
आदिवासियों के अधिकारों के लिए बाकी दुनिया और खुद इस समुदाय को जागरूक करने साथ ही उनकी उनकी सुरक्षा के लिए हर साल 9 अगस्त को दुनियाभर में विश्व आदिवासी दिवस मनाया जाता है. इसकी शुरूआत संयुक्त राष्ट्र (यूएन) की ओर से सन 1994 से हुई थी.
इस मौके पर वैसे तो देशभर के आदिवासी इलाकों में कई कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं लेकिन झारखंड सरकार ने इसे बड़ा आयाम देने की कोशिश की है. यह तीसरा साल है जब यहां इस दिन ‘आदिवासी महोत्सव’ का आयोजन बड़े स्तर पर किया जा रहा है.
रांची के बिरसा मुंडा स्मृति उद्यान में 9 अगस्त को दिनभर कई तरह के कार्यक्रम आयोजित किए गए. दो दिनों के इस आयोजन में आठ राज्यों मिजोरम, असम, राजस्थान, छत्तीसगढ़, ओडिशा, त्रिपुरा, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश के आदिवासी भी शामिल हो रहे हैं. इनकी मेजबानी करने के लिए झारखंड के सभी 32 जनजातियों के लोग, कलाकार यहां मौजूद हैं. इस कार्यक्रम का उद्घाटन मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और राज्यपाल संतोष गंगवार के साथ सीएम की पत्नी व विधायक कल्पना सोरन, आदिवासी मामलों के मंत्री दीपक बिरुआ और राज्यसभा सांसद महुआ माजी ने किया.

अपने भाषण में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कहा, “जनजातीय सभ्यता दुनिया की सबसे प्राचीन सभ्यता है. आदि काल से ही आदिवासियों की सभ्यता -संस्कृति और परंपरा काफी समृद्ध रही है. दुनिया में अलग-अलग हिस्सों में आदिवासी समुदाय वास करते हैं, लेकिन उनकी सभ्यता -संस्कृति में कहीं न कहीं एकरूपता देखने को मिलती रहती है.” यही शायद वह मूल विचार है जिसकी वजह से झारखंड सरकार और आदिवासियों ने सोचा कि जब कोई अंतर नहीं है तो फिर क्यों न इसे एक दूसरे के साथ साझा किया जाए. इसी कड़ी में तीसरी बार झारखंड की राजधानी में आदिवासी महोत्सव का यह भव्य आयोजन हो रहा है, जहां देशभर के आदिवासी समुदाय के लोग जुटे हैं.
वहीं इस बात को आगे बढ़ाते हुए राज्यपाल संतोष गंगवार ने इसे अपने भाषण में शामिल किया और कहा कि जनजातीय समुदाय की पारंपरिक शासन व्यवस्था को राज्य में लागू किया जाना जरूरी है. राज्यपाल का ऐसा भी कहना था कि वर्तमान में देश में झारखण्ड एक मात्र ऐसा राज्य है जहां PESA कानून लागू नहीं है. शीघ्र इस कानून को लागू कराया जाना चाहिए.
भारत के गैर-आदिवासियों के बीच में आदिवासियों को हमेशा आदि मानवों से जोड़कर उनके बारे में आम धारणा बनाई जाती रही है. लेकिन आयोजन स्थल पर सोहराई, जादूपटिया, कोहबर, पाटकर, डोकरा आर्ट शैली के पेंटिंग और कलाकृति को दिखाकर इस आयोजन के माध्यम से सरकार और आदिवासी समाज यह भी संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं कि उनका समाज कई मामलों में बेहद समृद्ध है. उसे सिर्फ रंग और नृत्य के लिए न पहचाना जाए. आदिवासी केवल डांस नहीं करते.

राज्यपाल संतोष गंगवार ने अपने भाषण में इसका जिक्र करते हुए कहा भी, “हम सभी को आदिवासी समुदाय की संस्कृति पर गर्व होना चाहिए और इसे संरक्षित रखने का संकल्प लेना चाहिए. मुझे यह कहते हुए गर्व हो रहा है कि आदिवासी समाज में दहेज-प्रथा जैसी कुरीतियां नहीं हैं, जो एक अनुकरणीय उदाहरण है लेकिन विडम्बना है कि जनजातीय समाज में डायन-प्रथा जैसी सामाजिक कुरीतियां आज भी मौजूद हैं, जिसे जागरूक होकर हम सबको दूर करना होगा.”
मंच पर जनी शिकार को कलाकारों ने अपने प्रदर्शन से दिखाया. जनी शिकार झारखंड में एक खास परंपरा है. जिसमें महिलाएं पुरुषों का वेश धारण कर जंगलों में शिकार करने जाती हैं. शिकार का यह सिलसिला एक सप्ताह से 10 दिनों तक चलता है.
आखिर में किसी एक जगह पर आदिवासी समाज के लोग जुटते हैं. यहां संस्कृति को बचाने और बढ़ाने की विमर्श करते हैं. मंच पर इस प्रदर्शन के दौरान जिस पार्श्वधुन का इस्तेमाल किया गया, उसमें विलुप्त होते वाद्य यंत्र बनम, मांदर, केंदरा, सारंगी, झांझ, घंट, नगाड़ा, भेर, नरसिंहा, बांसुरी, ढाक, ढोलक की धुन का था.

आदिवासी संस्कृति को बचाने की कोशिशों पर मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का कहना था, “झारखंड के आदिवासियों को विरासत में संघर्ष मिला है. यहां के आदिवासियों ने अपनी सभ्यता- संस्कृति और मान-सम्मान के साथ कभी समझौता नहीं किया. जल- जंगल -जमीन की रक्षा के खातिर लंबा संघर्ष किया. हमें गर्व है अपने उन वीरों पर, जिन्होंने अन्याय, शोषण एवं देश-राज्य के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया.”
इस महोत्सव के दौरान सांस्कृतिक आदान-प्रदान पर गौर करें तो असम की तीवा जनजाति का बरत मिशवा नृत्य, मिजोरम की तरफ से छयलम नृत्य, ओडिशा की तरफ से कुटिया कंधा नृत्य, छत्तीसगढ़ का कर्मा नृत्य ने इस प्रयास को मजबूत किया. वहीं आयोजन में खानपान को प्रमुखता से बताने की कोशिश हो रही है. इसमें मडुआ लड्डू, महुआ लड्डू, गोंदली चावल, बेंग साग, फुटकल साग, मडुआ के मोमोज का स्टॉल लगाया गया है. यही नहीं झारखंड के आदिवासी लेखकों के 12 पुस्तकों का विमोचन भी किया गया.

एक तरफ देशभर में साल भर आयोजित होनेवाले विभिन्न बुक फेस्टिवल, लिटरेचर फेस्टिवल, मुशायरों के तमाम आयोजनों के बीच शायद ही आदिवासी या फिर आदिवासियत जगह बना पा रहा हो, लेकिन ऐसे आयोजन जरूर उस कड़ी या यूं कह ले कि सामानंतर स्तर पर एक अलग पहचान बनाने और उसे बढ़ाने की पहल की तरफ बेहतर दखल माने जा सकते हैं.

आयोजन में शामिल आदिवासियों के आत्मविश्वास, अपनी पहचान को लेकर आनेवाली पीढ़ी को जोड़े रखने का गर्व, अपनी पारंपरिक चीजों को सहेजने की खुशी साफ देखी जा सकती है. ये अलग ऐसे भी हैं अपनी पारंपरिक खानपान को अब देश-दुनिया के बाजार से जोड़ने की तरफ बढ़ चले हैं.
रांची विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर रहे पद्मश्री रामदयाल मुंडा ने कभी कहा था, “आदिवासियों का चलना ही नृत्य है, बोलना ही संगीत है.” नई पीढ़ी इस बात को मानती भी है और गैर-आदिवासियों के मन में उनके प्रति बने स्टीरियो टाइप को तोड़ भी रही है. हालांकि 9 अगस्त को इस आयोजन का पहला ही दिन था. उम्मीद है कि 10 तारीख को इसके कुछ और नए आयाम देखने को मिलेंगे.
- आनंद दत्त, रांची से इंडिया टुडे के लिए