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ईरान ही आतंकवाद की प्रमुख धुरी है: शिमोन पेरेज

मैं अल्लाह को समझ सकता हूं, लेकिन उन्हें समझना मुश्किल है जो उसके नाम का गलत इस्तेमाल करते हैं. अल्लाह का पैगाम दोस्ती है, प्यार है, समझदारी है.

शिमोन पेरेज
शिमोन पेरेज
अपडेटेड 22 फ़रवरी , 2012

आज से बीस बरस पहले जब भारत और इज्राएल के रिश्ते सामान्य हुए थे, उस वक्त कोई नहीं कह सकता था ये दोनों देश इतना करीब आ जाएंगे. व्यापार और उसमें परस्पर सहयोग तो छोड़ दीजिए, ये बहुत बाद में आते हैं. दोनों को जोड़ने वाला असल बिंदु है सामरिक क्षेत्रः इज्राएल  आज भारत का सबसे विश्वसनीय हथियार सप्लायर बन चुका है और दोनों देशों ने हथियार उत्पादन में महत्वाकांक्षी सहयोग शुरू किया है. यह बात हालांकि कम ही लोग जानते हैं कि इज्राएल ने सबसे पहले 1962 में भारत को चीन युद्ध में हथियार देने की पेशकश की थी. उस युद्ध में सामरिक मोर्चे पर भारत की लचर तैयारी का पर्दाफाश हो गया था. इज्राएली सूत्रों की मानें तो तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू इस शर्त पर हथियार खरीदने को तैयार थे कि उन पर इज्राएल की मुहर न हो. इज्राएल ने इस शर्त को मानने से इनकार कर दिया. इज्राएल के वर्तमान राष्ट्रपति शिमोन पेरेज 1953 में रक्षा मंत्रालय संभालने वाले सबसे कम उम्र के डायरेक्टर-जनरल बने. तब वे महज 29 साल के थे. बाद में 1959 में वे मंत्री भी हुए. तब से लेकर आज तक वे इतिहास के एक समूचे अध्याय के गवाह रहे हैं. अब 80 बरस की उम्र पार कर चुके पेरेज भारत की राजकीय यात्रा करने से कहीं ज्‍यादा बड़ी इच्छाएं रखते हैं. दिल्ली उनकी यात्रा को लेकर अब भी उदासीन है, हालांकि जनवरी में एस.एम. कृष्णा ने विदेश मंत्री के तौर पर इज्राएल की अपनी पहली आधिकारिक यात्रा की. चीजें बदल तो रही हैं, लेकिन इतनी तेजी से नहीं कि भारत पेरेज को आने का न्योता दे सके. यरूशलम स्थित अपने घर के अनौपचारिक माहौल में परेज ने बीती जनवरी में इंडिया टुडे के संपादक एम.जे. अकबर के साथ  एक्सक्लूसिव इंटरव्यू में बड़ी विनम्रता के साथ यह बात साझा की. उन्होंने इसकी पुष्टि भी की, कि इज्राएल ने 1962 में भारत को हथियारों की पेशकश की थी जिसे नेहरू ने ठुकरा दिया.

क्या इज्राएल ने भारत को 1962 में चीन युद्ध के बाद हथियारों की पेशकश की थी और क्या नेहरू ने पेशकश ठुकरा दी थी?
हां, तीन बातें ध्यान देने लायक हैं. एक यह कि नेहरू भीतर से डेमोक्रेट किस्म के शख्स थे, दूसरे उनका झुकाव रूस की ओर था और तीसरे, इंग्लैंड से जुड़ाव खत्म नहीं हुआ था. उन्होंने माउंटबेटन को भारत का राष्ट्रपति बनने का प्रस्ताव दिया था. (संपादक की टिप्पणीः यह पद भारत के गवर्नर-जनरल का था, जिसे माउंटबेटन ने स्वीकार कर लिया था.)

हां, उन्होंने स्वीकार किया था, लेकिन 1947 से 1950 के बीच तो हमारी स्थिति स्वतंत्र उपनिवेश की थी. तकनीकी रूप से हम आजाद नहीं थे.
हां, नेहरू ने सभी अंग्रेज प्रशासकों को भारत में रह जाने का न्योता दिया था. यह ऐसी मिली-जुली नीति थी जो बेहद जटिल थी. और मुझे लगता है, चूंकि उनका ताल्लुक गुटनिरपेक्ष खेमे से था... जिनके नायक थे नेहरू, नासिर, टीटो, चाउ एन लाइ... (लिहाजा उन्हें इज्राएल से रिश्ते कायम करना मुश्किल लगा).

जनवरी में अपनी इज्राएल यात्रा के दौरान इज्राएली प्रधानमंत्री से मुलाकात के बाद भारत के विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा ने कहा था कि भारत और इज्राएल जैसे स्वाभाविक सहयोगियों को आतंकवादियों पर लगाम कसने और अंततः उनके सफाए का प्रयास करना चाहिए. लेकिन क्या उन्होंने इस पर चर्चा की कि आतंकवादी कौन है?
हां, बात हुई थी. और हमने उनकी पहचान भी कि-वे आतंकवादी जिन्हें आप जानते हैं और वे जिन्हें आप नहीं जानते. आज खुले तौर पर सबसे बड़ा आतंकवादी देश ईरान है. ईरान और उसके एटमी किस्से दोहराने की जरूरत नहीं है. ईरान का हिज्‍बुल्ला लेबनान को खत्म कर रहा है. हमास फिलस्तीन को बर्बाद करने में लगा है. और अभी थाईलैंड में कुछ इज्राएलियों की हत्या की कोशिश में लगे हिज्‍बुल्ला के लोग पकड़े गए थे. आज आतंकवाद की धुरी ईरान है और वहीं से तमाम संगठन पनप रहे हैं. लेकिन आज की समस्या कुछ और हैः यह लड़ाई लोकतांत्रिक ताकतों के बीच है जिन्हें जनता का समर्थन हासिल है. लेकिन आतंक फैलाने में इसकी जरूरत नहीं होती. मैंने देखा कि भारत को अपने यहां आतंकवाद से लड़ने के लिए लोकतांत्रिक भावना को जगाने में कितनी दिक्कतें आईं, जबकि आतंकवाद लोकतंत्र विरोधी होता है. यह कानून की कद्र नहीं करता. इसका वश चलता तो आपके सारे सांसद मारे गए होते.

हां, आप 13 दिसंबर की बात कर रहे हैं...लेकिन क्या आपने भारत को इस बात पर राजी करने की कोशिश की कि ईरान आतंकवादी देश है, या कि वह आतंकवाद को मदद दे रहा है? आप तो जानते हैं कि भारत के ईरान के साथ बड़े अच्छे रिश्ते हैं?
नहीं, मैंने ऐसी कोई कोशिश नहीं की. मैं जानता था कि दोनों के रिश्ते अच्छे हैं. लेकिन मुझे लगता है कि इस नई दुनिया में दुश्मन से लड़ने की बजाए हमें खतरों से लड़ना ज्‍यादा जरूरी है. आतंक आज वैश्विक हो चुका है. इसका कोई झंडा नहीं होता. इसका कोई नाम नहीं. और सारे देशों की दिक्कत यह है कि वैश्विकता एक तरह से राष्ट्रीयता को शर्मसार कर रही है. चूंकि अब राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाएं रह नहीं गईं, एक वैश्विक अर्थव्यवस्था कायम है, लिहाजा विचार नहीं बदले हैं, हालात बदल गए हैं. आप देखिए कि अब तक हम इस दुनिया को भूगोल से परिभाषित करते रहे हैं. जमीन वास्तविक इकाई है जो बांटती है, सीमाएं बनाती है. आप जमीन की प्रकृति समझते हैं, उसके उत्पादों को जानते हैं, जिनके आधार पर राष्ट्रीय संसाधनों की गणना होती है. लेकिन जिस पल विज्ञान ने जमीन की जगह ली, यह परिभाषा खत्म हो गई. विज्ञान सीमाएं नहीं जानता, न ही उसके अलग-अलग राष्ट्रपति होते हैं. सब कुछ बदल गया है. आखिर आप आधुनिक वास्तविकता को सिर्फ  राष्ट्रों के संदर्भ में कैसे परिभाषित कर सकते हैं? मान लीजिए कि 27 साल का कोई नौजवान है जिसकी कोई फौज नहीं, कोई राजनैतिक पार्टी नहीं, कोई पुलिस फोर्स नहीं, न उसके बारे में कोई जानता है और न ही वह अपने बारे में कुछ जानता है... लेकिन जब वह फेसबुक पर अपना एकाउंट खोलता है तो वह एक साम्राज्‍य खड़ा कर लेता है. इस साम्राज्‍य का न सिर्फ आर्थिक बल्कि सामाजिक प्रभाव भी होता है. इस बात का अंदाजा न तो एडम स्मिथ को था, न ही कार्ल मार्क्स को. वे होते तो यह देख कर चौंक जाते. इसका मतलब यह है कि हम ऐसी दुनिया में रह रहे हैं जिसे हम नहीं जानते.

जंग के बदलते तरीकों को देखें तो यह अद्भुत है, लेकिन फिलहाल भारत-इज्राएल के रिश्तों पर लौटते हैं: अगर आतंक की हमारी परिभाषा एक नहीं होगी, तो हम कैसे आपसी सहयोग कर पाएंगे? मसलन, क्या भारत हमास के खिलाफ  सहयोग करेगा, जो आपकी नजर में तो आतंकी है लेकिन भारत की नजर में नहीं?
आज हम जिस तरह की दुनिया में रह रहे हैं, वहां कूटनीतिक रिश्तों से बेहतर अनौपचारिक रिश्ते हैं. आतंक के खिलाफ  लड़ाई में कूटनीतिक रिश्तों के मुकाबले गुप्तचर सेवाएं ज्‍यादा कारगर होती हैं. चूंकि आतंक कोई राष्ट्रीय एजेंडा नहीं है बल्कि एक वैश्विक परिघटना है जो आधुनिक है और तेज भी, और सबसे बड़ी बात यह है कि अगर नुकसान की संभावना ज्‍यादा हो तो यह किसी  जगह को किसी भी वजह से चुन सकता है. लिहाजा हमें एक-दूसरे को चेता कर, सूचना देकर हमलों से बचने में सहयोग करना ही होगा. जाहिर है, आप कभी नहीं चाहेंगे कि भारत के किसी होटल में या संसद में ऐसा कुछ हो. इज्राएल  इस मामले में बड़ा बदकिस्मत रहा हैः हमारे यहां कृषि के नाम पर कुछ नहीं है जबकि सुरक्षा के नाम पर हमारे यहां बहुत कुछ है. लिहाजा हमें विशेषज्ञ बनना पड़ा. जहां तक हमारा सवाल है, हम मानते आए हैं कि अव्वल हिंदुस्तान एक संस्कृति है. हमें समझना होगा कि भारत बहुत सुसंस्कृत देश है, उसका अपना नजरिया है, उसके अपने प्रतीक हैं. यह ऐसी नीरस चीज नहीं जिसे कूटनीतिक मानसिकता के दायरे में समेटा जा सके. आपको एक उदाहरण दूं. हमारे ज्‍यादातर बच्चे भारत जा रहे हैं...इससे उन्हें आध्यात्मिक लगाव महसूस होता है. मैं तो अब यह तक मानने लगा हूं कि एक लिहाज से गांधी पैगंबर थे. और पैगंबर आज शहंशाहों से कहीं ज्‍यादा अहम हैं. लिहाजा, हम जुड़ाव महसूस करते हैं.

क्या मोसाद कश्मीर में भारत सरकार को सहयोग करता है?
अव्व्ल तो मैं जानता नहीं, और यदि जानता भी हूं तो इसका जवाब नहीं दूंगा (हंसते हुए). इंटेलिजेंस मेरा क्षेत्र नहीं है. हम जान बचाने के लिए, आंतरिक सुरक्षा के लिए सुझाव जरूर दे सकते हैं.

मैंने यह सवाल आपसे इसलिए पूछा क्योंकि भारत पर लगातार हमले करने वाले आतंकी समूहों में एक लश्कर-ए-तैयबा का सरगना लाहौर में रहता है. वह मानता है कि भारत, इज्राएल और अमेरिका उसके तीन सबसे बड़े दुश्मन हैं. सामरिक संबंध सिर्फ दोस्ती के नाम पर तो नहीं बनते, उसके लिए दुश्मन का भी दुश्मन होना ही पड़ता है. तो क्या आतंकियों ने भारत और इज्राएल को साथ ला दिया है?
बात तो अच्छी है लेकिन यह हमेशा कारगर नहीं होती. नई परिभाषा में दुश्मनों की जगह खतरों ने ले ली है.

क्या आप पाकिस्तान के एटमी बम को अपने लिए खतरा मानते हैं?
देखिए, दिक्कत यह है कि वह (पाकिस्तानी बम) किसके हाथ में होगा. बम अपने आप नहीं दगते. मसलन, अगर स्विट्जरलैंड के पास बम हो, तो मैं दावे से तो नहीं लेकिन इतना कह सकता हूं कि बहुत सारे लोग नहीं घबराएंगे. लेकिन बम अगर उत्तरी कोरिया के पास हो, तो दिक्कत हो जाती है. लिहाजा, बात इस पर निर्भर करती है कि पाकिस्तान का नियंत्रण किसके हाथों में है.

लेकिन पाकिस्तान अपने बम को पाकिस्तानी नहीं, इस्लामी बम कहता है. इस नाम का क्या मतलब निकाला जाए?
जरा दुनिया की ओर देखिए, इनकी औकात नहीं है. मैं तो कहता हूं कि आखिर 'इस्लाम' चाहता क्या है? क्या जमीन जीतना और राष्ट्रों को तबाह करना? मैं अल्लाह को समझ सकता हूं लेकिन उन्हें समझना मेरे लिए मुश्किल है जो उसके नाम का गलत इस्तेमाल करते हैं. अल्लाह का पैगाम दोस्ती है, प्यार है और समझदारी है. इसलिए आप जब मुझसे पूछेंगे कि मुसलमान क्या है, तो मैं पूछूंगा कि उन मुसलमानों की सियासत क्या है?

क्या आपको लगता है कि पाकिस्तान कट्टरपंथियों या चरमपंथियों के हाथों में जा रहा है?
पता नहीं, क्योंकि कट्टरपंथी जो नुस्खे मुस्लिम आदमियों और औरतों को देते हैं, उनके नतीजे उलटे होते हैं. आप पश्चिम एशिया और पाकिस्तान, दोनों की मिसाल लें. असल दिक्कत सियासत नहीं है, बल्कि गरीबी है, भूख है, बेरोजगारी है. तिस पर अगर वे खुद को ही सजा देने लगें, जैसे औरतों को आदमियों के बराबर दर्जा न देना, तो हूकूमत किस काम की? मेरा मतलब यह है कि अकेले  पैसा गरीबी का इलाज नहीं हो सकता. हिंदुस्तान को बचाने न तो रूस का पैसा आया न ही अमेरिका का, बल्कि उसके भीतर बदलाव की अंदरूनी तड़प थी जो बहुत गहरी थी. इसलिए जब आप मुसलमानों की बात करते हैं तो मैं पूछता हूं कि आप किस मुसलमान की बात कर रहे हैं? मुझे तो विज्ञान और इस्लाम के बीच कोई विरोधाभास नहीं नजर आता, लेकिन पश्चिम एशिया के ज्‍यादातर देशों को जो चीज पीछे खींच रही है वह वहां के आदमी हैं जो अपनी औरतों को बराबरी का दर्जा नहीं देना चाहते. वे औरतों को अधिकार नहीं देना चाहते. वहां की सरकारों में औरतों को बराबरी का दर्जा हासिल नहीं है. मुझे इससे क्या फर्क पड़ेगा, लेकिन कम से कम अपने लिए तो वे सोचते और लैंगिक समानता कायम करते. यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो गरीब ही बने रहेंगे. इस्लाम ने तो महिलाओं से भेदभाव बरतने को कहा नहीं है.

क्या इज्राएल भी अति कट्टरपंथियों के उभार के चलते लैंगिक समानता में कमजोर नहीं पड़ता जा रहा? आज के जेरुसलम पोस्ट की खबर के मुताबिक, वे नहीं चाहते कि महिलाएं गाना गाएं?
वे मुट्ठी भर अल्पसंख्यक हैं. आप खुद अखबार के धंधे में हैं. उस खबर के बारे में मेरा यही कहना है कि उसमें खतरा उतना बड़ा नहीं था, जितनी सनसनी, जिसकी ताकत आपने महसूस की.

इकोनॉमिस्ट पत्रिका के 10 दिसंबर के अंक के मुताबिक, देश में सत्तारूढ़ गठबंधन के भीतर 40 फीसदी रूढ़िवादी यहूदी हैं और सेना के 40 फीसदी नए अफसर लड़ाके हैं. यह संख्या छोटी तो नहीं कही जाएगी?
ऐसा नहीं है. हो सकता है कि उनमें महिलाओं के विरोधी हों, लेकिन वे 40 में से सिर्फ  3 फीसदी हैं. अखबार इनके बीच फर्क नहीं बरतते. कट्टरपंथी कुछ सौ या हजार होंगे, बस! लेकिन मामला चूंकि सनसनीखेज है, इसलिए सुर्खियों में जगह बना लेता है.

क्या आप ईरान को इज्राएल के वजूद के लिए खतरा मानते हैं?
मैं ईरान को पूरी दुनिया के लिए खतरा मानता हूं. मैं इसे सिर्फ इज्राएल की समस्या नहीं मानता! देखिए, वे हमें तरजीह भी नहीं देते. वे इतने अक्खड़ हैं. वे कहते हैं कि अगर सबसे बड़ा शैतान अमेरिका है, तो उसके बाद हम (इज्राएल) हैं. वे अपशब्द कहते हैं, भेदभाव करते हैं. मुझे लगता है कि ईरान की महत्वाकांक्षा की वजह से ज्‍यादातर अरब देश घबराए हुए हैं. वे धार्मिक नियंत्रण के नाम पर पश्चिम एशिया में अपना वर्चस्व कायम करना चाहता हैं.

इज्राएल  के रक्षा मंत्री एहुद बराक ने कहा था कि ईरान को बम तैयार करने के लिए सिर्फ नौ महीने चाहिए. क्या इसका मतलब यह निकाला जाए कि जंग होनी ही है? (संपादक की टिप्पणीः 15 फरवरी को ईरान के राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद ने तीन नई एटमी परियोजनाओं का उद्घाटन करते हुए कहा, 'दुनिया की मगरूर  ताकतों की झगड़े की पहल की फेहरिस्त बहुत लंबी है. उन्होंने दुनिया को लूट लिया है.')
मुझे लगता है कि रास्ते और भी हैं. सैन्य कार्रवाई से शुरुआत करने की क्या जरूरत? मैं सिर्फ  इज्राएल  की बात नहीं कर रहा, पूरी दुनिया की बात कर रहा हूं. प्रतिबंध काम करना शुरू कर चुके हैं. ईरान में मसला बम नहीं है बल्कि वहां की हूकूमत की फितरत है. मसला सिर्फ यह नहीं है कि वे बम बना रहे हैं बल्कि वे तबाही लाना चाहते हैं. इस साल उन्होंने बगैर सुनवाई के 600 लोगों को फांसी दे दी. इसके बाद वे बोले कि ये सभी लोग समलैंगिक थे. वे लोगों को मारते हैं. वे दक्षिण अमेरिका तक में अपने आतंकी भेजते हैं. सउदी अरब के राजनयिक को ही ले लीजिए जिसे वे मारना चाहते थे. वे हत्यारे हैं और धोखा दे रहे हैं. देखिए, मेरी जो उम्र है और मेरा जितना अनुभव है, उसके हिसाब से मैं ईरान को भ्रष्टाचार के प्रतीक के रूप में देखता हूं.

यकीनन आपका मतलब हूकूमत से होगा, ईरान की अवाम से नहीं. अगर ईरान में हूकूमत बदल जाए तो क्या वह आपको मंजूर होगा?
इसका जवाब मैं क्यों दूं? मुझे लगता है कि हमें यह बात समझनी चाहिए कि अगर वहां हूकूमत बदलती है तो शायद वह बम न बनाए.

क्या इज्राएली बम के पीछे सुरक्षा का तर्क है?
हमने पहले एटमी रिएक्टर बेस बनाया, फिर घोषणा की कि इज्राएल ने एटमी विकल्प तैयार कर लिया है, वह भी इसलिए नहीं कि हमें हिरोशिमा (विध्वंस) चाहिए बल्कि हमें तो ओस्लो (शांति) चाहिए. इज्राएल वैज्ञानिक अनुसंधान में शक्ति का केंद्र होगा. मिस्त्र के नेता और राजनयिक अम्र मूसा एक रोज मेरे पास आए और कहने लगे, ''आप मुझे दिमोना के करीब एटमी रिएक्टर दिखाने क्यों नहीं लेकर चलते?'' मैंने पूछा, ''आप सनक गए हैं क्या? आप हमारे लोगों को हंसते हुए देखेंगे और फिर शक करना बंद कर देंगे. ये हमारे लिए नुकसानदायक होगा, क्योंकि आपका शक ही हमें एटमी अवरोधक की ताकत देता है.''

क्या आपको लगता है कि ईरान ने नतांज और उसके एटमी कार्यक्रम से अनिश्चितता से भरा क्षेत्र भी पैदा कर डाला है?
कैसा? उन्हें इसकी जरूरत ही नहीं है. इज्राएल  को तो ईरान से भी खतरा है. लेकिन ईरान को किससे खतरा होगा? उन्हें ऐसा करने की जरूरत ही नहीं है. हमें थी और हमने ऐसा किया, लेकिन काफी संयम और समझदारी के साथ. (संपादक की टिप्पणीः संकेत यह है कि ईरान अनिश्चतता पैदा कर रहा है).

आपको क्या लगता है कि कहां आकर मामला निर्णायक हो जाएगा? मसलन, अगर ईरान होर्मुज की खाड़ी को बंद कर देता है तो क्या यह जंग छिड़ने की पर्याप्त  वजह हो सकती है?
हम अपनी सेना को होर्मुज नहीं भेजते हैं, लेकिन अमेरिका इसे बर्दाश्त नहीं करेगा. इंगलैंड भी ऐसा नहीं होने देगा. यहां तक कि कोई भी ईरान को ऐसा नहीं करने देगा. होर्मुज की खाड़ी अंतरराष्ट्रीय तेलमार्ग है और इस जीवनरेखा को रोकने की छूट किसी को नहीं दी जा सकती.

क्या आप अरब में हुए आंदोलन पर चौंके थे?
मैं शेखी नहीं बघारूंगा, लेकिन मुझे यकीन था ऐसा होगा. यह आंदोलन पूरी दुनिया में हो रहा है और आप इससे बच नहीं सकते. यह बिल्कुल नई दुनिया है. हुआ यह कि नई पीढ़ी ज्‍यादा पढ़ी-लिखी थी और आधुनिक उपकरण इस्तेमाल करती थी...उसने कहा, देखो हम ऊब चुके हैं, हमारे पास नौकरियां नहीं हैं, हमें पता नहीं कि हम क्या करें, अपनी जिंदगी हम तानाशाही हूकूमतों और भ्रष्टाचार आदि पर बरबाद किए जा रहे हैं...

इसके नतीजों को आप किस तरह देखते हैं? एक बार फिर बकौल बराक के, मिस्त्र में मुस्लिम ब्रदरहुड (इख्वानुल मुस्लिमीन) का उभार इज्राएल के लिए चिंता का सबब है?
पहली बात तो यह है कि मिस्त्र में जो कुछ भी घट रहा है, उस पर इज्राएल का अख्तियार नहीं है. इसके बावजूद अगर ब्रदरहुड खतरा है, तो मिस्त्र की नई पीढ़ी एक उम्मीद है. मुझे नहीं लगता कि यह सभ्यताओं का टकराव है, बल्कि यह पीढ़ियों का टकराव है. मुझे यकीन है कि मिस्त्र में युवा पीढ़ी की जीत होगी क्योंकि पुरानी पीढ़ी को नहीं मालूम कि कि अपने लोगों की बुनियादी जरूरतों को कैसे पूरा किया जाए. जहां तक हमारी बात है, उनके लिए विकल्प जितने बेहतर होंगे, हमारे पड़ोसी के रूप में भी वे उतने ही बेहतर होंगे. हम अरब या मुसलमानों से महज इसलिए नफरत नहीं करते कि वे अरब या मुसलमान हैं. दुनिया आर्थिक स्तर पर और वैचारिक रूप से भी वैश्विक हो गई है; मसलन, मुझे लगता है कि वैश्विकता अंततः नस्लवाद को खत्म कर देगी.

बिल्कुल. लेकिन युवा लोग संघर्ष की प्रकृति भी बदल रहे हैं-सऊदी अरब से इंटरनेट के जरिए हमले हुए हैं.
हां. लेकिन हमारे यहां इंटरनेट पर युवा-इज्राएली, अरब, फिलस्तीनी-बातचीत कर रहे हैं. शांतिपूर्वक. सो, ये इंटरनेट के दो चेहरे हैं.

इज्राएल इस बात को लेकर इतना आश्वस्त कैसे है कि सीरिया में बशर अल-असद के दिन अब पूरे हो गए?
हर हत्यारे की एक हद होती है. वह खूब हत्याएं करता है, लोग उसे हटाने की मांग करते हैं तो वह और हत्याएं करता है. आज तानाशाह बड़ी विकट स्थितियों में जी रहे हैं क्योंकि उन्होंने तीन चीजें गंवा दी हैं: वे लोगों को अंधा नहीं बनाए रख सकते क्योंकि जानकारी पाने के तमाम औजार अब उपलब्ध हैं. वे अपने नागरिकों की दौलत पर ऐश नहीं कर सकते क्योंकि उन्हें बेवकूफ बनाना अब आसान नहीं रहा. और अब वे अपनी फौज के भरोसे भी नहीं रह सकते क्योंकि फौज अपने ही नागरिकों पर गोली नहीं दागना चाहती. इसीलिए मुझे तानाशाहों का भविष्य ठीक नहीं दिखता. सीरिया का राष्ट्रपति तानाशाह है, हत्यारा है.

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