राजेन्द्र शर्मा
ज़िंदगी कैसी है पहेली हाय जैसे सदाबाहर गीत के रचियता योगेश गौड ने कल जिंदगी की पहेली ढूंढते ढूंढते इस पहेली में समाहित हो गये . 19 मार्च 1942 को लखनऊ में जन्मे 78 वर्षीय गीतकार योगेश कल मुम्बई में एसवी रोड गोरेगांव के मधुबन अपार्टमेंट के अपने फलैट में आखिरी सांस ली.
अपने गीतों में जिंदगी का फलसफा ढूंढते और बताते रहे योगेश गौड लॉकडाउन के इन दिनों में एकदम अकेले थे. बेटा ऑस्ट्रेलिया में है और बहू मायके में. पीठ के दर्द से परेशान लॉकडाउन के इन दिनों में योगेश गौड लेटे ही रहते . शुभचिंतकों और प्रशंसकों के फ़ोन आते तो उठने में तकलीफ होने के कारण बहुत कम फोन उठाते.
'आनंद', 'मिली', 'रजनीगंधा', 'छोटी सी बात' आदि फ़िल्मों में कालजयी गीत रचने वाले गीतकार योगेश गौड़ ने कभी सोचा भी नही था कि वे फ़िल्मी गीतकार बनेगें. योगेश तो कवि बनना चाहते थे. जीवन के अन्तिम दिनों में वह खुद कहा करते थे कि अगर वे फ़िल्मी दुनिया में न आये होते तो सिर्फ़ कविताएं लिखते और उनका दर्जा रवींद्रनाथ टैगोर के बराबर होता.
उत्तर प्रदेश पीडब्ल्यूडी डिपार्टमेंट में इंजीनियर पिता के बेटे योगेश का इंटरमीडिएट की परीक्षा होने तक अभावों से कभी कोई वास्ता नही पडा था. योगेश पढाई-लिखाई करते और फुरसत में कविता रचते जिसे अपने दोस्त सत्यप्रकाश सत्तू को सुनाते किन्तु पिता के आकस्मिक निधन से योगेश की दुनिया बदल दी. रिश्तेदारों ने साथ नही दिया. ऐसी स्थिति में योगेश ने मुम्बई जाने का फैसला लिया. उनके फुफेरे भाई बृजेंद्र गौड़ फ़िल्म जगत में सक्रिय थे जिन्होंनें ‘कटी पतंग’ जैसी कई कामयाब फ़िल्म के संवाद लिखे थे.
योगेश जब लखनऊ से मुम्बई जाने के लिए ट्रेन में बैठे तो वह अकेले नही थे. उनके बचपन का दोस्त सत्यप्रकाश सत्तू उनके साथ था. दोनों मित्र बडे बडे सपने संजोये बृजेंद्र गौड़ से मिलने गये, पर एक झटके में ही सारे सपने चूर चूर होकर बिखर गये. फुफेरे भाई बृजेंद्र गौड़ ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई.
वहां से लौटते समय योगेश वापिस लखनऊ आने की सोचने लगे तो दोस्त सत्तू ने कहा कि नहीं योगेश, अब किसी भी हाल में वापस नहीं जाना है. तुमको फ़िल्म लाइन में ही कुछ करके दिखाना है. तुम्हारे लिए मैं नौकरी करूंगा और घर ख़र्च चलाऊँगा.
पांच सौ रूपए लेकर लखनऊ से मुंबई आए योगेश ने सत्य प्रकाश सत्तू के साथ पारसी पंचायत रोड, अंधेरी पूर्व की एक चाल में ठिकाना बनाया. कुछ दिनों बाद सत्यप्रकाश सत्तू को सीताराम मिल में नौकरी मिल गई. सत्तू ने योगेश को कभी नौकरी नही करने दी. योगेश जी मानते हैं कि अगर मेरा दोस्त सत्तू साथ नहीं होता तो मैं मुम्बई में टिक नहीं बन पाता. कई साल पहले सत्तू का निधन हो गया.
दोस्त सत्यप्रकाश सत्तू चाहते थे कि योगेश फ़िल्म लाइन में काम करें और योगेश की यह दिक्क्त कि उन्हें यह तक पता नहीं था कि गीत कैसे लिखा जाता है. तब तक उन्होंने एक भी गीत नहीं लिखा था. हाँ उन्हें दूसरों की कविताएं याद थीं और उन्हें वे बहुत अच्छी तरह पेश करते थे. अंधेरी पूर्व की जिस चाल में दोनों दोस्त रहते थे उसमें बिजली और पानी का कनेक्शन तक नहीं था. अंधेरी स्टेशन से पैदल चलकर चाल तक पहुंचने में 45 मिनट लगते थे.
चाल के इसे अंधेरे में उनके मन में गीत के अंकुर फूटे.
जिन दिनों योगेश गीतकार बनने के लिए निर्माताओं के दरवाज़े पर भटक रहे थे तभी एक दिन उनकी मुलाकात रॉबिन बनर्जी से हुई और उन्हें एक फ़िल्म मिल गई. रॉबिन बनर्जी ने इस फ़िल्म में योगेश के छः गीत रिकॉर्ड किए. पच्चीस रुपये प्रति गीत के हिसाब से उन्हें डेढ़ सो रुपए का पहला भुगतान प्राप्त हुआ. रॉबिन बनर्जी ने अपनी अगली सात फ़िल्मों के लिए भी गीत योगेश से ही लिखवाये परन्तु मेहनताना पच्चीस रुपये प्रति गीत ही रहा लेकिन दुनिया में नौसिखिये योगेश को इस अनुभव ने ट्यून पर गीत लिखना सिखाया.
फ़िल्म जगत में एक दौर ऐसा आया जब ‘हंसता हुआ नूरानी चेहरा’ (पारसमणि) और ‘तुमको पिया दिल दिया कितने नाज़ से’ (शिकारी) जैसे गीतों से योगेश को एक पहचान मिल चुकी थी परन्तु योगेश ज़ुल्फ़ों और अदाओं पर लिखते-लिखते परेशान हो चुके थे.
उनके भीतर बैठा कवि जिसे हालात ने फ़िल्मी गीतकार बना दिया था, नया कुछ करने को बेताब था. एक दिन उनकी मुलाकात गायिका सविता बनर्जी जो संगीतकार सलिल चौधरी की उनकी बीवी थीं, से हुई. सविता बनर्जी योगेश से बहुत प्रभावित थी.
सविता योगेश को संगीतकार सलिल चौधरी से मिलवाने ले गयी तो सलिल चौधरी किताबें पलटते रहे .उन्होंने योगेश से कोई बात नहीं की. निराश होकर योगेश वहां से चले आये .एक दिन अचानक गीतकार शैलेंद्र का निधन हो गया. सलिल दा शैलेंद्र से गीत लिखाना चाहते थे. तब सलिल चौधरी को योगेश की याद आई. सविता बनर्जी के ज़रिए उन्होंने योगेश को दोबारा बुलवाया परन्तु संगीतकार सलिल चौधरी से दाद पा लेना इतना आसान नहीं था .
एक दिन सलिल चौधरी ने हारमोनियम पर युवा गीतकार योगेश को एक धुन सुनाई और कहा कि योगेश तुम इस पर गीत लिखो. मैं एक घंटे के लिए बाहर जा रहा हूँ. थोड़ी देर में योगेश उनकी बताई हुई धुन भूल गए. उन्होंने सलिल दा के असिस्टेंट से अनुरोध किया कि मुझे वो धुन बता दीजिए. सहायक ने लगभग झिड़कते हुए कहा कि तुमसे यह काम नहीं होगा. यहां शैलेंद्र, गुलज़ार और आनंद बख़्शी जैसे बड़े बड़े लोग आते हैं.
अपमानित योगेश वहां से उठकर बस स्टॉप पर आ गए. बस का इंतज़ार करते करते अचानक उन्हें सलिल दा की धुन याद आ गई. उन्होंने गीत लिखा और वापस सलिल दा के पास आए. सलिल दा ने गीत सुना तो उछल पड़े. ज़ोर से बोले- सबिता, इस नौजवान ने बहुत अच्छा गीत लिखा है.
सलिल दा के असिस्टेंट से अपमानित होकर उसे कोई उल्टा जबाब देने के बजाय योगेश ने अपनी पोजीटिव सोच के दम पर 'कहीं दूर जब दिन ढल जाए' और 'ज़िंदगी कैसी है पहेली हाय' जैसे कालजयी गीत रच डाले . 1971 में रिलीज हुई फ़िल्मी आनंद में इन दो गीतों को छोडकर शेष गीत शायर गुलजार ने लिखे थे, परन्तु यह दोनों कालजयी गीत गुलजार के गीतों पर भारी पडे .
बुलंदियों पर पहॅुंच कर भी गीतकार योगेश अपने बचपन के दोस्त सत्तू को कभी नही भूले, बल्कि सत्तू की दोस्ती को उन्होनें अपने जीवन में आत्मसाध किया . यारबाश तबियत के योगेश गौड दोस्ती में नफा नुकसान के गणित से दूर रहकर बस दोस्ती निभाने के कायल थे.
एक जमाने में योगेश और गीतकार अनजान दोंनों ही संघर्ष कर रहे थे . दोनों की दोस्ती हो गयी. एक दिन योगेश ने संगीतकार रॉबिन बनर्जी से कहा कि मैं गीतकार अनजान के साथ जोडी बनाकर काम करना चाहता हूं. रॉबिन बनर्जी ने उन्हें समझाया कि अब तुम्हें एक गीत के लिए सौ रुपये मिलते है. छ: गीतों के लिए छह सौ रुपये मिलेगें. क्या तुम चाहते हो कि तुम्हें तीन सौ रुपये ही मिले और तीन सौ रुपये अनजान के पास चले जायें. योगेश ने कहा हां .इसके बाद दोंनों ने मिलकर बीस-बाईस फ़िल्मों में जोडी बनाकर गीत लिखे और पर्दे पर दोंनों का नाम गीतकार योगेश अनजान आता था .
कहीं दूर जब दिन ढल जाए (आनन्द), बड़ी सूनी सूनी है (मिली), कहाँ तक ये मन को अन्धेरे छलेंगे (बातों बातों में), रिमझिम गिरे सावन (मंज़िल), रजनीगन्धा फूल तुम्हारे (रजनीगन्धा), कई बार यूं ही देखा है (रजनीगन्धा), नैन हमारे, साँझ सखा रे (अन्नदाता), गुज़र जाएं दिन दिन दिन.. (अन्नदाता) जैसे कालजयी गीतों के रचियता योगेश के गीतों को सुनकर एक बात साफ तौर पर उभरती है कि गीतकार योगेश ने फ़िल्मों के लिए जो गीत लिखे, वे पारम्परिक गीतों से बिल्कुल अलग एक नई शब्दावली और नए भावबोध के साथ सामने आए.
उनके गीत अपनी ख़ूबसूरत ज़बान, इमैज़िनेशन और बेहतर सोच के साथ बिल्कुल अलग नज़र आते हैं. उनके गीतों में एक ऐसा जीवन दर्शन है जो दुखी मन पर मरहम लगाता है. लोगों को जीने की प्रेरणा देता है. अंधेरों में रोशनी की लकीर खींच देता है.
लॉकडाउन के इन अंधेरों दिनों में योगेश गौड के एक गीत की यह पंक्तियां "कहाँ तक ये मन को अंधेरे छलेंगे,उदासी भरे दिन कहीं तो ढलेंगे" बरबस याद आती रही है.
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