जन्म से लेकर अब तक आपकी समूची मेडिकल हिस्ट्री, लक्षणों के आधार पर बनती डायग्नोसिस की संभावनाएं, यह खास जानकारी कि ऐसे में कौन-से डायग्नोस्टिक टेस्ट करना सबसे सार्थक होगा, इम्युनोलॉजिकल और इमेजिंग टेस्ट के नतीजों का आकलन, रोग का डायग्नोसिस हो जाने पर उपचार के सभी नए से नए विकल्प, आपकी उम्र और वजन के हिसाब से दवाओं की सही-सही खुराक और भी बहुत कुछ.
मुद्दा कोई भी हो, और कितना ही पेचीदा क्यों न हो, उसका हल आज आपके डॉक्टर की मुट्ठी में है. मेडिकल साइंस ने न सिर्फ लोगों की उम्र बढ़ा दी है, बल्कि जिंदगी की क्वालिटी को भी बेहतर बनाया है.
अच्छी बात यह है कि मेडिकल साइंस की नई टेक्नोलॉजी का फायदा उठाने के लिए जरूरी नहीं है कि विदेश या महानगरों में भागना पड़े. मझौले और छोटे शहरों के कई अस्पताल भी अब विश्वस्तरीय टेक्नोलॉजी से लैस हैं या हो रहे हैं. टेक्नोलॉजी की रफ्तार बेहद तेज है और नए आविष्कार होने से लेकर इनके आपके शहर की लैब और अस्पताल तक पहुंचने में लगने वाला वक्त अब घट गया है.
चिकित्सा शास्त्र में ऐसी अनेक नई क्रांतिकारी प्रौद्योगिकियों ने जन्म लिया है, जिनसे न सिर्फ रोग-निदान की दुनिया में नए आयाम जुड़े हैं और नए डायग्नोस्टिक तौर-तरीके ईजाद हुए हैं, बल्कि जिंदगी की बुझ्ती सांसों को जिलाए रखने में काम आने वाले कई नए बेहतरीन इलाज भी विकसित हुए हैं. टेलीकॉम क्रांति ने मेडिकल साइंस की दुनिया में भी नई क्रांति ला दी है. मोबाइल फोन के एप्स (एप्लिकेशंस) ने आपके डॉक्टर के लिए इलाज करना आसान बना दिया है. पिछले दसेक साल में नई टेक्नोलॉजी ने मेडिकल साइंस की दुनिया ही बदल दी है.
सर्जरी के नए तेवर
नई टेक्नोलॉजी के विकास से बीते दशकों के मुकाबले सर्जरी दिनोदिन सूक्ष्मतर होती जा रही है. बीमार अंग तक पहुंचने के लिए सर्जन के स्कव्ल्पल (छुरी) से जिस्म पर बड़ा चीरा लगाने की घटना अब पुराने दिनों की बात होती जा रही है. लेप्रोस्कोपिक सर्जरी, रोबोटिक सर्जरी और लेजर से की जाने वाली सूक्ष्म शल्य तकनीकें अब तेजी से सर्वत्र उपलब्ध हो चली हैं.
बड़ी संख्या में सर्जन इन नई तकनीकों में निपुण होते जा रहे हैं. कभी विदेशों में ही उपलब्ध ये तकनीकें अब भारत के कई शहरों में उपलब्ध हैं. इस वजह से ऑपरेशन के समय रोगी को पहले के मुकाबले कम ही तकलीफ झेलनी पड़ती है. ब्लड लॉस भी कम होता है और ऑपरेशन के बाद अब रोगी बहुत जल्द सामान्य अनुभव करने लगता है.
ऑपरेटिंग माइक्रोस्कोप की मदद से माइक्रोसर्जन असंभव मालूम होने वाली ऑपरेशन जैसी किसी दुर्घटना में कटे हाथ-पैर, उंगलियां और दूसरे अंग शरीर के साथ पुनः जोड़ने में सक्षम हैं. नेत्र, कान के आंतरिक हिस्सों, मेरूदंड, तंत्रिकाओं और रक्त-वाहिकाओं की सूक्ष्म सर्जरी करने में भी ऑपरेटिंग माइक्रोस्कोप की बेजोड़ उपयोगिता है. अब कुछ विशिष्ट शल्य केंद्रों में सर्जन गर्भस्थ शिशु की शारीरिक विकृतियों को दूर करने के लिए भी ऑपरेशन करने लगे हैं.
सर्जरी की निरंतर नई तकनीकें भी ईजाद हो रही हैं. लेजर की मदद से चीर-फाड़ करने पर न तो खून जाया होता है, न ही ज्यादा चीर-फाड़ करनी पड़ती है. खास किस्म की शॉक वेव्स उपलब्ध होने से अब गुर्दे और मूत्रनली की पथरी का चूरा कर उसे मूत्रीय प्रणाली से बाहर निकाला जा सकता है. पहले इसके लिए बड़े ऑपरेशन की जरूरत पड़ती थी. रोबोटिक सर्जरी और टेलीमेडिसिन के मेल-मिलाप से अब सर्जन दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्र में बीमार हुए व्यक्ति की इमरजेंसी सर्जरी सैकड़ों मील दूर से ही किसी स्थानीय डॉक्टर की मदद से कर सकता है.
दिल, गुर्दे, लिवर, डिंबवाही नलिकाओं सहित शरीर के बहुत-से अंगों के छोटे-मोटे ऑपरेशन अब शरीर को खोले बगैर किए जा रहे हैं. समय के साथ इस मिनीमल इनवेसिव सर्जरी में लगातार तकनीकी सुधार हो रहा है और जैसे-जैसे डॉक्टरों का अनुभव बढ़ रहा है, वैसे-वैसे उसमें नए आयाम जुड़ते जा रहे हैं और यह परंपरागत ऑपरेशनों का स्थान लेती जा रही है (देखें बॉक्सः इंटरवेंशनल रेडियोलॉजी).
नई इमेजिंग तकनीकें
पिछले दिनों पूरी दुनिया में हुए एक बड़े सर्वेक्षण में आम आदमी ने एक्स-रे की खोज को पिछली सदी की सबसे बड़ी वैज्ञानिक उपलब्धि का दर्जा दे डायग्नोस्टिक इमेजिंग को नए शिखर पर खड़ा कर दिया है. विकिरण की देवतुल्य किरणों से शुरू हुआ यह करामाती विज्ञान आज आदमी की अंदरूनी दुनिया के जीते-जागते चित्र प्रस्तुत करने की क्षमता रखता है.
उसकी विविध विधाओं में शामिल हैं एक्स-रे से जन्म लेते इमेज, अल्ट्रासाउंड की सोनार प्रतिध्वनियों से प्रकट होती जीवंत छवियां, एक्स-रे तथा कंप्यूटर यांत्रिकी के परिणय से उपजे सी.टी. स्कैनर पर उभरते शरीर के सूक्ष्मतर अक्स, मैग्नेटिक रेजोनेंस स्कैनर के विशालकाय चुंबक की ताल पर नाचते-थिरकते शरीर के अणुओं से उपजी शरीर की सच्ची अंतरंग तस्वीरें!
फंक्शनल एमआरआइ
बीते दो दशकों से मैग्नेटिक रेजोनेंस इमेजिंग (एमआरआइ) मेडिकल साइंस में रोग-निदान का सशक्त माध्यम बनी हुई है. डेढ़ से तीन टैसला के शक्तिमान विशालकाय चुंबक से शरीर के ऊतकीय अणुओं को लट्टू के समान नचा, उनसे उपजते स्वर ग्रहण कर भीतरी अंगों के जीते-जागते बिंब प्रस्तुत करने में एमआरआइ की महारत अद्भुत है. इतना ही नहीं, उसकी क्षमताओं में दिनोदिन नए अध्याय भी जुड़ते जा रहे हैं. फंक्शनल एमआरआइ टेक्नोलॉजी इन्हीं में से एक है.
आज शोध वैज्ञानिक और डॉक्टर उसके इस्तेमाल से मस्तिष्क के अणुओं को नचा ब्रेन के विभिन्न हिस्सों में घट रही जैविक प्रक्रियाओं का क्षण-क्षण चित्रण करने में सफल हैं. इससे बहुत से मस्तिष्कीय विकारों और मनोवैज्ञानिक रोगों के आण्विक आधार का खुलासा तो हुआ ही है, तरह-तरह की उपचार पद्धतियों जैसे मेडिटेशन, योग और मानसिक खेलों की उपयोगिता और व्यक्तिगत गुणों-अवगुणों का वैज्ञानिक जायजा ले पाना भी मुमकिन हो गया है.
एम.आर. स्पेक्ट्रोस्कोपी
क्लीनिकल मेडिसिन में एम.आर. स्पेक्ट्रोस्कॉपी का प्रवेश भी नई सुबह बनकर आया है. उसकी बदौलत शरीर के बीमार हिस्से का बिना चीर-फाड़ किए जैव-रासायनिक विश्लेषण कर पाना मुमकिन है. उसके इस गुण से चुनिंदा मरीजों में रोग की असल तह तक पहुंचना आसान हो गया है. तरह-तरह के संक्रामक रोगों जैसे टी.बी., तरह-तरह के ट्यूमर, किस्म-किस्म के कैंसर के बीच भेद बता पाने में यह विधि आज प्रभावी सिद्ध हो रही है. अलग-अलग असामान्यताओं के हिसाब से शरीर की ऊतकीय जैव-रासायनिक संरचना में आए फेरबदल को समझ डॉक्टर रोग का पुष्ट निदान करने में आज सक्षम होते जा रहे हैं.
पॉजीट्रॉन एमिशन टोमोग्राफी
पॉजीट्रॉन एमिशन टोमोग्राफी (पीईटी-पैट) आज डायग्नोस्टिक इमेजिंग की नवीनतम जांच पद्धतियों में से है. और सबसे खर्चीली भी! यह न्यूक्लियर मेडिसिन इमेजिंग तकनीक है जिससे शरीर की फंक्शनल प्रक्रियाओं की थ्री डायमेंशनल तस्वीरें उभरती हैं. यह प्रणाली खास किस्म के रेडियोधर्मी पदार्थों का प्रयोग करती है. इसकी खूबी यह है कि शरीर में सिर से पांव तक यह किसी भी अंग में हो रही जैव-रासायनिक गतिविधियों का सूक्ष्मतर ब्यौरा पेश कर सकती है. इतना ही नहीं, उसकी मदद से शरीर के किसी खास अंग में जा रही कुल रक्त सप्लाई की जानकारी भी हासिल की जा सकती है.
चूंकि पैट अपने से शरीर की आंतरिक रचनाओं की अच्छी तस्वीरें नहीं दे पाता, इसलिए पैट और सी.टी. स्कैनर का आपस में निकाह कर दिया गया है. दोनों एक-दूसरे के पूरक बन शरीर में हो रही जैव-रासायनिक गतिविधियों के साथ-साथ शरीर की आंतरिक रचनाओं में हुए सूक्ष्मतर परिवर्तनों का ब्यौरा देने में अत्यंत उपयोगी साबित हो रहे हैं.
पैट रेडियोन्यूकलाइड इमेजिंग का परिष्कृत रूप है और उन खास रेडियोधर्मी पदार्थों का इस्तेमाल करता है जो पॉजीट्रॉन उत्सर्जित करते हैं. जिस अंग की जांच करनी होती है, उसके मुताबिक खास रेडियोधर्मी पदार्थ शरीर में इंजेक्ट कर, उस अंग से उत्सर्जित होने वाले पॉजीट्रॉनों की सघनता विशिष्ट पैट स्कैनर यंत्र से जांच ली जाती है. साथ जुड़े सी.टी. स्कैनर पर उभर रही तस्वीरों से यह भी साफ दिख जाता है कि अंग के उस खास भाग में क्या असामान्यताएं आई हुई हैं.
शुरू के वर्षों में पैट को मस्तिष्क और दिल की जांच में ही काम में लाया जाता रहा, पर उसका डायग्नोस्टिक क्षेत्र अब निरंतर बढ़ता जा रहा है. उसका सबसे अधिक लाभ कैंसर रोगियों को मिला है. कैंसर रोगियों में यह जानना जरूरी होता है कि कैंसर शरीर में कहां-कहां फैला हुआ है. इसी से रोग की अवस्था 'स्टेज' तय होती है और यह बड़ा फैसला लिया जाता है कि किस रोगी के लिए कौन-सा इलाज सबसे सार्थक होगा. पैट-सीटी के साथ यह स्टेजिंग काफी विश्वसनीयता के साथ की जा सकती है.
कुछ खास न्यूरोलॉजिकल समस्याओं की तह तक पहुंचने में भी पैट का इस्तेमाल होने लगा है. मिर्गी के मरीजों में उसकी मदद से मस्तिष्क के उस हिस्से को खोजने की कोशिश की जा सकती है जहां से दौरे की शुरुआत होती है. मिर्गी के उन मरीजों में जिन्हें दवा से आराम नहीं मिलता, यह महत्वपूर्ण जानकारी कभी-कभी ऑपरेशन से उपचार का रास्ता खोल देती है. एल्जाइमर, माइग्रेन और डिप्रेशन के मरीजों में भी मस्तिष्क के विभिन्न हिस्सों का हालचाल जानने के लिए पैट का इस्तेमाल हुआ है. ये जांच-परीक्षण अभी प्रायोगिक स्तर पर ही किए जा रहे हैं.
पैट-सीटी की दो बड़ी सीमाएं भी हैं: एक यह कि यह जांच काफी महंगी है, प्रत्येक जांच कराने पर 18,000 से 25,000 रु. का खर्च आता है. दूसरी यह है कि जांच के समय रोगी को काफी रेडिएशन झेलनी पड़ती है.
टेलीरेडियोलॉजी
कंप्यूटर और सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्रों में आई क्रांति ने टेलीरेडियोलॉजी के सपने को भी सच कर दिया है. अब इसके द्वारा किसी भी जांच के समूचे बिंब कहीं भी भेजे जा सकते हैं और उनकी रिपोर्ट प्राप्त की जा सकती है. नतीजतन इसके जरिए रेडियोलॉजिस्ट किसी भी जांच को लेकर आपस में विचार-विमर्श कर सकते हैं, साथ ही, ग्रामीण और सूदूर क्षेत्रों में डायग्नोस्टिक इमेजिंग की सुविधाएं पहुंचाना भी आसान हो गया है. सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में बैठा टेक्नीशियन रोगी की जांच कर इंटरनेट के माध्यम से उन तस्वीरों को शहर में बैठे रेडियोलॉजिस्ट के पास क्लीनिकल जानकारी के साथ भेज उसकी रिपोर्ट पा सकता है. देशभर में रेडियोलॉजिस्ट की कम संख्या के मद्देनजर टेलीरेडियोलॉजी रोगियों के लिए वरदान साबित हो रही है.
आइटी और मेडिसिन का साथ
एक समय था कि किसी भी जानकारी के लिए डॉक्टरों को मोटी-मोटी पोथियां, मेडिकल साइंस की शोध-पत्रिकाएं, तरह-तरह के संदर्भ ग्रंथ टटोले बगैर काम नहीं चलता था. अब न सिर्फ अधिकांश प्रामाणिक संदर्भ ग्रंथ, बल्कि सभी शोध-पत्रिकाएं और उनमें दर्ज जानकारियां उनकी उंगलियों पर उपलब्ध हैं. अपने डॉक्टरी कोट की जेब में रखे जा सकने वाले पर्सनल डिजिटल असिस्टेंट की मदद से डॉक्टर जब चाहे, तब किसी मरीज की बाबत जानकारी हासिल कर सकता है, किसी खास विषय पर अब तक हुए वैज्ञानिक शोध की ताजा स्थिति जान सकता है, अपने मरीजों का डाटा दर्ज कर उनसे निचोड़ निकाल उनकी प्रस्तुति कर सकता है और चाहे तो उन्हें शोध लेख में गूंथ ऑन-लाइन प्रकाशित कर सकता है.
प्रिस्क्रिप्शन में आया सुधार
कई बड़े मेडिकल साइंस प्रकाशकों और आइटी कंपनियों ने ऐसी मुस्तैद सेवाएं मुहैया कर दी हैं जिनसे मेडिकल प्रैक्टिस में होने वाली छोटी-बड़ी गलतियों पर अंकुश लगने में भारी मदद मिली है. कुछ मोबाइल एप्स जैसे ड्रग फैक्टस, क्लीनिकल एवीडेंस, ई-पोकिरेटस हर तरह की दवाओं की उपयोगिता, डोज, सावधनियां और चेतावनियों का जखीरा हैं. दवा लिखने से पहले उन पर नजर दौड़ाकर डॉक्टर निश्ंिचत हो सकता है कि वह वही दवा लिख रहा है जिससे उसके मरीज को लाभ पहुंचेगा. अमेरिका में हुए अध्ययनों से पता चला है कि इन मोबाइल एप्स के आने से वहां दवाओं की प्रिस्क्रिपशनों में होने वाली 80 प्रतिशत गलतियां दूर हो गई हैं. 5-मिनट क्लीनिकल कंसल्ट 900 से अधिक रोग-विकारों पर तात्कालिक टू-द-प्वाइंट गाइडेंस देने में समर्थ आधुनिक युक्ति है. इसी तरह दुनियाभर में लोकप्रिय मर्क मैनुअल, हैरीसन की मैनुअल ऑफ मेडिसिन, एमजीएच हैंडबुक ऑफ जनरल हॉस्पिटल साइकिएट्री, संक्रामक रोगों का पूरा लेखा-जोखा देने वाली रेड बुक तथा कंट्रोल ऑफ कम्युनिकव्बल डीजिजस मैनुअल, बाल रोगों पर केंद्रित पिडिएट्रिक्स सेंट्रल, इमरजेंसी मेडिसिन पर केंद्रित इमरजेंसी सेंट्रल, ऐनेस्थिसिआ पर केंद्रित ऐनेस्थिसिआ सेंट्रल और इन जैसी अनेक मोबाइल एप्स आज डॉक्टरों की मुट्ठी में पहुंच चुकी हैं. सभी का लक्ष्य यह है कि डॉक्टर सभी चीजों को अपने विवेक और ज्ञान से तौल-समझ कर रोगी के हित में फैसला ले सके. पॅकेट गाइड टू डायगनोस्टिक टेस्ट्स के माध्यम से 350 से अधिक लैबोरेटरी, माइक्रोबायोलॉजी और इमेजिंग जांचों की उपयोगिता और नतीजों की विश्वसनीयता पर अद्यतन जानकारी पाना भी डॉक्टरों के लिए आसान हो गया है.
रोज ऐसे नए-नए सॉफ्टवेयर विकसित होते जा रहे हैं जिनसे डॉक्टर अपना हर फैसला विशुद्ध वैज्ञानिक विश्वसनीयता के आधार पर ले सकें.
स्वास्थ्य-कुंडली बनवाएं
हमारी आनुवंशिकी की मूलभूत इकाई जीन है. इसी से हर किसी का रूप-स्वरूप तय होता है. प्रत्येक जीन डीऑक्सीराइबो न्यूक्लिक एसिड (डीएनए) अणुओं के टुकड़ों से बना होता है और उसकी बदौलत ही लंबे धागेनुमा क्रोमोजोम की रचना होती है. जीन की डीएनए इकाई में संचित जानकारी के आधार पर कोशिका के भीतर नाना प्रकार की प्रोटीन का संश्लेषण होता है. ये प्रोटीन ही कोशिका के भीतर चल रही जीवनदायी गतिविधियों को अंजाम देती हैं.
सन 2003 में ह्यूमन जीनोम के मूल 31,000 जींस के नक्शे की खोज इस दिशा में वैज्ञानिकों की बहुत बड़ी उपलब्धि रही है. चिकित्सा वैज्ञानिकों के पास अब मनुष्य जीवन का समूचा ब्लू प्रिंट उपलब्ध हो गया है. इस बड़ी खोज के बाद अब वैज्ञानिक इस जतन में जुटे हैं कि वे उन जींस को ढूंढ लें जो दूसरे जींस की संगत में या बाहरी रोगप्रेरक तत्वों जैसे खानपान, संक्रमण और गर्भकाल में हुई किसी गड़बड़ी के साथ षड्यंत्र रच डायबिटीज, उच्च रक्तचाप, कोरोनरी हृदय रोग और कैंसर जैसे गंभीर रोग पैदा करते हैं. जतन किए जा रहे हैं कि इन रोगप्रेरक जींस की खोज कर ऐसे नैदानिक टेस्ट विकसित किए जाएं जिनसे बचपन में ही यह भविष्यवाणी हो सके कि अमुक व्यक्ति किन-किन रोगों से घिर सकता है. इन जेनेटिक प्रिडिक्टिव टेस्टों की मदद से जन्म के समय ही व्यक्ति की स्वास्थ्य-कुंडली तैयार हो सकेगी. उसे जीवन के शुरू में ही इन रोगों के प्रति सचेत किया जा सकव्गा. जीन थेरैपी में नई खोज होने पर इन रोगप्रेरक जींस के तोड़ भी विकसित हो सकते हैं.
रोगप्रेरक जींस कब-कैसे काम करती हैं, यह राज नई दवाएं तैयार करने में भी काम आ रहा है. हाल के वर्षों में रक्त कैंसर की एक किस्म क्रोनिक मायलोयड ल्यूकीमिया के लिए विकसित की गई एसटीआइ-571 'ग्लीवेक' दवा जीन विज्ञान से ही जन्मी है. यह दवा उस विषाणु-प्रेरित प्रोटीन पर अंकुश लगाती है जिससे क्रोनिक मायलोयड ल्यूकीमिया उत्प्रेरित होता है.
जीन विज्ञान में हुई नई खोजों से औषधीय विज्ञान में भी क्रांति होने की उम्मीद है. अभी तक सभी डॉक्टर रोग का डायग्नोसिस कर इसी एक बुनियाद पर दवा लिखते हैं. कुछ रोगियों में दवा काम कर जाती है, और कुछ में यह जरा भी काम नहीं करती. इसी तरह कुछ लोगों में वही दवा साइड इफेक्ट्स कर जाती है, जबकि कुछ लोगों को वह जरा भी परेशान नहीं करती. नई दवाएं विकसित करने वाले वैज्ञानिक जीन विज्ञान के आधार पर ऐसी डिजाइनर दवाएं विकसित करने में जुटे हैं जो व्यक्ति के जींस को ध्यान में रखकर तैयार की जाएंगी, साइड इफेक्ट्स से मुक्त होंगी और अधिक प्रभावशाली होंगी.
स्टेम सेल से भेड़, चूहे और बछड़े के क्लोन बनाने के बाद वैज्ञानिक अब आदमी के अंगों की खेती करने का जतन कर रहे हैं. बायोटेक्नोलॉजी से उन्होंने स्टेम सेल का न्यूक्लियस बदलने और उससे तरह-तरह की कोशिकाएं विकसित करने में पहली कामयाबी हासिल कर ली है. अभी जैव-इंजीनियरिंग की ये सुविधाएं नियमित तो नहीं, मगर मेडिकल साइंस के कुछ बड़े संस्थानों में प्रायोगिक तौर पर उपलब्ध हैं. अग्न्याशय, मेरूदंड और मस्तिष्क के कुछ विशेष रोगों में स्टेम सेल कोशिकाओं के प्रत्यारोपण से मरीज को नया जीवन देने के प्रयत्न कामयाबी के रंग देख चुके हैं.
नई चुनौतियां, नई मंजिलें
जीन थेरैपी से आनुवंशिक विकार मिटाने की मुहिम तेज हो चुकी है. निदान की सूक्ष्मतर और अधिक विश्वसनीय डायग्नोस्टिक तकनीकें खोजने की भी पुरजोर कोशिश जारी है. शरीर में आण्विक स्तर पर काम करने वाली अधिक प्रभावशाली नई दवाएं ईजाद करने पर भी निरंतर काम हो रहा है. ये दवाएं अर्जुन के तीर की तरह सीधे अपने लक्ष्य पर काम कर सकेंगी. बायोमेडिकल इंजीनियरिंग लैब्स में ऐसे बायो पदार्थ भी तैयार किए जा रहे हैं जिनसे कृत्रिम अंगों की रचना हो सकेगी.
यह सदी बायोटेक्नोलॉजी की सदी होगी. आशाएं कई हैं-जीन इंजीनियरी से हम कैंसर की रोकथाम के नए टीके ईजाद कर लेंगे! शरीर में फैली कैंसर की मैलिगनेंट कोशिकाओं को हम चुन-चुनकर नष्ट कर सकने वाली नई दवाएं बना लेंगे! बूढ़े दिल को फिर से जवां बनाने के लिए उसकी पेशिय कोशिकाओं में स्टेम सेल रोपित कर नई शक्तिशाली पेशियां उगा सकेंगे! उसे ऊर्जित करने वाली नई प्राणदायी धमनियां उगा लेंगे! और शायद, अपने जींस में टिक-टिक कर रही उम्र की घड़ी में ऐसे फेर-बदल करने में भी हम कामयाबी पा लें कि हमारी कोशिकाएं चिरयुवा बनी रहें, उम्र की उन पर सीमा ही न रहे! कोशिकाओं में क्रोमोजोम्स के आखिरी सिरे-टेलोमियर की लंबाई बढ़ा हमारी उम्र 150 वर्ष तो हो ही जाएगी, इसकी पूरी संभावना है!
डॉ. यतीश अग्रवाल नई दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में वरिष्ठ डॉक्टर और प्रोफेसर हैं. पिछले 32 वर्षों से वे मेडिसिन और जनस्वास्थ्य के विषय पर लिखते रहे हैं.