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अवैध कब्जा: सरकारी जमीन हड़पने की होड़

जमीन घोटालों की जांच के लिए बनी समिति की रिपोर्ट में बड़े खुलासे, पर नहीं हुई सख्त कार्रवाई.

अपडेटेड 12 अप्रैल , 2012

एमपी अजब है. ये सबसे गजब है.’ मध्य प्रदेश सरकार का पर्यटन विभाग कुछ इसी अंदाज में टीवी विज्ञापन के जरिए प्रदेश की छवि चमकाने में जुटा है. लेकिन मध्य प्रदेश में रसूखदार लोगों ने जिस तरह अफसरों से साठ-गांठ कर बड़े पैमाने पर खरबों रु. की जमीन पर अवैध कब्जा किया है, उसमें मध्य प्रदेश वाकई अजब-गजब नजर आता है.

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने 2009 में वरिष्ठ आइएएस अधिकारी मनोज श्रीवास्तव के नेतृत्व में एक सदस्यीय समिति का गठन कर उसे पूरे प्रदेश में चल रहे भूमि घोटालों को उजागर करने का जिम्मा दिया था. इस समिति ने बड़े भूमि घोटालों की 14 रिपोर्टें राज्य सरकार को सौंपीं, लेकिन इन पर क्या कार्रवाई हुई और कितने रसूखदार लोग जेल पहुंचे इसकी जानकारी कभी सार्वजनिक नहीं की गई.

भोपाल के आरटीआइ कार्यकर्ता अजय दुबे को इस साल फरवरी में राज्य सूचना आयोग के निर्देश पर इनमें से सात रिपोर्टें मुहैया कराई गईं. इन रिपोर्टों से खुलासा हुआ कि भोपाल, ग्वालियर, धार, होशंगाबाद, हरदा और अशोक नगर जिलों में खरबों रुपए की जमीन कानून को धता बनाकर निजी हाथों में चली गई. दुबे ने आरोप लगाया कि मध्य प्रदेश सरकार भूमाफिया पर कार्रवाई करने में नाकाम रही है और आरटीआइ दस्तावेजों के आधार पर वह हाइकोर्ट जाएंगे.
1.नदी, डाक बंगला, कलेक्टर कोठी सब दे दिया एक ही परिवार को
धार जिले के सरदारपुर कस्बे में पूर्व विधायक के परिवार पर हुई इनायत 

प्रदेश के धार जिले के सरदारपुर कस्बे में मध्य प्रदेश के जमीन गोरखधंधे का सबसे दिलचस्प मामला सामने आया. इस मामले के बारे में मनोज श्रीवास्तव समिति की रिपोर्ट में लिखा गया, ‘यह अद्भुत प्रकरण है जिसमें एक नगर की लगभग संपूर्ण भूमि एक ही परिवार के हाथों आ गई.mp land scam

यह वह प्रकरण है जिसमें एक परिवार एक नदी-वह भी पवित्र माही नदी, कब्रिस्तान, श्मशान, डाक बंगला, जेलखाना, शासकीय कन्याशाला, विजय स्तंभ, टीआइ बंगला, कलेक्टर कोठी सहित कई सार्वजनिक जमीन पर पुराने पट्टों के आधार पर हक जमाता है और कलेक्टर पट्टों की प्रामाणिकता पर संदेह करने की बजाए दावेदार को जमीन का अधित्यजन (दान) करने का मौका देता है और कुछ जगह अधित्यजन कराकर खुश होता है.’

रिपोर्ट के मुताबिक 1995 में कलेक्टर के एक गलत आदेश के जरिए 1471 बीघा जमीन नगर पालिका और मध्य प्रदेश शासन से लेकर निजी पक्षकार के हक में कर दी. बाद में एक अन्य कलेक्टर ने इस आदेश को गलत पाया और भूमि सरकार के अधीन लाने के लिए राजस्व मंडल (रेवेन्यू बोर्ड) से मामले पर दोबारा गौर करने की अनुमति मांगी.

राजस्व मंडल ने पुर्वानुमति देने की जगह खुद ही विस्तृत आदेश देकर जमीन सरकार के स्वामित्व में लाने का आदेश पारित किया. यह आदेश हाइकोर्ट से खारिज हो गया और हाइकोर्ट ने पुनर्विलोकन (छानबीन) की पूर्वानुमति दी.

रिपोर्ट के मुताबिक, तमाम कानूनी प्रक्रिया के बाद 5 जून, 2007 को कलेक्टर ने आदेश दिया जिसमें कुछ भूमि अधित्यजित कर शेष भूमि निजी पक्षकार को दे दी.

मजे की बात यह है कि नदी, पहाड़, रास्ता और कब्रिस्तान जैसी जमीन छोड़ने के लिए भी कलेक्टर ने निजी पक्षकार को आदेश देने की बजाए समझाया कि वह जनहित में भूमि को छोड़ दें. रिपोर्ट में कलेक्टर के आदेश को पूरी तरह गैरकानूनी बताया गया, लेकिन किसी अफसर पर कार्रवाई की सिफारिश नहीं की गई.mp land scam

दरअसल यह मामला सरदारपुर के प्रतिष्ठित गर्ग परिवार से जुड़ा है. शंकरलाल गर्ग यहां 1952 में विधायक रहे. इस मामले में उनके पुत्र, 78 वर्षीय लक्ष्मी नारायण गर्ग पक्षकार हैं. मामले पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लक्ष्मी नारायण गर्ग ने कहा, ‘नगरपालिका अनावश्यकदावा कर रही है.’

उन्होंने दावा किया, ‘आजादी से पहले  नगर पालिका के दावे के खिलाफ हम ग्वालियर स्टेट कोर्ट में भी जीते थे. अपील की मियाद खत्म भी हो गई लेकिन मामले को फिर खोला गया. कुछ समय पहले 2007 में कलेक्टर ने भी हमारे हक में फैसला दिया और जमीन पर हमारा नाम चढ़ाने को कहा था, बाद में रिवीजन में कलेक्टर ने हमें कुछ जमीन (जिस पर नदी है, श्मशान घाट आदि है) छोड़ने को कहा तो हमने छोड़ दी.’

हालांकि समिति की रिपोर्ट में इन सारे दावों को सिलसिलेवार ढंग से खारिज कर दिया गया. श्रीवास्तव ने बताया कि फिलहाल यह मामला डिवीजन कमिश्नर की अदालत में चल रहा है. अब तक इस मामले में किसी अधिकारी पर कोई कार्रवाई नहीं हुई है.
2.भेल का 2,000 एकड़ और 200 एकड़ पर माफिया का कब्जा
एम्स बनने के कारण बेशकीमती हुर्ई जमीन पर भू-माफिया की गिद्ध दृष्टि 

मध्य प्रदेश सरकार ने 27 नवंबर, 1957 को भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स लि. (बीएचइएल) को 6,000 एकड़ से अधिक जमीन अवार्ड की. मनोज श्रीवास्तव समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि यह जमीन भेल को एक कंपनी के तौर पर अवार्ड की गई. इस मामले में कोई औपचारिक ट्रांसफर डीड नहीं हुई.

लिहाजा भेल प्रशासन या केंद्र सरकार को इस जमीन पर मालिकाना हक जताने का अधिकार नहीं है. रिपोर्ट में कहा गया कि अधिग्रहण के बाद से अब तक भेल के पास करीब 2,000 एकड़ जमीन फालतू पड़ी है. रिपोर्ट में 1998 के मध्य प्रदेश राजस्व विभाग मंत्रालय के परिपत्र का हवाला दिया गया है.

परिपत्र में व्यवस्था है, ‘राज्य शासन द्वारा निर्णय लिया गया है कि प्रदेश में स्थापित केंद्रीय सार्वजनिक उपक्रमों को आवंटित भूमि में से ऐसी भूमि जो उनके द्वारा निर्धारित उद्देश्य के लिए उपयोग में नहीं लार्ई जा रही, तत्काल वापस प्राप्त की जाए.’ इसी आधार पर रिपोर्ट में भेल की खाली पड़ी 2,000 एकड़ जमीन राज्य सरकार ने वापस लेने की सिफारिश की गई. इसके अलावा रिपोर्ट में कहा गया कि भेल अपने कब्जे वाली जमीन की देखभाल भी नहीं कर पा रहा है और अब तक 200 एकड़ जमीन पर भूमाफिया ने कब्जा कर लिया है.

रिपोर्ट में जिस 200 एकड़ जमीन की बात कही गई है, इसका ज्यादातर हिस्सा अब रियल एस्टेट के लिहाज से महत्वपूर्ण हो गया है. भोपाल में बन रहे अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के सामने भेल की जमीन पर भी लोगों ने अवैध कब्जा कर रखा है और यहां मकानों का निर्माण अब भी जारी है. एम्स के यहां आने कारण इलाके में जमीन की कीमतें बहुत तेजी से बढ़ी हैं.

रिपोर्ट पर भेल का पक्ष रखते हुए भेल के वरिष्ठ प्रबंधक प्रचार एवं जनसंपर्क विनोदानंद झा ने कहा, ‘जहां तक भेल को भूमि आवंटित होने का सवाल है तो सारी कानूनी प्रक्रियाओं का पालन किया गया है. हां, भेल की 150 एकड़ जमीन पर अवैध कब्जा कर बस्तियां बनी हैं. इन्हें हटाने के लिए राज्य सरकार से लगातार पत्राचार किया जा रहा है.

एम्स के पास हो रहे नए अवैध निर्माण पर भेल प्रशासन नजर रखता है और इसे समय-समय पर तोड़ा जाता है.’ गौरतलब है कि इस इलाके का बड़ा हिस्सा नगरीय प्रशासन मंत्री बाबूलाल गौर के विधानसभा क्षेत्र गोविंदपुरा में आता है. और इस जमीन पर बसी अवैध कॉलोनियों को बड़ा वोट बैंक माना जाता है.
3.ग्वालियर शहर में 200 करोड़ रु. की जमीन पर अवैध कब्जा
पूर्व ग्वालियर राजघराने द्वारा स्थापित ग्वालियर डेयरी लिमिटेड को फायदा 

रिपोर्ट के मुताबिक ग्वालियर शहर में 47 हेक्टेयर जमीन ग्वालियर डेयरी लिमिटेड के पास है, जबकि कायदे से यह जमीन राज्य शासन के पास होनी चाहिए. इस मामले में निजी पक्षकार को 2008 में राजस्व मंडल के एक ऐसे आदेश के चलते जमीन हासिल हो गई, जिसमें 1991 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश तक की पूरी तरह से अनदेखी कर दी गई. मौजूदा बाजार भाव पर इस जमीन की कीमत करीब 200 करोड़ रु. है.

मामले के इतिहास के बारे में कंपनी के वर्तमान मालिक के.सी. जैन ने बताया, ‘ग्वालियर में 'ग्वालियर डेयरी लिमिटेड' कंपनी को शहरी क्षेत्र में 1516.96 एकड़ जमीन भूतपूर्व ग्वालियर रियासत द्वारा 4 जून, 1942 को 25 साल के पट्टे पर दी गई. उस समय ग्वालियर रियासत के तत्कालीन महाराज जीवाजीराव सिंधिया ने इस कंपनी को बनाया और उसमें उनके सरदार माधवराव फालके, सरदार देवराज कृष्ण जाधव (डी.के. जाधव) के अलावा रियासत के प्रभावशाली लोग कंपनी में शेयर होल्डर थे.’

रिपोर्ट में कहा गया कि 25 साल के पट्टे की मियाद खत्म होने के बाद अप्रैल, 1979 में अपर जिलाध्यक्ष के आदेश के जरिए यह जमीन शासन ने वापस ले ली. इसके बाद कंपनी की भूमि का बड़ा हिस्सा सरकारी विभागों द्वारा अपने कब्जे में लिया गया. लेकिन 20 मार्च, 2008 को रिवेन्यू बोर्ड ने चौंकाने वाला आदेश देते हुए जमीन पर कंपनी का अधिकार मान लिया. लेकिन बोर्ड का यह आदेश देखकर साफ लगता है कि फैसला पक्ष विशेष को फायदा पहुंचाने के लिए किया गया.

बोर्ड के आदेश पर गंभीर सवाल उठाते हुए मनोज श्रीवास्तव समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा, ‘रेवन्यू बोर्ड ने 1981 के हाइकोर्ट के जिस आदेश को आधार बनाया है, उस आदेश को 1991 में ही सुप्रीम कोर्ट खारिज कर चुका था. दूसरी बात यह कि बोर्ड में सुनवार्ई के दौरान शासन के वकील खड़े होकर पूरी तरह शासन के विरुद्ध और आवेदक के पक्ष में राजस्व न्यायालय में बोल रहे हैं.’

रिपोर्ट साफ इशारा करती है कि ग्वालियर डेयरी को फायदा पहुंचाने के लिए किस तरह पूरा प्रशासनिक पक्ष लामबंद था. जो जमीन सरकार को मिली है, वह भी इस रूप में कि कंपनी ने वह जमीन सरकार को दान दी है. हालांकि इसमें यह खतरा है कि कंपनी कल को चुनौती दे सकती है कि जब सरकार इस जमीन को कंपनी की नहीं मानता तो दान किस आधार पर करा रहा है.

 मामले में कंपनी का पक्ष रखते हुए जैन ने कहा, ‘पिछले साल ग्वालियर प्रशासन ने जलालपुरा के पास 50 एकड़ जमीन को अपने कब्जे में ले लिया. यह मामला अभी न्यायालय में है और ग्वालियर डेयरी लिमिटेड के नाम से अभी भी 42 एकड़ जमीन महाराजपुरा इलाके में है, जमीन पर किसी प्रकार का विवाद नहीं है.’
4.इटारसी शहर में धड़ल्ले से बिक रही नजूल की जमीन
1985 से लेकर अक्तूबर, 2010 तक अवैध रूप से हई 114 रजिस्ट्रियां 

होशंगाबाद जिले के इटारसी शहर में ऐसे 114 मामलों का खुलासा हुआ है जहां सन्‌ 1985 से अक्तूबर, 2010 के बीच नजूल की जमीन बाकायदा रजिस्ट्री कर बेच दी गई. श्रीवास्तव समिति की रिपोर्ट के मुताबिक इटारसी शहर में नजूल शीट नंबर 6 और 3 के प्लॉट नंबर 3/1 रकबा 1,41,935 वर्ग फुट जमीन एच.ए. राजा और ए.ए. सैफी के नाम नजूल में दर्र्ज है. राजा की मृत्य कई वर्ष पहले हो चुकी है, लेकिन नजूल रिकॉर्ड में उनके वारिसों के नाम दर्ज नहीं है. हातिम अली के पुत्र जमीन पर नाम चढ़ाए बगैर फर्जी तरीके से जमीन की रजिस्ट्री कर शासन की कीमती जमीन बगैर हस्तांतरण के बेच रहे हैं, जबकि पट्टा निरस्त हो चुका है.

समिति ने अपनी सिफारिश में कहा कि इस मामले में की गई सभी रजिस्ट्रियां शून्य घोषित की जाएं. इसके अलावा झूठे आधार पर रजिस्ट्री करने वाले विक्रेता के खिलाफ सक्षम धाराओं में कार्रवाई की जाए. समिति ने 15 जुलाई, 2010 को अपनी रिपोर्ट पेश की थी. सूत्रों की मानें तो इटारसी में इस अवैध जमीन को खरीदने वालों में भोपाल के कुछ राजनीतिक परिवार शामिल हैं.

मामले में कार्रवाई के सवाल पर प्रदेश के राजस्व विभाग के प्रमुख सचिव मनोज श्रीवास्तव ने कहा, ‘पूरे प्रदेश में नजूल की जमीन को अवैध तरीके से बेचने के मामले सामने आ रहे हैं. यह बड़ा मामला है और इसके लिए व्यापक गाइडलाइन तैयार करनी होगी.’

गौरतलब है कि श्रीवास्तव ने ही भोपाल संभाग आयुक्त पद पर रहते हुए यह रिपोर्ट तैयार की थी और अब राजस्व प्रमुख सचिव होने के नाते कार्रवाई भी उन्हीं को करनी है.
5.भोपाल से सटे दो गांवों की जमीन कब्जाई, बेची और गायब
चांचेड़ और गनियारी गांवों में 1994 में तैयार कराए 1963 के फर्जी कागजात 

भोपाल से सटे दो गांवों चांचेड़ और गनियारी में एस.के. भगत के नाम पर तहसीलदार ने करीब 450 एकड़ जमीन कर दी और इस बात का ध्यान तक नहीं रखा कि सीलिंग आदेश लागू होने के बाद किसी व्यक्ति के पास इतनी जमीन कैसे हो सकती है. मामला आजादी के बाद पाकिस्तान चले गए लोगों की भारत में जमीन से जुड़ा है. इस जमीन को शत्रु संपत्ति या निष्क्रांत संपत्ति भी कहा जाता है. इस मामले में भगत नाम के व्यक्ति ने दोनों गांवों में 1962 और 1963 में यह जमीन दिए जाने का दावा किया गया है.

लेकिन मनोज श्रीवास्तव समिति के मुताबिक जमीन पर कब्जे के कागजात 1994 में तैयार किए गए और उन्हें 1962 और 1963 की तारीखों में दिखाया गया. रिपोर्ट में कहा गया, ‘वस्तुतः यह 1994 के बाद की गर्ई कोशिश प्रतीत होती है. राजस्व आज्ञापत्र पर कुछ मार्किंग्स (टिप्पणियां) जिस तरह के पेन से हैं, वे 1963 में चलन में भी नहीं आए थे.

पूरे मामले में गैरकानूनी, धोखाधड़ी और शरारतपूर्ण कार्रवाई को देखते हुए इसमें म.प्र. भू राजस्व संहिता की धारा 115 के तहत कार्रवाई की जाए.’ लेकिन मजे की बात यह है कि कार्रवाई अब होगी किस पर क्योंकि भगत परिवार तो यहां की तकरीबन सारी जमीन बेचकर कोई एक दशक पहले यहां से चला गया है.

भगत के पुराने मकान में रह रहे फूल सिंह ने बताया, ‘भगत साहब तो 10-12 साल पहले ही जमीन बेचकर यहां से जा चुके हैं.’ भोपाल मुख्य शहर से महज 8 किमी की दूरी पर स्थित इन गांवों में जमीन की कीमत अब तेजी से बढ़ रही है.
6.जंगल की 7,987 एकड़ जमीन पर आश्रम का कब्जा
हरदा जिले के टिमरनी के पास राधास्वामी सत्संग सभा के पास है जमीन 

यह मामला हरदा जिले के टिमरनी इलाके का है. यहां राजाबरारी एस्टेट की 7987.80 एकड़ जमीन पर विवाद है. यह पूरी जमीन संरक्षित वन क्षेत्र में आती है. इस मामले में राधास्वामी सत्संग सभा ने दावा किया है कि मध्य प्रदेश भूराजस्व अधिनियम के तहत उसके पास लीज के संपूर्ण अधिकार और सुविधाएं हैं. सभा के मुताबिक शासन और संस्था के बीच 1953 में मूल करारनामा और 1956 में सप्लीमेंट्री करारनामा हुआ.

सभा यहां श्री राधास्वामी ट्रेनिंग, एम्पलायमेंट एवं आदिवासी अपलिफ्टमेंट इंस्टीट्यूट भी चलाती है. रिपोर्ट के मुताबिक, ‘लीज का 1953 और 1956 में पंजीयन अधिनियम के तहत पंजीयन होना था. हुआ नहीं. लीज 1953 और 1956 में स्टांपित ही नहीं थी.’  रिपोर्ट में कहा गया कि सभा को जिस तरह की लीज मिली थी उसमें गैरवानिकी प्रयोग निहित थे, लिहाजा वन भूमि घोषित होने के बाद लीज मान्य नहीं होगी. लीज रद्दी की जाए.’

मामले पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए सभा के सचिव गुरमीत सिंह ने कहा, ‘सारे आरोप झूठे और बेबुनियाद हैं. सभा के काम की तारीफ उच्च अधिकारी और कैबिनेट स्तर के मंत्री तक कर चुके हैं. यह वाद रिवन्यू बोर्ड में विचाराधीन है. वैसे भी राज्य सरकार का अधिकारी के सरकार के शीर्ष स्तर के फैसले को चुनौती नहीं दे सकता.’

सवाल यह है कि जब सूबे में सालों  से चल रहे जमीन के गोरखधंधे की परतें सामने आ चुकी हैं, तो सरकार दोषी अफसरों और जालसाजों को सलाखों के पीछे भेजने में इतनी देर क्यों लगा रही है, कहीं देरी के राजनीतिक मायने तो नहीं हैं?

-साथ में सुरैह नियाजी भोपाल से, महेश शर्र्मा उज्जैन से और समीर गर्ग ग्वालियर से

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