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स्त्री संघर्ष की सीमित गाथा

हम लड़कियां जिनकी जिंदगी का पहला मकसद अच्छे से दूल्हे की प्यारी पत्नी बनने का होता है...'' मैत्रेयी पुष्पा की इन पंक्तियों को पढ़कर रघुवीर सहाय की ''पढ़िए गीता, बनिए सीता...'' वाली कविता याद आ जाती है. एक स्त्री आजाद भारत में आजाद होने के लिए कब तक लड़ती रहेगी?

अपडेटेड 30 जुलाई , 2011

उपन्यास
गुनाह-बेगुनाह
मैत्रेयी पुष्पा
राजकमल प्रकाशन,
नई दिल्ली-02
कीमतः 350 रु.

पठनीयता शबाब परः मैत्रेयी पुष्पा

हम लड़कियां जिनकी जिंदगी का पहला मकसद अच्छे से दूल्हे की प्यारी पत्नी बनने का होता है...'' मैत्रेयी पुष्पा की इन पंक्तियों को पढ़कर रघुवीर सहाय की ''पढ़िए गीता, बनिए सीता...'' वाली कविता याद आ जाती है. एक स्त्री आजाद भारत में आजाद होने के लिए कब तक लड़ती रहेगी?

स्त्री-मुक्ति की यही चिंता मैत्रेयी के, रिपोर्ताज शैली में लिखे गए नए उपन्यास गुनाह-बेगुनाह की मुख्य चिंता है. यह पहली नजर में तस्लीमा नसरीन के लज्‍जा जैसा दिखता है. जैसे कि विविध व्यक्तियों और घटनाओं को कथा-सूत्र में पिरोकर एक सामाजिक सर्वेक्षण तैयार कर दिया हो.

गुनाह बेगुनाह एक कथा की उपकथाओं से गुंथी कथा-माला सी दिखती है. दो मुख्य चरित्र किसी सूत्रधार की तरह आते हैं, वक्तव्यों/चिट्ठियों/ संवादों के जरिए कुछ घटनाओं का ब्यौरा देकर चले जाते हैं. वे अमूमन अपनी नहीं, किसी और की कहानी कहते रहते हैं.

यह कहानी है सालारपुर थाने में तैनात एक पुलिसकर्मी इला चौधरी की. कई उठा-पटक से गुजरती उसकी जिंदगी भारतीय पुलिस के चेहरे के पीछे के खौफनाक चेहरे को खोलती रहती है. कथा के क्लाइमैक्स पर इला का तबादला मेवात की रेतीली और करील की झाड़ियों से घिरे जुझारगढ़ थाने में कर दिया जाता है. पुरुष-समाज अपनी मूल प्रकृति में चट्टानी रूप रखने वाले स्त्री-समाज को भी किस तरह रौंद देता है, लेखिका ने इससे इस आशय का एक विराट बिंब तैयार किया है.

गुनाह बेगुनाह में कथा की शुरुआत तो पुरानी शैली की किस्सागोई से होती है पर प्लॉट के रवानी में आते-आते वह किसी सामाजिक सर्वेक्षण के कलेवर में बदल जाती है. जैसे कि लेखिका का मन विविध पात्रों की दशा-दुर्दशा बयान करने में ज्‍यादा रमने लगा हो.

फिर भी, पूरे उपन्यास में पठनीयता अपने शबाब पर है. भाषा बेबाक और तेवर पत्रकारिता वाला है. पाठक चौंकता उस वक्त है, जब मैत्रेयी अचानक कविताई करने लगती हैं. इला अपने प्रेमी-रूपी मित्र को कविताई में एक चिट्टी लिखती है.

पर उपन्यास पढ़ लेने के बाद भी जेहन में यह सवाल बना रह जाता है कि क्या लेखिका ने भारतीय पुलिस व्यवस्था को ही पुरुष-समाज मान लिया है या उसका इस्तेमाल सिर्फ एक प्रतीक के रूप में है? हालांकि मैत्रेयी का कथानक आज के भारतीय कस्बाई समाज के एक विशेष तबके की मुख्य चिंता से जुड़े सवालों से एक साथ जूझ्ता है. यह महत्वपूर्ण तथ्य है.

बावजूद इसके इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि पुलिसिया बर्बरता के बहाने अपनी बात कहने की लेखिका की शैली जहां एक ओर उपन्यास के फलक को सीमित करती है, वहीं दूसरी ओर अनुभवजन्य यथार्थ का अभाव पाठकों को कथानक के प्रति पूरी तरह से 'कन्विंस' नहीं कर पाता.

घटनाओं के ब्यौरे और कथानक में संवेदना-तत्व का अभाव उपन्यास की साहित्यिकी को कठघरे में खड़ा कर देते हैं.

कहीं ऐसा तो नहीं कि स्त्री-विमर्श पर लिखने वाली कुछ भारतीय लेखिकाओं ने भ्रमवश देह-विमर्श को ही स्त्री-विमर्श समझा लिया है.

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