सत्ताईस साल पहले भारत आने पर फेथ पांडियन का नाम कुछ और था. हाथ में लोनली प्लैनेट की गाइड थामे, वे भारत की संस्कृति देखने के ख्याल से आई थीं. फेथ पैदा तो न्यूजीलैंड में हुई थीं लेकिन ऑस्ट्रेलिया में काफी प्रवास किया था उन्होंने. वहां भारत के बारे में धारणा एक गरीब और गंदे देश की थी.
दोस्तों ने भी उनको न जाने की सलाह दी पर वे न मानीं. घूमते-घामते 1994 में हिंदुस्तान आईं तो एक दिन दक्षिण के तिरुमलै जा पहुंचीं. वहीं रमण महर्षि के आश्रम में यूं ही उत्सुकतावश मंदिर में प्रवेश किया. फेथ बताती हैं कि वहां उन्हें अचानक एक प्रेरणा-सी जगती प्रतीत हुई. धर्म और संस्कृति की कुछ भी जानकारी न होते हुए भी उन्हें लगा कि कोई उन्हें वहां बुला रहा है.
खुद आने के साल भर के अंदर उन्होंने मित्रों का भी पहला जत्था बुला लिया. ''मेरे हृदय की आवाज कह रही थी कि मैं उन सबको बुलाऊं.'' गांधी की तरह उन्होंने सोचा कि भारत को सही मायने में देखने-जानने के लिए रेलगाड़ी और बस से ही सफर करेंगी. इन यात्राओं में उन्होंने जनसाधारण के साथ आत्मीय संबंधों को देखा. उन्होंने ऑस्ट्रेलियाई दोस्तों की गाइड का रोल अपना लिया.
पर्यटन का खास ज्ञान न होते हुए भी उन्हें भारत का दर्शन कराया. सारा भारत घूमकर भी उन्हें तिरुमलै का सादा जीवन ही भाया. यहीं उनकी मुलाकात पांडियन से हुई, जो सादगी की प्रतिमूर्ति थे. कुछ साल बाद दोनों ने विवाह कर लिया.
लोगों को पर्यटन के लिए हिंदुस्तान लाना अब उनका जुनून बन चला था. पति के साथ उन्होंने इंडियन पनोरमा नाम की कंपनी खोली और फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा. आज उनकी कंपनी में 160 लोग काम करते हैं और भारत के दक्षिणी प्रदेशों में वह एक अग्रणी पर्यटन यात्रा प्रबंधन कंपनी बन चुकी है.
फेथ का नन्हा बेटा अभी चार साल का ही है. वे उसे भी अतिथि को देवता मानने की लगातार प्रेरणा देती हैं. एक हफ्ते रुकने के इरादे से आईं फेथ को अब यहां रहते 27 साल हो गए हैं. तीन दशक पहले जिस किताब को थामकर वे भारत देखने आई थीं, उसी लोनली प्लैनेट में अब उनकी कंपनी के नाम की सिफारिश है. भारत और दुनिया की कई पर्यटन संस्थाओं ने फेथ के प्रयासों को सराहा है. पर उन्हें सबसे मजेदार बात यह लगती है कि जिन दोस्तों ने उन्हें भारत आने से सावधान किया था अब वे ही हर साल नए-नए लोग लेकर आते हैं.