राज्यसभा चुनाव जब विधायकों के लिए जेब भरने का जरिया बन चुके हैं, ऐसे में एक शख्स ऐसा भी है जो इस डर्टी गेम से दूर रहने की ठाने हुए है. वह ऐसा व्यक्ति है जिसकी गाड़ी चोरी हुई तो गिरिडीह जिले में स्थित उसके पुश्तैनी गांव खमरा और विधानसभा क्षेत्र बगोदर की जनता ने एक लाख रु. चंदे में दे दिए ताकि उसे सहूलियत हो सके.
पिछले हफ्ते उनकी मां उनसे मिलने बस से रांची आईं और बस से ही वापस भी गईं. जब वे विधानसभा में बोलते हैं तो सत्ता पक्ष के पसीने छूटने लगते हैं. अपनी इन्हीं खूबियों की वजह से सीपीआइ (एमएल-लिबरेशन) विधायक 37 वर्षीय विनोद सिंह राज्य में खासी पहचान रखते हैं.
राज्यसभा चुनाव में हिस्सा न लेने पर वे कहते हैं, ‘मैंने कभी भी राज्यसभा मतदान में हिस्सा नहीं लिया. जब पैसा आपके वोट तय करे तो मैं इस गंदे खेल का हिस्सा नहीं बन सकता.’
वे झारखंड की राजनीति में एक अलग तरह की शख्सियत हैं. उन्होंने विधानसभा से कभी भी कोई गिफ्ट नहीं लिया. सदन में वे बेवजह हवा में मुट्टियां नहीं भांजते और न ही टेबल-कुर्सी उलटते हैं. वे सिर्फ ढेर सारे कागजों का पुलिंदा हवा में लहराते हैं.
उनका तकिया कलाम होता है, ‘मैं सदन का सिर्फ थोड़ा-सा वक्त लूंगा. मैं कोई सुनी-सुनाई बातें नहीं कर रहा हूं. मैं हवा में नहीं बोल रहा हूं.’ उन्हें सचमुच जमीनी हकीकत का पता होता है. इस बार उन्होंने लुकस मिंज नाम के एक मूक-वधिर लड़के को सुरक्षा बलों द्वारा तथाकथित फर्जी एनकाउंटर में मार दिए जाने का मामला विधानसभा में उठाया तो सरकार को मामले की उच्चस्तरीय जांच का आदेश देने के लिए मजबूर होना पड़ा.
उनकी तरह ही जुझारू तेवर वाले मार्क्सिस्ट कॉर्डिनेशन सेंटर के विधायक और उनके परम मित्र अरूप चटर्जी कहते हैं, ‘वे अलबेले और अद्भुत हैं. उन्होंने उस डगर को चुना है जो आसान नहीं है. पर उन्हें इसकी परवाह नहीं है. लगभग कलंकित हो चुकी झारखंड की राजनीति में वे उम्मीद की किरण हैं.’
विनोद का राजनीति में आना संयोग ही था. बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) से समाजशास्त्र में पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी कर चुके विनोद अपने दोस्तों के साथ मिल कर साहित्यिक और कलात्मक गतिविधियों को अंजाम देने वाली कला कम्यून नाम की संस्था चलाते थे. लेकिन 16 जनवरी, 2005 को माओवादियों ने उनके पिता महेंद्र सिंह की हत्या कर दी. शोषितों और पीड़ितों के हक की लड़ाई लड़ने वाले बागी तेवरों के धनी विधायक महेंद्र की छवि एक तेज-तर्रार नेता की थी.
दूसरी बार विधायक बने विनोद कहते हैं, ‘मैंने उस समय बूढ़ी औरतों, मर्दों और मजलूमों को उनकी मौत पर रोते हुए देखा था. उन्हें मैं जानता नहीं था. वे मेरे दूर के रिश्तेदार भी नहीं थे. चुनाव की घोषणा हो चुकी थी. संगठन के शीर्ष नेता या तो अंडरग्राउंड थे या फिर जेल में. मुझे चुनाव लड़ने के लिए कहा गया. उस समय मैं नहीं, मेरे लिए लोग चुनाव लड़ रहे थे.’
रंगकर्मी विनोद विश्वकर्मा उनके बारे में कहते हैं, ‘आप उनमें महेंद्र सिंह की छवि देख सकते हैं. वे अपने पिता की विरासत को आगे ले जा रहे हैं जिनके लिए राजनीति आम जनता की सेवा का माध्यम थी और एकमात्र नौकरी भी. विनोद भी जनता की नौकरी बजा रहे हैं.’
हालांकि पिता से अपनी तुलना किए जाने पर विनोद असहज महसूस करते हैं, ‘उन्होंने एक ऐसी लंबी लकीर खींच दी है, मैं जिसके आसपास भी नहीं हूं.’ हालांकि वे अपने पिता के सिद्धांतों के काफी करीब हैं. पिता के शहादत दिवस पर वे अपने फेसबुक के वाल पर एक पोस्ट डालते हैं, ‘मैं आपकी लड़ाइयों को लड़ते हुए लाठी खा सकता हूं. जेल जा सकता हूं. मारा जा सकता हूं. लेकिन आपकी लड़ाइयों के साथ कभी विश्वासघात नहीं कर सकता.’
महेंद्र सिंह भी वैसे ही थे, जिन्होंने सत्ता प्रतिष्ठान से हाथ नहीं मिलाया और सिद्धांत के सवाल पर विधानसभा से इस्तीफा देने में एक मिनट का वक्त नहीं लगाया. तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष इंदरसिंह नामधारी के साथ ऐसे ही एक मुद्दे पर 2003 में सैद्धांतिक मतभेद के चलते उन्होंने न केवल सदन से अपना इस्तीफा दे दिया था बल्कि घंटे भर में एमएलए होस्टल में अपना कमरा भी खाली कर दिया था. तब पक्ष और विपक्ष दोनों ने मिलकर उन पर इस्तीफा वापस लेने के लिए दवाब बनाया था. नामधारी ने उनके इस्तीफे को यह कहते हुए ठुकरा दिया था कि वे ऐसे नहीं जा सकते.
उनका इस्तीफा राज्य की जनता के लिए सब से बड़ा नुकसान होगा. कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राधाकृष्ण किशोर कहते हैं, ‘महेंद्र सिंह विपक्ष और जनता की सबसे सशक्त आवाज थे. विनोद भी ऐसे ही हैं.’
विनोद विधानसभा के प्रत्येक सत्र में लगातार मौजूद रहते हैं. उनके पास पूछने के लिए अनगिनत सवाल होते हैं. सदन के अंदर जिला परिषद पंचायती राज समिति का सभापति होने के नाते उन्हें राज्यमंत्री का दर्जा प्राप्त है. इस नाते उन्हें लाल बत्ती लगी गाड़ी से चलने का अधिकार है, लेकिन वे ऐसा नहीं करते.
कभी-कभी साफगोई के चलते सदन के उनके साथी भी उन्हें पसंद नहीं करते. जब पिछले सत्र के दौरान सत्ता और विपक्ष दोनों ही सौहार्द्रपूर्ण माहौल में विधायकों और मंत्रियों का वेतन-भत्ता बढ़ाने पर चर्चा कर रहे थे तो विनोद ने सरकार से यह जानना चाहा कि वह 150 रु. को न्यूनतम मजदूरी के रूप में कब लागू करेगी.
इस पर भन्नाए हुए एक विधायक ने तंज कसा, ‘वे तो बेमतलब के बागी हैं.’ वे फेसबुक पर भी हैं और जनता के सवालों को फेसबुक पर पोस्ट कर देते हैं. जब सदन का सत्र नहीं चलता तो वे अपने इलाके में होते हैं. वे जन समस्याओं को लेकर आंदोलन की रूपरेखा तैयार करते हैं. लोगों से मिलते हैं. उनके एक आह्वान पर लोग घरों से निकल आते हैं और पदयात्रा में शामिल हो जाते हैं. ऐसा ही जन सैलाब गिरिडीह में उनके पिता की पुण्यतिथि पर उमड़ता है.
बाकी विधायकों के उलट उनके आसपास ठेकेदारनुमा लोग नहीं दिखते क्योंकि बगोदर में ग्रामसभा ही तय करती है कि काम किस तरह से होगा, कौन करेगा. विनोद कहते हैं, ‘भ्रष्टाचार की शुरुआत यहीं से होती है. जब से जन प्रतिनिधियों ने ठेकेदारी परंपरा की नींव डाली, मेरे पिता ने यह तय किया था कि विकास योजनाओं को तय करने का हक जनता का है. ग्राम सभा की देख-रेख में अगर काम होता है तो त्रुटियां भी कम होंगी और सब कुछ पारदर्शी होगा.’ वे एक मध्यमवर्गीय साम्यवादी किसान परिवार से हैं जिसके पास कुछ एकड़ जमीन है. विधायक के तौर पर मिलने वाले वेतन का एक हिस्सा वे पार्टी को दे देते हैं. मां की पेंशन से घर चलता है.
वे सार्थक फिल्में देखने के शौकीन हैं. हाल में उन्होंने पान सिंह तोमर देखी है, जिसका एक डायलॉग उन्हें बेहद पसंद आया ‘बीहड़ों में बागी होते हैं, डाकू तो पार्लियामेंट में होते हैं.’ वे पिता की लायब्रेरी की सारी किताबें पढ़ चुके हैं. हाल ही में उन्होंने फातिमा भुट्टो की सॉन्ग्स ऑफ ब्लड ऐंड स्वॉर्ड खत्म की है. सूफी गायिका आबिदा परवीन को सुनना उन्हें बेहद पसंद है. पिता की तरह वे भी सिस्टम को बदलना चाहते हैं. क्या वे ऐसा कर पाएंगे? वे अपने पिता को याद करते हैं और उनकी चंद पाती कल जब नहीं होंगे हम जिंदगी की हर खुशी और मातम में, जिंदगी रहेगी हमारी गूंज अनुगूंज बनकर.