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अब गालियों के खिलाफ खड़े होने का वक्त आ गया है- 1

यूं तो भाषा के विरुद्ध कई 'रक्तबीज' असुर खड़े हो चुके हैं जिनको चिन्हित कर नष्ट करने की आवश्यकता है किंतु सबसे बड़ा राक्षस है गाली

फोटो सौजन्यः इंडिया टुडे
फोटो सौजन्यः इंडिया टुडे
अपडेटेड 3 अक्टूबर , 2019

बेबाक/ ओमा दी अक्

"भारत एक संस्कार है. एक ऐसा संस्कार, जिसके समक्ष महान यूनान, ताकतवर मिस्र, सांस्कृतिक फारस, चालाक अरब, भौतिकवादी यूरोप और शक्तिशाली चीन की चरम-सभ्यताओं ने सर झुकाया और भारत का प्रशस्तिगान किया.

पाइथागोरस, मूसा, ईसा, मुहम्मद, अरस्तू, सिकन्दर, रूमी, अल बरुनी, इब्नबतूता,  बर्नियर, फाह्यान, ह्वेनसांग, बहाउल्लाह, नीत्से, शॉपनआवर, मैक्समूलर, एनी बेसेंट, वेल्स, जिब्रान, बुल्के, आइंस्टीन और मंडेला जैसे युग-पुरुषों द्वारा इसके संस्कार को अपनाने और सराहने का कार्य समय-समय पर हुआ और आज भी हो रहा है.

हालांकि, भारत ने न कोई बड़ी तकनीकी क्रांति की, न आर्थिक, न राजनैतिक, न सामाजिक और न ही मनोरंजन की क्रांति में ही भारत का बड़ा योगदान है वैश्विक पटल पर. परन्तु जब भी कभी 'मनुष्यता को मनुष्यता की' समझ बढ़ानी पड़ी है तब उसने भारत की ओर देखा और अनुशरण करने लगी. और तब यह महान भारत कभी वेद के रूप में, कभी उपनिषद, कभी पुराण, कभी शास्त्र, कभी वेदांत, कभी रामायण, कभी गीता, कभी हिन्द-स्वराज और कभी गीतांजलि के रूप में संसार को चकित करते हुए अपना प्रशंसक बनाता रहा.

इन प्रमाणों से सिद्ध है कि भारत के संस्कार वास्तव में भाषा के संस्कार हैं. इसी कारण हमने भाषा को 'असुर-विनाशिनी सरस्वती वाग्देवी' के रूप में वैदिक काल से पूजा और स्वयं में स्थापित कर के ब्राह्मणत्व की उद्घोषणा की. 

भारत की गंवई बोली में प्रायः यह दोहराया जाता है कि "जिह्वा पर सरस्वती का वास होता है!" अतएव, भारतीय द्विज परम्परा में भाषा की शुद्धता पर कठोर नियम होते थे. और समाज में भी प्रायः भाषा की मर्यादा और परिष्कार से ही व्यक्ति को नागरिक माना जाता था. इसके प्रमाण में कालिदास समेत कई संस्कृत- कवियों की रचनाओं को पढ़ा जा सकता है जहां "असभ्यता की झलक भाषा के संस्कृत से प्राकृत होने पर" पाई जाती है. 

तात्पर्य यह है कि परिष्कृत-भाषा के भीतर ही भारत के संस्कार-बीज पनपते हैं. और वहीं से भारतीय संस्कृति का वटवृक्ष पोषण पाता है. अतः यदि हम भारत की रक्षा की बात करते हैं तो सबसे पहले हमें भाषा की रक्षा करनी होगी.

यूं तो भाषा के विरुद्ध कई रक्तबीज असुर खड़े हो चुके हैं. जिनको चिन्हित कर नष्ट करने की आवश्यकता है किंतु सबसे बड़ा राक्षस है ग़ाली! दुर्भाग्य से भारत में यहूदी-ईसाई-इस्लामिक (यहूदत्रयी) विचारधारा प्रवेश के साथ ही "स्त्री के सम्बंध में भारतीय सोच अधिक कठोर और पाखण्डी हुई". 

हालांकि, स्त्रियों को लेकर कोई 2000 वर्षों से भारत संकीर्ण होता जा रहा था लेकिन यहूदत्रयी-संस्कृति के विस्तार के साथ तो पूरे विश्व समेत भारत में भी स्त्री-दुर्दशा का एक नया कलियुग प्रारम्भ हो गया.

प्राचीन काल के भारत में कुछ एक शब्दों (कुल्टा/पतिता) को छोड़ कर स्त्री-सम्बंधित अपशब्द प्रायः नहीं के बराबर मिलते हैं. लोग अनार्य, अभद्र, उद्दण्ड, लम्पट, वितन्डावादी, क्लीव, कापुरुष, व्यभिचारी, धूर्त, कुत्सित, नीच, अमित्र, राक्षस इत्यादि "दुर्गुण-सूचक" शब्दों से अपशब्द के प्रहार करते थे. 

कभी कभी कुछ निम्नस्तरीय जीवन जीने वालों में "यौन-सम्बंधित-अपशब्दों" का भी चलन रहा होगा किन्तु प्रामाणिक तौर पर ऐसे अपशब्दों या गालियों का भारत मे प्रयोग ना के बराबर था जो "लैंगिक" थे.

पिछली कुछ शताब्दियों में हिंदवी और उर्दू के उत्थान के साथ एक ओर जहां भारत के बड़े क्षेत्र में भाषा का नया स्वरूप सामने आया जो अधिक सुंदर और मृदु था. जिसमें शिष्टाचार प्रदर्शन के अधिक अवसर मिलते थे. वहीं इसके दुष्प्रयोग से कई तरह की गालियों का निर्माण भी होने लगा, जिनमें अधिकांशतः "नारी-अपमान" "यौनांग-आधारित" होने लगीं और पतनोन्मुख भारतीय-समाज में इसने बड़ी तेज़ी से किसी महामारी के समान अपना विस्तार कर लिया. और आज तो यह इतनी सामान्य हो चली है कि इसके विरोध में बोलना चांद पर पत्थर फेंकने जैसा असम्भव कार्य हो गया !

आज के 'हिंग्लिश-युग' में जब 'संस्कृति-संक्रमण' से विश्व एक अलग तरह के विकार को झेल रहा है जिसे "अमानवीयता" कहते हैं. ऐसे में "उर्दू-इंग्लिश-हिंदी-हिंग्लिश" अथवा अन्य भाषाओं में "नारी-अपमानसूचक-अपशब्दों" की एक बाढ़-सी आ रही है. शर्मनाक ढंग से इसे "महिमामण्डित" भी किया जा रहा है. बड़ी चतुराई से ये "स्त्री-विरोधी-गालियां" मनोरंजक-माध्यमों (फ़िल्म/लाफ्टर शो/वेब सीरीज/साहित्य/नाटक इत्यादि) द्वारा तमाम पुरुषों समेत स्त्रियों के मुख में भी बोई जा रही हैं और अब इसे बहुत सामान्य रूप से तथाकथित-सभ्य (एलीट) समाज मे भी स्त्रियों द्वारा सुना जा सकता है (निम्न वर्ग में तो ये सदियों से शामिल था)

मज़ेदार बात है कि यहां सिनेमा में "सिगरेट-शराब-पशुहत्या" पर तो सेंसरशिप है लेकिन गालियों पर कत्तई नहीं (और लगाए कौन सब लिप्त हैं)

आप अपने घर से शुरू कीजिए... और शायद आप के लिए भी ग़ाली रोज़मर्रा की बात हो. भगवान् से अधिक बार "स्त्री-विरोधी" गालियां और अपशब्द आपकी रोज़ की बात-चीत में शामिल होते हैं. विश्वास न हो, तो एक दिन की अपनी सब बात रिकॉर्ड कर के देख लीजिए ( याद रखिये "साला" शब्द भी वास्तव में "बहन की ग़ाली" का रूपांतरण मात्र है) और आप इसे सगर्व-सबल-सुसंस्कृत भाव से देते हैं.

पिछली एक सदी में जबसे वामपंथी-लेखन का भारत में एक बड़ा बाज़ार तैयार हुआ तबसे "ग़ालियों" को साहित्य में प्रवेश का "बैकडोर" प्राप्त हो गया. फणीश्वरनाथ रेणु ने "मैला आँचल" तथा अन्य कृतियों में गाली को स्थान दिया तो "मण्टो" जैसे लेखकों ने "यौन कुंठा" को अपनी "उर्दू-चाशनी" देकर साहित्य की मुख्यधारा में "अपशब्द" को शामिल करने का प्रयास किया. खुशवंत सिंह ने अंग्रेजी माध्यम से अश्लीलता और अपशब्द को एलीट करने में पश्चिम की मदद ली. 

इसके बाद यह एक परंपरा-सी बनने लगी कि यथार्थवादी-लेखन ग़ाली और नग्नता के बिना "नाटकीय" लगेगा. इस तरह अनेक लेखकों, चित्रकारों, गीतकारों, शायरों, पत्रकारों और राजनेताओं तक के भाषणों में "अपशब्द" प्रविष्ट होने लगे जो कहीं कहीं पूरी ग़ाली ही होते थे. मैं इस परंपरा में राही मासूम रज़ा के "आधा गाँव" को खुली गालियों की पहली किताब मानता हूँ फिर अब्दुल बिस्मिल्लाह और डॉ. काशीनाथ सिंह का नाम अवश्य लेना चाहूंगा, जिन्होंने काशी की पृष्ठभूमि में "गाली" को सावन की झड़ी की तरह अपने साहित्य में प्रयोग किया और बहुत वाह-वाही पाई.

दोनों इसे यथार्थ मानते थे और कदाचित ऐसा ही है भी. किन्तु क्या यह यथार्थ तुलसीदास या प्रेमचंद पर नहीं खुला था? या उन्हें यह बोध था कि एक सफल साहित्य केवल अतीत या वर्तमान की व्याख्या भर नहीं करता बल्कि भविष्य की रचना में भी बड़ी भूमिका निभाता है. इस लिए साहित्यकार को हर भविष्य में उपस्थित होना और उत्तरदायी होना पड़ता है! 

जारी...

(ओमा दी अक् वाराणसी में निवास करते हैं, उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा सामाजिक समरसता और ज्योतिष के लिए यशभारती पुरस्कृत, और अपने आध्यात्मिक सामाजिक लेखन और वक्तव्यों के लिए विख्यात हैं. यहां व्यक्त विचार उनके अपने हैं और इंडिया टुडे की उनसे सहमति आवश्यक नहीं है)

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