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झारखंड आदिवासी महोत्सव 2024 : राग-रंग के बीच सीएम हेमंत सोरेन की वो घोषणा जो बनी कलाकारों के लिए नई उम्मीद!

विश्व आदिवासी दिवस के मौके पर रांची में आयोजित हुए झारखंड आदिवासी महोत्सव-2024 का दूसरा दिन यानी 10 अगस्त राग-रंग के साथ लोक कलाकारों के लिए एक नई उम्मीद लाने वाला साबित हुआ

आदिवासी महोत्सव के दौरान कलाकारों को पुरस्कार देते मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन, साथ में उनकी पत्नी और विधायक कल्पना सोरेन
आदिवासी महोत्सव के दौरान कलाकारों का पुरस्कार देते मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन, साथ में उनकी पत्नी और विधायक कल्पना सोरेन
अपडेटेड 10 अगस्त , 2024

रंग, उम्मीद, उत्साह, पारस्परिक संबंध को प्रगाढ़ करते हुए दो दिनी विश्व आदिवासी महोत्सव 10 अगस्त को समाप्त हो गया. कार्यक्रम के दूसरे और आखिरी दिन असम के कलाकार निलोत्पल बोरा और झारखंड के कलाकार नंदलाल नायक की शानदार प्रस्तुती ने हेमंत सोरेन को भी झूमने पर मजबूर कर दिया. 

अपने समापन संबोधन में हेमंत सोरेन ने कहा, “आदिवासी कलाकार हमारी संस्कृति को आगे बढ़ाने का भार अपने कंधों पर ढो रहे हैं. इनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है, इसकी जानकारी मुझे है. मैं साल 2025 में कलाकारों के लिए विशेष पॉलिसी लाने जा रहा हूं. ताकि वो देश-दुनिया में जाकर अपनी कला का प्रदर्शन कर सकें.” 

आदिवासी आज भी अपनी मूल संस्कृति को बचाने की जद्दोजहद में लगा हुआ है. यही चीज उसे बाकी समाज से अलग करती है. इस बात का जिक्र करते हुए मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का आगे यह भी कहना था, “इस भौतिकवादी युग में विकास के पैमाने पर देखें तो आदिवासी समाज के लोग गिनने से नहीं मिलेंगे. व्यापार में, न्यापालिका में, ब्यूरोक्रेसी में, डॉक्टर, इंजीनियरिंग के पेशे में गिने-चुने आदिवासी आगे बढ़े हैं. लेकिन धीरे-धीरे ही सही, हम आगे बढ़ रहे हैं और अब इसकी गति भी बढ़ रही है. यही वजह है आज अलग-अलग क्षेत्रों से हमारे आदिवासी भाई-बहन अपनी अलग पहचान बना रहे हैं. हॉकी महिला टीम में सबसे अधिक झारखंड की बेटियां हैं. इस भौतिकवादी युग में अपनी सभ्यता को संजोते हुए कैसे आगे बढ़ें हमें इस बारे में सोचना होगा.” 

आदिवासी महोत्सव में आए लोगों से मुलाकात करते सीएम हेमंत सोरेन
आदिवासी महोत्सव में आए लोगों से मुलाकात करते सीएम हेमंत सोरेन

इस मौके पर राज्य के आदिवासी मामलों के मंत्री दीपक बिरुआ ने कहा, “आदिवासियों का स्वभाव सरल एवं सहृदय होता है. प्रकृति एवं संस्कृति से हमारा गहरा नाता है. हमारी संस्कृति में झलकती सरलता एवं सहज स्वभाव ही हमारी पहचान है. आज भी हम अपने पूर्वजों के बताए रास्तों पर चलकर विकसित होते जा रहे हैं, तथा अपनी संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखे हैं, यही हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि है.”

 आदिवासी बरसात के दिनों में जंगल में मवेशी चराने या खेती के दौरान इस पत्ते से बने टोपी का इस्तेमाल करते हैं
आदिवासी बरसात के दिनों में जंगल में मवेशी चराने या खेती के दौरान इस पत्ते से बने टोपी का इस्तेमाल करते हैं

इन समापन भाषणों से पहले दिनभर इस आयोजन में दूर-दराज से आए आदिवासी अपनों के बीच से निकले कलाकारों और उद्यमियों से परिचित होते रहे. ऐसे ही एक उद्यमी मनीषा मुंडा ने बताया कि वे आदिवासी खानपान को आगे बढ़ाने के प्रयास में लगी हैं और ऐसे मंच उन्हें एक बड़े वर्ग तक पहुंचने में मदद करते हैं. आयोजन स्थल पर बड़ी संख्या में लोगों ने जेल की उस बैरक को भी देखा जिसमें बिरसा मुंडा को कैद किया गया था. 

लोक नृत्य, लोक पहचान 

झारखण्ड आदिवासी महोत्सव 2024 में झारखण्ड के सात क्षेत्रीय एवं जनजातीय संथाली नृत्य - मुंडारी, खरवार, कड़सा, पंचपरगनियां, घोड़ा, उरांव और चांवर पैंकी नाच की प्रस्तुति ने समापन समारोह को और भी भव्य और आकर्षक बना दिया. वहीं उत्तर प्रदेश से आए कलाकारों ने प्रदेश की पारंपरिक लोकनाच शैला की प्रस्तुति दी. शैला यूपी के वाराणसी, सोनभद्र, मिर्ज़ापुर, जनपदों के घने जंगलो एवं मैदानी क्षेत्रों में बसे गोंड समुदाय का प्रसिद्ध प्राचीन नृत्य-गीत है. इसके अलावा पांता झूमर नृत्य प्रस्तुत किया गया. झारखंडी लोक कला व संस्कृति से जुड़े पांता झूमर की प्रस्तुति के जरिए राज्य के वीर सपूतों के बलिदान को गीत के माध्यम से याद किया गया. 

असम से आई एक कलाकार मंडली, इनके कार्यक्रमों में सबसे ज्यादा भीड़ जुटी
असम से आई एक कलाकार मंडली, इनके कार्यक्रमों में सबसे ज्यादा भीड़ जुटी

महोत्सव की कला प्रदर्शनी में करीब 55 कलाकारों ने हिस्सा लिया जो कि देश के अलग-अलग आदिवासी बहुल क्षेत्रों से आते हैं. इनमें मुख्य रूप से झारखंड की राजधानी रांची, उत्तर प्रदेश के वाराणसी और छत्तीसगढ़ समेत क‌ई राज्यों के कलाकार शामिल थे.  झारखंड की कलाओं में मुख्य रूप से सोहराय, कोहबर, जादो पटिया, उरांव पेंटिंग, मॉर्डन आर्ट, समकालीन चित्रकारी समेत अन्य शामिल थे. 

एक कसक जो इस बार भी बाकी रह गई

समारोह में राज्य और राज्य के बाहर के आदिवासियों ने जमकर हिस्सा लिया. लेकिन गैर-आदिवासियों की भागीदारी कम देखने को मिली. विलुप्त हो चुके एक आदिवासी पारंपरिक वाद्ययंत्र बनम को बीते 20 साल से संरक्षित कर रहे बंदी उरांव इंडिया टुडे से कहते हैं, “ये सही बात है कि आदिवासियों की नई पीढ़ी को इससे जोड़ना ऐसे आयोजनों का मुख्य मकसद होता है. लेकिन हमारी कोशिश है कि इन आयोजनों से गैर-आदिवासियों के बीच भी हमारी परंपरा और संस्कृति को पहचान मिले. हमारा दायरा भी बढ़े. लेकिन उनकी भागीदारी बहुत कम देखने को मिली है. सरकार और आयोजकों को इस पर भी ध्यान देना चाहिए.” 

इस खास वाद्यंत्र को बनम कहा जाता है. बहुत कम कलाकार बचे हैं जो इसे बजाना जानते हैं
इस खास वाद्यंत्र को बनम कहा जाता है. बहुत कम कलाकार बचे हैं जो इसे बजाना जानते हैं

आदिवासी व्यंजनों को कुछ हद तक बाजार से जोड़ा जा रहा है, लेकिन उनकी कलाकारी, गीत-संगीत, नृत्य के लिए अभी उतनी जगह नहीं बन पाई है. इन्हें सरकारी मंच और थोड़े पैसे तो मिल जा रहे हैं, लेकिन इससे इनके टिके रहने की राह मुश्किल नजर आ रही है. 

इन सब चीजों के लिए पूरे राज्य में कोई खास मार्केट नहीं है. जरूरत एक ऐसे मार्केट प्लेस की है, जहां पूरे राज्य या फिर देशभर के आदिवासी इलाकों के खान-पान, पेंटिंग, वस्त्र आदि एक छत के नीचे मिलें. जब तक इसे आम और खास लोगों के घरों तक नहीं पहुंचाया जाएगा, इसका विस्तार और संवर्धन कठिन है. 

हालांकि आदिवासी महोत्सव के आखिरी दिन मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कलाकारों के लिए के विशेष पॉलिसी बनाने की घोषणा की है, इसे आयोजन से निकली एक बड़ी उम्मीद माना जा सकता है.

आनंद दत्त, इंडिया टुडे के लिए रांची से

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