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जानकी वल्‍लभ शास्‍त्री: स्वच्छंद कविता की अंतिम कड़ी

स्मृति आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री (1916-2011)आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री कहा करते थे कि  उनका और निराला की प्रसिद्ध कविता 'जुही की कली' का जन्म एक ही वर्ष हुआ, यानी 1916 में.

अपडेटेड 17 अप्रैल , 2011

स्मृति

आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री

(1916-2011)

आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री कहा करते थे कि  उनका और निराला की प्रसिद्ध कविता 'जुही की कली' का जन्म एक ही वर्ष हुआ, यानी 1916 में.

वे गया जिले के एक गांव में पैदा हुए  और काशी में संस्कृत की शिक्षा प्राप्त कर कई जगह घूमते हुए मुजफ्फरपुर शहर को उन्होंने अपना स्थायी निवास बनाया. कारण यह कि मुजफ्फरपुर के गवर्नमेंट संस्कृत कॉलेज में प्राध्यापक के पद पर उन्हें स्थायी नियुक्ति मिल गई थी.

वहीं से वे वहां के रामदयालु सिंह कॉलेज में संस्कृत के साथ हिंदी के भी प्राध्यापक होकर गए. जब उन्हें उस शहर के बदनाम मुहल्ले चतुर्भुज स्थान में जमीन का एक टुकड़ा दिया गया, तो उन्होंने लोकपवाद का डर छोड़कर वहां अपना मकान बनाया और जैसे उस मुहल्ले का कलंकमोचन किया. उनकी विधिवत्‌ शिक्षादीक्षा तो संस्कृत में ही हुई थी, लेकिन अपने श्रम से उन्होंने अंग्रेजी और बांग्ला का प्रभूत ज्ञान प्राप्त किया.

मुझे उनसे रवींद्रनाथ का एक गीत सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था. वे जबविह्‌वल होकर गीत गाते थे, तो श्रोता भी विह्‌वल हो जाता था.

उनके समवयस्क रामदयाल पांडेय और त्रिलोचन थे. ये दोनों पहले ही हमसे बिछुड़ गए थे. उनके बाद निश्चय ही शास्त्रीजी अकेलापन महसूस करते रहे होंगे. एक हादसे में उनकी कमर की हड्डी क्षतिग्रस्त हो गई थी, जिससे पिछले अनेक वर्षों से वे चलनेफिरने में असमर्थ हो गए थे. जिस व्यक्ति के कंठ स्वर से संपूर्ण हिंदीभाषी प्रदेश अनेक वर्षों तक गूंजता रहा हो, वह अपने घर में ही कैद होकर रह जाए, यह उसके लिए कितना त्रासद रहा होगा इसकी कल्पना की जा सकती है.

जैसे अपने अकेलेपन और त्रास से छुटकारा पाने के लिए ही 7 अप्रैल, 2011 को उन्होंने अपने आवास पर अंतिम सांस ली. अगले दिन पूरे राजकीय सम्मान के साथ वहीं पर उनके पिता के समाधि स्थल की बगल में उनका दाह संस्कार किया गया. मुझे अभी भी लगता है कि शास्त्रीजी ने मृत्यु को नहीं प्राप्त किया है, निराला ने जो एक गीत में कहा है कि  'कौन तम के पार?- (रे, कह)', वे उसी का अनुसंधान करने इस मायारूपी अंधकार के पार गए हैं, वरना हिंदीभाषी जनता को विश्वास था किवे पांच छह वर्ष और हम लोगों के बीच रहकर शतायु होंगे.

शास्त्रीजी की साहित्य साधना काशी में तरुणावस्था में ही शुरू हो गई थी. सबसे पहले उनका संस्कृत गीतियों का एक संग्रह 'काकली' नाम से निकला, जिससे प्रभावित होकर निराला उनके छात्रावास में गए और उन्हें हिंदी में लिखने के लिए प्रेरित किया.

तब से शास्त्रीजी ने हिंदी को ही अपनी अभिव्यक्ति का मुख्य साधन बनाया और एक के बाद एक उनके  गीत संग्रह निकलने लगे. उनके ऐसे संग्रहों में 'शिप्रा' सर्वश्रेष्ठ है जिसका पहला गीत 'किसने बांसुरी बजाई?' बहुत लोकप्रिय हुआ. इसमें कुछ कविताएं भी हैं, जिनका नयापन हमें आकृष्ट करता है.

उसके पहले ही उनका 'गाथा' नामक कविता संग्रह प्रकाशित हुआ था, जिसमें कवि ने आश्चर्यजनक रूप से अपने यथार्थवादी रुझन का परिचय दिया है. इसके स्वाभाविक परिणामस्वरूप उसकी भाषा गद्यात्मक है, जिसका विकास त्रिलोचन के सॉनेट में हुआ है.

'अवंतिका' शास्त्रीजी का सर्वश्रेष्ठ संग्रह है, जिसके गीतों और कविताओं में विलक्षण प्रौढ़ता और परिष्कार के दर्शन होते हैं. बादलों से उलझ, बादलों से सुलझ,/ताड़ की आड़ से चांद क्या झंकता? इसी संग्रह का एक दार्शनिक गीत है, जो कि हिंदी क्षेत्र में दूर दूर तक प्रतिध्वनित हुआ था. इस संग्रह के बाद भी शास्त्रीजी के अनेक संग्रह निकले, जिनके गीतों पर उनके पांडित्य की छाप है.

पिछले दिनों 'राधा' नामक उनका बृहत्‌ प्रबंधकाव्य प्रकाशित हुआ है, जिसका विद्वानों द्वारा मूल्यांकन होना अभी शेष है. प्रो. नलिन विलोचन शर्मा ने उन्हें प्रसाद, निराला, पंत और महादेवी के बाद पांचवां छायावादी कवि कहा है, लेकिन सचाई यह है कि वे भारतेंदु और श्रीधर पाठक द्वारा प्रवर्तित और विकसित उस स्वच्छंद धारा के अंतिम कवि थे, जो छायावादी अतिशय लाक्षणिकता और भावात्मक रहस्यात्मकता से मुक्त थी.

शास्त्रीजी ने कहानियां, काव्यनाटक, आत्मकथा, संस्मरण, उपन्यास और आलोचना भी लिखी है. उनका उपन्यास 'कालिदास' भी बृहत्‌ है. उसका मूल्यांकन भी अभी होना है. स्पष्ट है कि शास्त्रीजी का संपूर्ण जीवन साहित्य रचना को समर्पित था. उन्हें हिंदी में जो भी मानसम्मान मिला, वह उचित था.

उनके साथ एक दिलचस्प बात यह थी कि वे बहुत बड़े पशुपालक थे. उनके यहां दर्जनोंगउएं, सांड, बछड़े तथा बिल्लियां और कुत्ते थे. पशुओं से उन्हें इतना प्रेम था कि  गाय क्या, बछड़ों को भी बेचते नहीं थे और उनके मरने पर उन्हें अपने आवास के परिसर में दफन करते थे.

उनका दाना पानी जुटाने में उनका परेशान रहना स्वाभाविक था. वे जीवमात्र के प्रति बहुत संवेदनशील थे, लेकिन दूसरी तरफ सभ्यता के ऊपरी आवरण को भेदते हुए वे जो सामने बैठा रहता था, उससे बिना लागलपेट के सही बात कह देते थे. उनके इस बेलौसपन से कुछ लेखक घबराते थे, लेकिन वे उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकते थे, क्योंकि उनका यशःकलश उनसे काफी ऊपर स्थापित था और आगे भी स्थापित रहेगा.

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