं हैं. अपने 22 सांसदों के साथ सपा कांग्रेस को बाहर से समर्थन दे रही है. कुछ कांग्रेसी नेता निजी बातचीत में ममता की जगह मुलायम को लाए जाने की उम्मीद व्यक्त कर रहे थे. उनकी उम्मीद उस समय बढ़ गई जब मुलायम (और मायावती) ने 19 मार्च को राष्ट्रपति के अभिभाषण पर लाए गए धन्यवाद प्रस्ताव पर सरकार को बचा लिया. टीएमसी ने नेशनल काउंटर टेररिज्म सेंटर के मसले पर वाक आउट किया लेकिन मायावती और मुलायम ने सरकार का समर्थन किया.
लेकिन कांग्रेस की उम्मीद उस समय टूट गई जब उसी दिन दोपहर बाद मुलायम ने कहा कि उनकी दिलचस्पी ममता की जगह लेने में नहीं है. उन्होंने सवाल किया, ‘एक साल के लिए सरकार में शामिल होने की क्या तुक है?’ उन्होंने स्पष्ट किया कि भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए वे सरकार को बाहर से मुद्दे पर आधारित समर्थन देते रहेंगे.
मुलायम सिंह ने ‘एक साल’ क्यों कहा? सरकार के तो अभी दो साल बचे हैं. क्या यह कोई चूक है या कोई संदेश? एक सपा नेता कहते हैं, ‘देखिए, जब हमने उन्हें परमाणु समझौता प्रस्ताव पर बचाया था तो उसके बाद उन्होंने हमारे साथ कैसा बर्ताव किया. हम लोकसभा चुनाव में उनके साथ गठजोड़ करना चाहते थे, लेकिन उन्होंने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई.’ मुलायम के इनकार में एक महत्वपूर्ण संदेश छिपा हैः यूपीए 2 की सरकार अब सत्ता में नहीं है. वह वहां केवल बनी हुई है और बाहर जाने की तैयारी कर रही है.
घटकों के असंतोष की दूसरी वजह राहुल गांधी हैं. बीमारी के कारण सोनिया आराम कर रही हैं, ऐसे में कांग्रेस अपने मित्र दलों को ठीक से नहीं संभाल पा रही है. चाहे एम. करुणानिधि हों या ममता, सोनिया सबके साथ व्यक्तिगत संबंध बनाए रखने में माहिर हैं. ममता 2011 में अपनी जीत के बाद दिल्ली आने पर सबसे पहले सोनिया से मिलीं. सोनिया ने उन्हें गले लगाया. संवाददाताओं ने जब ममता से इसके बारे में पूछा तो उनका जवाब था, ‘राजीव गांधी के परिवार के साथ मेरे बहुत अच्छे संबंध हैं.’ लेकिन राहुल के साथ उनकी घनिष्ठता नहीं है. राहुल ने उमर अब्दुल्ला को छोड़ किसी भी क्षेत्रीय नेता के साथ निजी संबंध बनाने की पहल नहीं की.
घटक दलों का शक्ति प्रदर्शन इस बात का भी संकेत है कि कांग्रेस में चुनाव जीतने की क्षमता खत्म होती जा रही है. राज्य स्तर पर कांग्रेस से गठबंधन करना चुनाव जीतने की रणनीति नहीं रह गई है. राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) के कुछ नेताओं का मानना है कि यदि उसने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस से गठबंधन नहीं किया होता तो विधानसभा चुनाव में पार्टी को कुछ और सीटें मिलतीं. एनसीपी का मानना है कि वह गोवा में कांग्रेसी मुख्यमंत्री के खिलाफ जन आक्रोश का शिकार हुई. महाराष्ट्र से एक एनसीपी विधायक कहते हैं, ‘एनसीपी-कांग्रेस गठबंधन गोवा में कांग्रेस के कारण हारा.’
रालोद सरकार में अपना एक कैबिनेट मंत्री होने के बावजूद विपक्ष में बैठता है. राष्ट्रपति के अभिभाषण पर वोट के दौरान नागरिक उड्डयन मंत्री अजित सिंह को वहां से दौड़कर अपनी निर्धारित सीट पर जाना पड़ा. संसदीय कार्य मंत्री पवन बंसल घटक दलों के साथ हफ्ते में कम-से-कम तीन बार समन्वय बैठक करने की बात करते रहे हैं, लेकिन उन्हें खुद अपने में सुधार लाने की जरूरत है. मसलन, उन्हें सबसे पहले संसद में अपने सीटिंग चार्ट को दुरुस्त करना होगा.
एनसीपी के एक सांसद कहते हैं, ‘कांग्रेस को सरकार के साथ अपनी निजी जागीर जैसा बर्ताव करना बंद कर देना चाहिए. ममता इसीलिए नाराज हैं. गठबंधन का अर्थ है अनुपात के अनुसार सत्ता में भागीदारी. कांग्रेस सोचती है कि हमें मंत्री बनाकर उसने हमारे ऊपर उपकार किया है. एक भी ऐसी मिसाल बता दीजिए जब घटक दलों की अनुशंसा पर किसी को राज्यपाल, राजदूत या किसी आयोग का अध्यक्ष बनाया गया हो. कांग्रेस ने सब अपने पास रखा है.’
अब कांग्रेस अपने साझीदारों, खास तौर पर ममता के सामने घुटने टेक कर ही सत्ता में बनी रह सकती है. ममता जल्दबाजी में हैं. उनके क्रोध का वेग दिल्ली में दबाव से नहीं बल्कि बंगाल से निर्धारित होता है. उन्होंने भले ही पिछले साल दुनिया के एक सबसे लंबे कम्युनिस्ट शासन को हरा दिया हो, लेकिन चतुर राजनीतिज्ञ होने के कारण वे जानती हैं कि सत्ता में तीन दशकों तक उनका रहना नामुमकिन है. बंगाल के ग्रामीण इलाकों में उन्हें काम करने वाली महिला माना जाता है.
वे कम्युनिस्टों की खाली की गई जगह, राजनीति के वाम पक्ष से शासन करती हैं. यहां तक कि रहन-सहन में भी वे औसत कॉमरेड को शर्मसार कर सकती हैं. वे अपने ट्रेडमार्क कॉटन की मुड़ी-तुड़ी साड़ी और रबड़ की चप्पल में संन्यासिनी समाजवादी लगती हैं. इसलिए जब त्रिवेदी संसद में ‘गरीब-विरोधी’ रेल बजट पेश कर रहे थे तो दीदी बहुत दूर, अपने मजबूत गढ़ नंदीग्राम में थीं और लोगों के साथ अपने रिश्ते को मजबूत बना रही थीं. उन्होंने त्रिवेदी के बर्खास्त किए जाने की घोषणा एक जनसभा में की.
ममता अपने परंपरागत दुश्मन मार्क्सवादियों की हर चाल को भांप सकती हैं. अपने गैर-भरोसेमंद साझीदार कांग्रेस से वे सजग रहती ही हैं. ममता जानती हैं कि कांग्रेस की योजना कम्युनिस्ट विरोधी जगह पर कब्जा करना और पश्चिम बंगाल में अपनी सरकार बनाना है. उसकी यह योजना चाहे जितनी महत्वाकांक्षी हो, लेकिन यह तेजतर्रार मुख्यमंत्री अब तक कांग्रेस पर बीस ही साबित हुई हैं. ममता को अपनी धुन पर कांग्रेस को नचाते रहना होगा. इसी से कांग्रेस की कमर टूटेगी.
-साथ में भावना विज-अरोड़ा, किरण तारे और लक्ष्मी कुमारस्वामी