1914-2012
साहसी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, जनता की डॉक्टर, स्त्री अधिकारों की चैंपियन और कम्युनिस्ट क्रांतिकारी लक्ष्मी सहगल का 23 जुलाई को 98 वर्ष की आयु में निधन हो गया. कानपुर के उस बारिश वाले दिन कानपुर मेडिकल कॉलेज के लॉन में उन्हें विदा करने आई भीड़ के सामने कैप्टन लक्ष्मी सहगल की पुत्रियों सुभाषिनी और अनीसा ने चिकित्सीय ज्ञान को आगे बढ़ाने के लिए उनकी देह कॉलेज को दान कर उनकी अंतिम इच्छा पूरी की.
कॉलेज के प्राचार्य ने इसे अभूतपूर्व दान बताते हुए इसके लिए अपनी गहरी कृतज्ञता व्यक्त की. जज्बाती माहौल में हुई अंत्येष्टि में भाग लेने वाले कुछ लोगों के दिमाग में यह एक सवाल था कि इस असाधारण महिला को श्रद्धांजलि देने के लिए केंद्रीय या राज्य सरकार का कोई प्रतिनिधि क्यों उपस्थित नहीं है. लेकिन खुद लक्ष्मी ने दिल्ली दरबार के इस अभद्र व्यवहार पर बस यूं ही अपने कंधे उचका दिए होते.
भारत की अंतिम महान महिला स्वतंत्रता सेनानी संरक्षण और आत्मधन्यता की राजनीति की कठोर विरोधी थीं, जिसके बारे में उनका मानना था कि स्वतंत्र भारत में राजनीति की यह शैली सत्ता की पहचान बन चुकी थी. यह कहा जा सकता है कि इन सत्ताओं से उनकी यह दूरी और भारत के लोगों से उनके सुखों और दुखों, उनके रोजमर्रा के संघर्षों से नजदीकी उनकी अंतिम यात्रा में प्रतिबिंबित हो रही थी- पहले की अनुपस्थिति और दूसरे की भारी उपस्थिति.
उन ऐतिहासिक घटनाओं में, जब उन्होंने नेताजी की झंसी की रानी रेजीमेंट का नेतृत्व किया और वे ब्रिटिश फौज से लड़ीं, अपनी भूमिका को लेकर उनमें किसी व्यक्तिगत महात्वाकांक्षा का नितांत अभाव और निढाल कर देने वाली विनम्रता उनकी सबसे असाधारण विशेषताओं में एक थी. इससे उनके द्वारा किया गया एक और मूलभूत चुनाव परिलक्षित होता है और वह है गरीबों की सेवा में अपनी जिंदगी बिताने का निर्णय. यह किसी भी तरह से 'दान' पर आधारित दृष्टिकोण नहीं था. यह दुनिया को देखने का एक अत्यंत राजनैतिक तरीका था. उनका इस बात पर गहरा विश्वास था कि जब तक शोषण और गरीबी की जिंदगी से भारत के निर्धनों को मुक्त नहीं करा लिया जाता और देश को चलाने में उनकी भी नहीं सुनी जाती, तब तक भारत की स्वतंत्रता की रक्षा नहीं की जा सकती.
'70 के दशक में वे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हुई थीं और ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक वूमंस एसोसिएशन की वे संस्थापक नेता थीं. वे ट्रेड यूनियनों में भी सक्रिय थीं. यह भी घर के भीतर निर्णय करने की स्वतंत्रता का एक दृष्टांत ही है कि उनके पति प्रेम सहगल जो आइएनए में उनके साथी सेनानी और एक राष्ट्रीय नायक होने के साथ-साथ 1947 के कु ख्यात लालकिला मुकदमे के आरोपी भी थे, उस मिल के प्रबंधन का एक हिस्सा थे जिसके बाहर उनकी पत्नी लक्ष्मी और बेटी सुभाषिनी हाथों में लाल झंडा उठाए धरना देती थीं.
कानपुर की अपनी साधारण-सी क्लीनिक से कभी किसी को उन्होंने लौटाया नहीं, वे डांटतीं, पुचकारतीं, सलाह देतीं और इस प्रक्रिया में अपने से बड़े स्त्री-पुरुषों से भी मम्मी का उपनाम पाया. यहां गरीबों के इलाज के लिए उन्होंने खुद को समर्पित कर दिया. वास्तव में उन्होंने अपने संपर्क में आने वाले लोगों की जिंदगी से अंधविश्वासों और बेमतलब के रिवाजों को खत्म करने के लिए संघर्ष करने वाले एक समाज सुधारक की भूमिका निभाई.
स्त्रियों के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए परिवार नियोजन में उनका दृढ़ विश्वास था और हम उस वक्त अक्सर हंसते-हंसते दोहरा हो उठते थे जब वे हमारे सामने उन पसंदीदा जुमलों को दुहराती थीं जिन्हें वे 'गैरजिम्मेदार मर्दों' के लिए अपने भाषणों में इस्तेमाल करती थीं.
वे जाति व्यवस्था से नफरत करती थीं और उसके खिलाफ उनका बोलना खासा आवेशपूर्ण होता था. वे हमेशा अंतरजातीय विवाह को प्रोत्साहन देती थीं और उनमें शामिल होने के लिए हमेशा तत्पर रहती थीं. बेईमानी या खराब राजनीति से सामना होने पर उनके पास शब्दों की कभी कमी नहीं पड़ती थी. इसकी एक सनसनीखेज मिसाल है कि कैसे बंबई की एक स्मृति सभा में जब एक प्रत्यक्षतः सांप्रदायिक राजनैतिक दल के नेता ने उनके पैर छूने चाहे तो उन्होंने अपने पैरों को पीछे खींच लिया और कहा कि नहीं रहने दीजिए. पहले जाकर अपने हाथों से खून पोंछकर आइए.
सन् 1992 के राष्ट्रपति चुनाव में वे वाम और कु छ समर्थक दलों की प्रत्याशी थीं. जब वे हार गईं तो यह उनका नुकसान नहीं था. नुकसान में भारत था जिसने ऐसी दमखम वाली महिला, एक प्रेरणादायक इंसान, सिद्धांतवादी तथा सच्चरित्र शख्स को अपने प्रथम नागरिक के रूप में पाने का अवसर गवां दिया था.
उनकी जिंदगी न्याय के लिए भारतीय जनता के संघर्ष का हिस्सा है. वे हमेशा अमर रहेंगी.
बृंदा करात राज्यसभा में माकपा की सांसद हैं