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कथाकाव्य: मिथकीय चरित्र के बहाने

समीक्ष्य कृति 'अभिनव पांडव' में उद्भ्रांत ने मुख्यतः युधिष्ठिर के मिथकीय चरित्र को समकालीन चेतना से संपृक्त करते हुए समसामयिक समस्याओं को पुरातनता की जड़ों से जोड़ा है और पारंपरिक कथाक्रम को समसामयिक अर्थविस्तार दिया है. 'महाभारत' हमारी जातीय चेतना की ऐसी कथा है जो 'रामायण' में अनुस्यूत 'आदर्श की चरम गाथा' के बरक्स 'यथार्थ का नग्न रूप' है.

अपडेटेड 10 जुलाई , 2011

अभिनव पांडव
उद्भ्रांत;
नेशनल पब्लिशिंग हाउस,
दरियागंज,
नई दिल्ली-2
कीमतः 300 रु.

युधिष्ठिर का रूपांतरणः उदभ्रांत

समीक्ष्य कृति 'अभिनव पांडव' में उद्भ्रांत ने मुख्यतः युधिष्ठिर के मिथकीय चरित्र को समकालीन चेतना से संपृक्त करते हुए समसामयिक समस्याओं को पुरातनता की जड़ों से जोड़ा है और पारंपरिक कथाक्रम को समसामयिक अर्थविस्तार दिया है. 'महाभारत' हमारी जातीय चेतना की ऐसी कथा है जो 'रामायण' में अनुस्यूत 'आदर्श की चरम गाथा' के बरक्स 'यथार्थ का नग्न रूप' है. रामस्वरूप चतुर्वेदी की बात को आगे बढ़ाते हुए कहा जा सकता है कि समस्त ''भारतीय जातीयता का पूरा विस्तार इन दो छोरों में समा गया है.'' उल्लेखनीय है कि उद्भ्रांत का कवि इन दोनों सिरों के बीच आवाजाही करता है.

वे एक तरफ 'त्रेता' और 'स्वयंप्रभा' लिखते हैं तो दूसरी तरफ 'अभिनव पांडव' और 'प्रज्ञावेणु'. 'त्रेता' में वे जहां उस युग के विविध स्त्री पात्रों के माध्यम से कथा के भीतर उतरते हैं और अब तक अनुद्घाटित कई स्त्री-पह्नों को ठीक ही केंद्रबिंदु में रखते हैं, वहीं 'अभिनव पांडव' में वे युधिष्ठिर के माध्यम से युद्धांत और अपराधबोधों को पकड़ने की कोशिश करते हैं.

लेकिन जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, 'अभिनव पांडव' में युधिष्ठिर का एक नया या कहें, आधुनिक रूप भी दिखाया गया है (और संभवतः इस अभिनवता का प्रतिपादन ही इस कृति का वैशिष्ट्य है) जो आत्मग्लानि की आग में जलकर अपने आत्मप्रकाश का साक्षात्कार करता है और अपने अंदर के महाभारत से जूझ्ते और उससे बाहर निकलते हुए एक आम नागरिक के रूप में जन-सामान्य के कल्याणार्थ कार्य करता है. महाभारत की प्रचलित कथा में किंचित्‌ फेरबदल करते हुए उद्भ्रांत यह संयोजन करते हैं कि युधिष्ठिर को 'दो घड़ी' के लिए नरक में रहने के बाद एक साधारण मनुष्य के रूप में मृत्युलोक में भेज दिया गया. यह यमराज द्वारा युधिष्ठिर को दी गई स.जा थी.

उल्लेखनीय है कि अपने इस नवीन विधान के रूपक के पीछे उद्भ्रांत राजसत्ता की जगह लोकसत्ता की स्थापना करते हैं. एक शक्तिशाली राजा से एक आम आदमी के रूप में युधिष्ठिर के रूपांतरण को मुख्यतः पुनर्जागरण के बाद धर्म और राज्‍यसत्ता के क्रमशः कमजोर/अप्रासंगिक पड़ते जाने की विश्वव्यापी घटना से एकमेक करके देखा जा सकता है.

संग्रह के अंतिम दो सर्गों 'यम-धर्म' और 'कल्कि-धर्म' को मिलाकर पढ़ें तो यह समझ्ते देर नहीं लगती कि उद्भ्रांत द्वापरकालीन 'राजसूय यज्ञ' को आधुनिक पूंजीवादी साम्राज्‍यवाद के विस्तार से इतर नहीं देख रहे और सत्ता की लिप्सा हो या धन के लिए होड़, हर युग में लड़े जाने वाले महाभारत के मूल में यही प्रवृत्तियां होती हैं.

एक साधारण नागरिक के रूप में युधिष्ठिर के अवतरण की कल्पना के मूल में अंध-उपभोक्तावाद का नकार और सादगीयुक्त जीवनशैली के निर्वहन का संदेश भी अंतर्निहित है. शोषितों और पीड़ितों के हक में लड़ने/उन्हें न्याय दिलाने और पृथ्वी को हर खतरे से बचाने और उसे अगली पीढ़ी तक सुरक्षित हस्तांतरित करने में ही इस 'अभिनव पांडव' की सार्थकता है.

इस कृति पर टिप्पणी करते हुए शिव कुमार मिश्र इसे जहां 'कथाकाव्य' और 'विचारकाव्य' कहते हैं, वहीं स्वयं रचनाकार इसकी सर्ग-बद्धीय व्यवस्था, 'द्वापर' से 'कलियुग' (आधुनिक) तक के इसमें सुदीर्घ युग-फलक का समावेशन, युधिष्ठिर जैसे राजा-नायक (खलनायक या कहें पददलित नायक के लक्षण सहित) और कृष्ण जैसे असाधारण चरित्र नायक के चरित्रचित्रण, कल्पना-यथार्थ के पारस्परिक संगुफन, कथ्य-प्रस्तुति की अभिनवता एवं जनसामान्य के हित में विकास की आकांक्षा एवं उसके लिए अभीष्ट संघर्ष आदि कई तत्वों के आधार पर 'अभिनव पांडव' को महाकाव्य की संज्ञा प्रदान करता है.

नरेश मेहता ने इलाहाबाद संग्रहालय में दिए अपने व्याख्यान (माध्यम अह्ढैल-जून, 2001) में महाकाव्य के परिवर्तित होते रूप और उसकी रचनादृष्टि पर काफी विस्तार से चर्चा की थी. उन्होंने कहा था, ''महाकाव्य काव्य की रचनात्मक दृष्टि का नाम है, स्वरूप का नाम नहीं.''

उद्भ्रांत भी युगानुरूप महाकाव्य के नए मानकों के गढ़े जाने पर बल देते हैं. उल्लेखनीय है कि आधुनिक हिंदी कविता के इतिहास में 'कामायनी', 'उर्वशी' जैसी कृतियों को सर्वमान्य रूप से महाकाव्य की कोटि में आने में सुचिंतित तर्क-योजनाओं से गुजरना पड़ा.

प्रस्तुत कृति के माध्यम से उद्भ्रांत ने 'महाकाव्य' के रूप और उसके पीछे की दृष्टि पर जो बहस छेड़ी है, वह आगे बढ़ाई जाएगी. और तब कदाचित्‌ हिंदी काव्य में प्रबंधात्मकता की ठहरी हुई परंपरा आगे बढ़ सकेगी और हिंदी कविता का महाकाव्यात्मक स्वरूप अपने समकालीन और आधुनिक संदर्भों में भी अपनी प्रासंगिकता व महत्ता बनाए रख सकेगा.

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