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शख्स‍ियत: लखनउवा हि‍मांशु की क़िस्सागोई की गिरफ्त में आया हावर्ड

लखनऊ के जाने माने दास्तानगो हिमांशु वाजपेयी को हार्वर्ड विश्वविद्यालय ने अपने एक अति विशिष्ट आयोजन में दास्तानगोई करने के लिए ख़ास तौर पर आमंत्रित किया है.

हिमांशु वाजपेयी
हिमांशु वाजपेयी
अपडेटेड 30 सितंबर , 2020

लखनऊ की क़िस्सागोई अब विश्व-प्रसिद्ध हार्वर्ड विश्वविद्यालय में धूम मचाएगी. शहर के जाने माने दास्तानगो हिमांशु वाजपेयी को हार्वर्ड विश्वविद्यालय ने अपने एक अति विशिष्ट आयोजन में दास्तानगोई करने के लिए ख़ास तौर पर आमंत्रित किया है. '2020 हार्वर्ड वर्ल्ड वाइड वीक' के अन्तर्गत होने वाले इस आयोजन का नाम है '24 आवर्स ऑफ हार्वर्ड' (24hH). जिसमें आगामी 8 अक्तूबर को हिमांशु वाजपेयी वर्चुअली दुनिया भर के दर्शकों के सामने अपनी क़िस्सागोई पेश करेंगे. डेढ़ घंटे के इस क़िस्सागोई सत्र का शीर्षक है- “ख़ुसरौ दरिया प्रेम का: दक्षिण एशियाई परंपराओं में विश्व-बंधुत्व एवं सम्मिलन” इस सत्र में हिमांशु तूती-ए-हिन्द अमीर ख़ुसरौ की ज़िन्दगी एवं शाइरी पर केंद्रित क़िस्सागोई करेंगे.

ख़ास बात यह है कि इस सत्र में जाने माने अन्तरराष्ट्रीय गायक और लेखक अली सेठी और हार्वर्ड के प्रोफेसर अली असानी भी हिमांशु के साथ होंगे. हिमांशु वाजपेयी अमीर ख़ुसरौ के क़िस्से सुनाएंगे, अली सेठी उन क़िस्सों के दरमियान में ख़ुसरौ का कलाम गाएंगे और प्रोफेसर असानी दर्शकों के लिए इन क़िस्सों और कलाम की अकादमिक व्याख्या पेश करेंगे. इस संगीतमय क़िस्सागोई के तुरंत बाद तीनो प्रस्तुतकर्ता दुनिया भर के दर्शकों के साथ एक लाइव प्रश्नोत्तर सत्र में भी शामिल होंगे, जहां वे ख़ुसरौ से जुड़े सवालों का जवाब देंगे.

कोरोना महामारी के चलते यह पूरा आयोजन वर्चुअली ही होगा लेकिन इसका लाभ यह है कि दुनियाभर के लोग एक साथ इसमें शामिल हो सकेंगे. हार्वर्ड विश्वविद्यालय के इंडिया कन्ट्री डायरेक्टर संजय कुमार ने बताया, “जाने माने कलाकार हिमांशु वाजपेयी और अली सेठी द्वारा दी जाने वाली ये प्रस्तुति अमीर ख़ुसरो की कविताओं में छिपे साझी ऐतिहासिक धरोहर एवं मिली जुली रिवायतों के संदेश को उजागर करेगी. कव्वाली और दास्तानगोई जैसी दो महत्त्वपूर्ण विधाओं से सजी ये प्रस्तुति आज के समय में बहुत अहम है, जब दक्षिण एशिया में अलग अलग आधारों पर दूरियां बढ़ रही हैं.” क़िस्सागो हिमांशु वाजपेयी ने बताया “हार्वर्ड की प्रतिष्ठा दुनिया भर में है, ये प्रोग्राम हार्वर्ड का अति महत्त्वपूर्ण प्रोग्राम है, जिसके लिए मुझे याद किया जाना दिल को एक तसल्ली देता है. अपनी कला के ज़रिए मैने हमेशा हिन्दुस्तान और ख़ासतौर पर अपने शहर लखनऊ की महान संस्कृति को उजागर करने की कोशिश की है, और हार्वर्ड के मंच पर भी मैं यही करने जा रहा हूं. भारतीय उपमहाद्वीप के भाषा, साहित्य और संगीत में ख़ुसरौ का अविस्मरणीय योगदान है.”

32 साल के हिमांशु वाजपेयी देश के जाने माने दास्तानगोई कलाकारों में से एक हैं. देश विदेश में उनके अनगिनत चाहने वाले हैं. दास्तानगोई यानी उर्दू में ख़ास अंदाज़ की लंबी कहानियां सुनाने की कला. ये वाचिक परंपरा से जुड़ी कला है जो मध्यकाल में अपने शबाब पर थी लेकिन 1928 के आस पास ख़त्म हो गयी. 2005 में उर्दू आलोचक शम्सुररहमान फ़ारूक़ी और उस्ताद महमूद फारूक़ी की कोशिशों से ये कला दोबारा ज़िंदा हुई. बाद के वर्षों में जो युवा जी-जान से इस कला से जुड़े उनमें हिमांशु वाजपेयी प्रमुख हैं. क़िस्सागोई को पूर्णकालिक व्यवसाय के बतौर मान्यता दिलाने में हिमांशु वाजपेयी ने अहम भूमिका निभाई है. पुराने लखनऊ के राजा बाज़ार इलाके में पैदा हुए और पले बढ़े हिमांशु वाजपेयी की शोहरत एक ख़ालिस लखनउवा शख़्स की है. वे लखनऊ के इतिहास, संस्कृति आदि को अपने ख़ास अंदाज़ में लोगों तक ले जाते हैं. उनके पास बेशुमार कहानियां हैं. नई-पुरानी, छोटी-बड़ी, हंसाने वाली, रुलाने वाली...हर तरह की कहानियां. जब वे कहानी सुनाते हैं, तो समय, संवादों, चरित्रों और घटनाओं को जीवित कर देते हैं और सुनने वाले भी उसी कहानी के किरदार बन जाते हैं.

काकोरी कांड और क्रांतिकारियों की दास्तान, गांधी जी की दास्तान, फलों के राजा आम की दास्तान, कैफ़ी आज़मी की दास्तान, आदि उनकी कुछ मशहूर दास्तानें हैं. हिंदुस्तान के अलग अलग शहरों में सत्तर से ज्यादा शो करने के अलावा वो तुर्की, संयुक्त अरब अमीरात और सिंगापुर आदि में अलग अलग जगह पर कई शो कर चुके हैं. इसी साल वो नेटफ्लिक्स की अति-लोकप्रिय सीरीज़ ‘सेक्रेड गेम्स’  के सीज़न 2 में भी दास्तान सुनाते नज़र आए हैं. फरवरी 2020 में राष्ट्रपति भवन दिवस के मौके पर राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी लखनऊ के क़िस्सों पर आधारित उनकी प्रस्तुति का लुत्फ़ लिया था एवं उन्हें सम्मानित किया था. लखनऊ के क़िस्सों पर आधारित उनकी किताब “क़िस्सा किस्सा लखनउवा” हिन्दी में बेस्टसेलर रही है.      

मध्यम वर्गीय परिवार से आते हुए, रंगकर्म का बिल्कुल भी अनुभव या बैकग्राउंड न होते हुए भी ख़ुद को फुल टाइम प्रोफेशनल दास्तानगो के बतौर कामयाब बना पाना उनके लिए इतना आसान भी नहीं था. दास्तानगोई शुरू करने से पहले हिमांशु काफ़ी वक्त तक पत्रकारिता कर चुके थे. पत्रकारिता से दास्तानगोई में कैसे आए इसका जवाब देते हुए हिमांशु बताते हैं, "मेरे दोस्त मरहूम अंकित चड्ढा, जो हमारी पीढ़ी के सर्वश्रेष्ठ और सर्वोत्तम दास्तानगो रहे हैं, मुझे हाथ पकड़कर दास्तानगोई में ले आए. मैं जो जिस तरह कहना चाहता था, पत्रकारिता में वो कहना मुश्किल हो रहा था, एक निराशा थी मन में. इसी वक़्त अंकित ने कहा और फिर बार बार कहा कि आप दास्तान क्यों नहीं करते, ये भी तो एक ज़रिया है इज़हार का. मैं आपको सब सिखा दूंगा. और फिर अंकित ही मुझे उस्ताद महमूद फ़ारूकी के पास ले गए और 2013 में उनकी दास्तानगोई की वर्कशॉप ज्वाइन करवाई. इस तरह ये सफ़र शुरू हुआ." 

2014 में अंकित के साथ उनकी सुनाई पहली दास्तान ही उनकी ज़िंदगी का टर्निंग प्वाइंट साबित हुई. इसको सुनाने में उन्हें जो आनंद आया और सुनने वालों का जो रिस्पॉन्स मिला उसके बाद हिमांशु ने तय कर लिया कि अब और कुछ नहीं करना, फुल टाइम सिर्फ़ दास्तान सुनानी है. जब उन्होंने अपने घर में बताया कि वो आगे नौकरी नहीं करना चाहते और दास्तानगोई को फुल टाइम प्रोफेशन के तौर पर अपना रहे हैं तो घर में चिंता पसर गई. उनके पिता जो कि एक सरकारी अध्यापक और किसान हैं, शुरुआत में चाहते थे कि वे ये काम करें लेकिन किसी नौकरी के साथ करें. लेकिन धीरे-धीरे जब कामयाबी मिलने लगी तो उनकी चिंता कम होती गयी. इन दिनों हिमांशु वो कुछ नई दास्तानें तैयार करने में मसरूफ़ हैं, जिनमें से एक उनके महबूब शहर लखनऊ पर है. साथ ही उनका सपना सड़क के रास्ते देश भर में घूम घूम कर दास्तान सुनाने का भी है. वे कहते हैं कि दास्तानगोई का मुस्तकबिल रौशन है क्योंकि भारत कहानियों का गहवारा है. ये सरज़मीन हज़ारों साल से कहानियों और कहानी सुनाने वालों को नवाज़ती आ रही है. उनकी कामयाबी की वजह भी यही है.

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