राज्य में आदिवासी जमीन की खरीद-बिक्री के नियमों को लेकर सियासत गरमा गई है. झारखंड हाइकोर्ट ने हाल ही राज्य सरकार को निर्देश दिए हैं कि छोटानागपुर कास्तकारी अधिनियम (सीएनटी एक्ट) की धारा 46 का वह कड़ाई से पालन कराए. इस धारा के मुताबिक आदिवासियों की जमीन का खरीदार आदिवासी ही हो सकता है. वह भी इस शर्त के साथ कि खरीदार उसी थाना क्षेत्र का मूल निवासी हो.
1908 में बने इस कानून में सरकार ने अब तक ढील दे रखी थी इसलिए गैर-आदिवासियों ने बड़ी संख्या में आदिवासियों की जमीन खरीदी. हाइकोर्ट के आदेश के बाद जमीन के उन सौदों पर भी तलवार लटक गई है, जो पहले हो चुके थे.
पिछड़े और अनसूचित जाति की जमीन के मामले में भी खरीदार को उसी जिले का मूल निवासी और उसी वर्ग का होना चाहिए. इन दोनों ही मामलों में जमीन की बिक्री संबंधित जिलों के उपायुक्त के आदेश के बगैर नहीं हो सकती. 2010 में तत्कालीन भूमि राजस्व सचिव संतोष कुमार ने जिले के उपायुक्तों को पिछड़ा और अनसूचित जाति की जमीन की खरीद-बिक्री से संबंधित कानून के प्रावधानों का कड़ाई से पालन करने का निर्देश दिया था. इसके साथ ही मामले ने सियासी रंग ले लिया. कुछ ही दिनों बाद प्रदेश सरकार ने एक परिपत्र जारी कर धारा 46 शिथिल करने का निर्देश दिया.
सरकार के इस निर्देश के खिलाफ विरोधी पार्टियां तुरंत सक्रिय हो गईं. झारखंड दिसोम पार्टी के अध्यक्ष सालखन मुर्मू ने जनहित याचिका दायर कर परिपत्र को निरस्त करने की मांग की. इसी याचिका पर हाइकोर्ट ने निर्णय दिया है. मुर्मू कहते हैं, ‘धारा 46 को शिथिल करना गलत है. संविधान की नौंवी अनुसूची में यह कानून शामिल है, जिसमें फेरबदल का अधिकार संसद को है न कि राज्य सरकार को.’
राज्य सरकार तब और मुश्किल में फंस गई जब कोर्ट के निर्देश के तीन दिन बाद एक अन्य याचिकाकर्ता दीवान इंद्रनील सिन्हा ने झारखंड के आदिवासी नेताओं द्वारा अधिनियम के खिलाफ आदिवासियों की जमीन खरीदने के मामलों में याचिका दायर कर जांच की गुहार लगाई. यही नहीं, सरकार के घटक दल झारखंड मुक्ति मोर्चा के मथुरा महतो, जिनके पास भू-राजस्व विभाग का जिम्मा है, ने यह कहा कि शिकायत मिलने पर पूर्व में किए गए पिछड़े और दलितों की जमीन के नियम विरुद्घ सौदों को निरस्त किया जा सकता है. इससे सरकार के माथे पर शिकन को और भी गहरा गई.
अब जमीन के खरीदादर उलझन में हैं. नियम की सख्ती के कारण वे जमीन तो खरीद ही नहीं सकते, पहले खरीदी गई जमीन अब बचाना भी मुश्किल दिख रहा है. शिक्षक रवींद्र झा की राय में, ‘नियम कड़ा करने से आदिवासियों को अपनी जमीन की अच्छी कीमत भी नहीं मिल पाएगी.’ मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा कहते हैं, ‘सरकार निर्णय का अध्ययन कर रही है. राजनैतिक दलों को संयम से काम लेना चाहिए. सरकार सभी वर्गों के हितों को ध्यान में रखेगी.’
सियासी दलों में 100 साल पुराने इस कानून में फेरबदल की जरूरत पर आम राय है. कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष प्रदीप बालमुचू और झारखंड विकास मोर्चा के बाबूलाल मरांडी जैसे प्रमुख आदिवासी नेता अधिनियम में बदलाव की पैरवी करते हुए कहते हैं कि आदिवासी जमीन पर थाने का प्रतिबंध हटाया जाना चाहिए ताकि राज्य के किसी हिस्से का आदिवासी किसी भी हिस्से में जमीन खरीद सके. मरांडी कहते हैं, ‘अब यह सोचना होगा कि नियम के खिलाफ हो चुके जमीन के सौदों को कैसे वैध किया जाए. थाने का प्रतिबंध भी हटाना चाहिए.’
इस मुद्दे पर जनजातीय सलाहकार परिषद (टीएसी) की बैठक में भी जमकर हंगामा हुआ. बैठक में इस बात पर सहमति बनी कि आदिवासी जमीन से जुड़ा थाने का प्रतिबंध हटा लिया जाए और परिषद के सदस्य साइमन मरांडी के नेतृत्व में एक टीम गठित हो जो आदिवासी जमीन की खरीद में अब तक हुए उल्लंघन के मामलों पर रिपोर्ट दे. हालांकि कई आदिवासी नेताओं का आरोप है कि टीएसी आदिवासी हितों की रक्षा के लिए कुछ नहीं कर रही.
बहरहाल, 25 जनवरी को आए, नियमों का कड़ाई से पालन करने के कोर्ट के निर्देश के बाद से उपायुक्तों के आदेश के बगैर पिछड़े और अनुसूचित जाति की जमीन की बिक्री पर रोक लगा दी गई. इसी के चलते आदेश के अगले ही दिन रांची के रजिस्ट्री कार्यालय में रजिस्ट्री के लिए आए 180 आवेदनों में से 110 लौटा दिए गए. जमशेदपुर और धनबाद में भी बड़ी संख्या में आवेदन लौटाए गए हैं.

