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मैथिली के भाषा होने पर विवाद किसने खड़ा किया?

मैथिली को बोली मानकर इसकी अवज्ञा के पीछे की क्या राजनीति है? भारत जैस बहुभाषी देश में हर भाषा के स्वतंत्र अस्तित्व से किसे दिक्कत है? कुछ लोग जरूर  मैथिली को ब्राह्मणों और कायस्थों की भाषा मानने की जिद करते हैं पर इसका कारण है अकादमियों और संस्थानों के तंत्र पर इन दो जातियों का वर्चस्व. बहुत सारे मैथिल ही मैथिली को बोली और ब्राह्मणों की भाषा मानते हैं, जो उनकी मैथिली से नहीं बल्कि सामाजिक-भौगोलिक नाराजगी को व्यक्त करता है. 

मैथिली भाषा पर विवाद
मैथिली भाषा पर विवाद
अपडेटेड 24 अप्रैल , 2018

एक हिंदी अखबार के ‘संवादी’ कार्यक्रम में मैथिली भाषा को लेकर बडा विवाद पैदा हो गया है. उस पर कुछ गंभीर टिप्पणी करने से पहले इन तथ्यों को पढ़ा जाना चाहिए: 

1. सन् पचास के दशक में बाबा नागार्जुन और हिंदी के बड़े आलोचक रामविलास शर्मा के बीच मैथिली को लेकर लंबी बहस चली थी और नागार्जुन के तर्कों से रामबिलास शर्मा अंतत: निरुत्तर हो गए थे. 

2. बिहार के भूतपूर्व मुख्यमंत्री और आमलोगों के बीच सर्वाधिक लोकप्रिय नेता स्व. कर्पूरी ठाकुर ने सन् 1977 में अपनी मंत्रिपरिषद की तरफ से प्रस्ताव भेजकर केंद्र से मैथिली को संविधान में शामिल करने की मांग की.

3. अटल बिहारी वाजपेयी ने सन् 1975 में मैथिली को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने का समर्थन किया और कहा कि मैथिली, मैथिली है-वो हिंदी नहीं है. 

उपर्युक्त उक्तियां आधुनिक भारत के तीन महान साहित्यिक और राजनीतिक विभूतियों के हैं. संभवत: मैथिली को ‘बोली’ मानने वाले अखबार को इतिहास के इन उद्धरणों से बेहतर जवाब कोई न दे पाए. 

खैर, बात वर्तमान की करें तो ये बात सच है कि मैथिली को बोली मानने वालों की संख्या बहुत है. मैथिली को ब्राह्मणों और कायस्थों की भाषा मानने वालों की संख्या भी बहुत है और इसका कारण है अकादमियों और संस्थानों के तंत्र पर इनका वर्चस्व. बहुत सारे मैथिल ही मैथिली को बोली और ब्राह्मणों की भाषा मानते हैं, जो उनकी मैथिली से नहीं बल्कि समाजिक-भौगोलिक नाराजगी को व्यक्त करता है. दूसरी तरफ वो गैर-मैथिली भाषी हैं जो इस चिंता में घुले रहते हैं कि उनकी भाषा को संविधान में शामिल नहीं किया गया और मैथिली संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल हो गई. यह दरअसल पड़ोसी की तरक्की से जलन और उनकी अपनी मेहनत और तर्क की कमी को दर्शाता है. वैसे भी भाषा की परिभाषाएं संख्याबल तय नहीं करता, उसके अपने तर्क होते हैं.

लेकिन किसी जाति या जाति-समूह का किसी भाषा के सांस्थानिक तंत्र पर नियंत्रण से वो भाषा खराब, कमतर या ‘बोली’ नहीं हो जाती. वह संस्थानों से बाहर भी करोड़ों लोगों की अभिव्यक्ति का माध्यम होती है और उनके दिलों में धड़कती है. उसमें उनके मुहावरे, उनके लोकगीत, उनकी लोकोक्तियां और न जाने कितनी परंपराएं सांस लेती हैं. फूको ने कहीं लिखा है, 'कोई भाषा सिर्फ संवाद का माध्यम भर नहीं है, बल्कि वो उसकी हजारों साल के इतिहास को सहेजने का माध्यम भी है.' निर्मल वर्मा भी लिखते हैं,  'हर शब्द एक इतिहास है! दुनिया भर में मातृभाषाओं पर खासकर कम संख्या वाली और गैर-सत्ताधारी (!) भाषाओं पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं. कम संख्या वाली आदिवासी भाषाएं लुप्त हो रही हैं और हजारों सालों का ज्ञान व अनुभव खत्म होने के कगार पर है.' 

लेकिन मैथिली को लेकर जब बात आती है तो इसे सिर्फ मैथिल ब्राह्मणों और कायस्थों से ही जोड़कर नहीं देखा जाता, बल्कि इसे हिंदी पट्टी में संभवत: हिंदी के प्रति पहला विद्रोह भी माना जाता है.

बहुत दिन नहीं हुए जब हिंदी के कुछ नामचीन और कम नामवर साहित्यकारों ने गांधी शांति प्रतिष्ठान में एक गोष्ठी की थी जिसमें हिंदी पट्टी की किसी भी भाषा को संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल होने के प्रति विरोध जताया गया था और उसमें मैथिली का नाम भी लिया गया था. कुछ लोगों के मत में हिंदी वो “ग्रांड प्रोजेक्ट” है जो इस देश में एकत्वकारी भूमिका ला सकता है और जिसका वादा हमारे पुरखों ने आजादी की लड़ाई के दौरान किया था. 

इसमें शक नहीं कि ऐसा मानने वाले कम या ज्यादा वाम व दक्षिण दोनों खेमों के लोग हैं. ये बात आंशिक रूप से सच है लेकिन पूरी सच भी नहीं है. आधुनिक हिंदी का विकास पिछली कुछ सदियों में हुआ है और देश में एकत्वकारी भूमिका का निर्वाह करने में उसकी भूमिका के पक्ष में बेशक कई बातें हैं जिसका बखान करना इस लेख का मकसद नहीं है. लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि किसी प्राचीन भाषा को महज इसलिए कमतर या अवमानना या विद्रोह की दृष्टि से देखा जाए कि वो हिंदी पट्टी या उसके बाहर का हिस्सा है और जहां कुछ जातियों का उसके संस्थानों पर वर्चस्व है. 

जातीय वर्चस्व कमोवेश हर भाषा में है और जो जातियां समाजिक-आर्थिक रूप से मजबूत हैं उनका भाषाओं के सांस्थानिक तंत्र पर भी वर्चस्व है.

यह सामाजिक रूप से प्रचंड प्रगतिशीलता का दावा करनेवाले तमिलनाडु में भी है और गुजरात में भी. समय के साथ वह वर्चस्व टूट भी रहा है और उसमें नए समूह प्रवेश भी कर रहे हैं. आंशिक रूप से ये तुलना ऐसी है जैसे वाम लेखक समूहों का हिंदी की अकादमियों और संस्थानों पर वर्चस्व है, लेकिन उस वजह से हिंदी कमतर या अति उत्तम नहीं हो जाती. बिहार के भूतपूर्व व स्व. मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर के मैथिली को दिए गए समर्थन की बात इस लेख में पहले ही हो चुकी है.

उससे पहले आपातकाल लगने से कुछ ही दिन पहले अटल बिहारी वाजपेयी ने 'मिथिला मिहिर' को दिए अपने साक्षात्कार में कहा था कि मैथिली हिंदी नहीं है, मैथिली तो मैथिली ही है. उन्होंने उसे संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल करने का वादा भी किया जिसे उन्होंने दशकों बाद निभाया भी. इस साक्षात्कार को पढ़कर कर्पूरी ठाकुर स्वयं भी मैथिली के पक्ष में साक्षात्कार देने को राजी हुए थे. लेकिन दुर्भाग्य से आपातकाल लग जाने व प्रेस पर सेंसरशिप की वजह से साक्षात्कार की योजना धरी की धरी रह गई. लेकिन आपातकाल के बाद जैसे ही जनता पार्टी की सरकार कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में बिहार में बनी, उन्होंने पहला प्रमुख काम मैथिली के समर्थन में केंद्र को पत्र लिखने का ही किया.

सन् पचास के दशक में जब पोट्टी श्रीरामलू ने एक अलग आंध्र प्रदेश के लिए अनशन करते हुए जान दे दी थी तो भारत के सत्ताधारी वर्ग को कुछ ऐसी ही चिंता थी. उन्हें लगता था कि क्षेत्रीय (!) भाषा के आधार पर बने राज्य देश की एकता के लिए खतरा हो सकते हैं क्योंकि कुछ ही दिन पहले मजहब के आधार पर देश का विभाजन हो गया था. 

लेकिन समय के साथ वो आशंका निर्मूल साबित हुई और पता चला कि ‘क्षेत्रीय भाषा’ ही असल राष्ट्रभाषा है और इस देश की सभी भाषाएं दरअसल राष्ट्रभाषा ही हैं. अलग तेलुगू भाषी प्रांत का मतलब राष्ट्र का विखंडन नहीं था, बल्कि उससे राष्ट्र मजबूत ही हुआ. हां, ये सच है कि हिंदी अपनी वजहों से आगे बढ़ी. 

ये भी याद रखना चाहिए कि जब सन् पचास के दशक में हिंदी को थोपने की कोशिश हुई, उसका कई प्रांतों में विरोध हुआ-लेकिन सन् नब्बे और दो हजार तक आते-आते उन्हीं प्रदेशों के लोग अपनी जरूरतों की वजह से हिंदी सीखने लगे! दूसरी तरफ हमारे पड़ोस पाकिस्तान और श्रीलंका में क्या हुआ? उसी दौर में उन्होंने बंग्लादेश में उर्दू थोपने की कोशिश की, महज दो दशकों में उनका मुल्क बंट गया. श्रीलंका ने सिंहली थोपने की कोशिश की और श्रीलंका दशकों तक रक्तरंजित रहा.

इतिहास के ये सबक बताते हैं कि मातृभाषाओं पर संस्थागत प्रहार के नतीजे ठीक नहीं होते. वे राष्ट्र में अलगाववाद के बीज भी बो देते हैं. लेकिन चिंता की बात उससे आगे की भी है. जब पूरी दुनिया में और खासकर भारत में भी कम आबादी वाली भाषाएं विलुप्त होने के कगार पर हैं, शब्द खत्म हो रहे हैं-तो स्थानीय भाषाएं व उनकी विविधता हमारे शब्दों को बचाने की सबसे बड़ी गारंटी है. याद रखिए मैथिली जैसी भाषाएं बची रहेंगी, तो हिंदी भी बची रहेगी. मैथिली जैसी भाषाएं वो फिक्स्ड डिपॉजिट हैं जो हिंदी जैसी भाषाओं को अपने सालाना ब्याज से समृद्ध रखे हुए है. 

हिंदी को अगर ढीलाढाला विशाल गठबंधन कहें तो मैथिली जैसी भाषाएं उस गठबंधन के मजबूत लेकिन स्वतंत्र घटक दल हैं जिसने भाषाओं के इस ‘ग्लोबल वार’ में सुरक्षा का दूसरा लेकिन मजबूत ढांचा बनाकर रखा है. आशा है, अखबार के कर्ताधर्ता इस व्यापक परिप्रेक्ष्य को समझेंगे.

(सुशांत झा इंडिया टुडे समूह के सोशल मीडिया टीम से जुड़े हैं)

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