असारा में 50 वर्षीय मोहम्मद मोकरम ने 6 जुलाई को आधुनिकता की ओर बढ़ते गांव को उस समय पीछे धकेल दिया जब उन्होंने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बागपत जिले के इस गांव में युवा लड़कियों को बुनियादी आजादी से वंचित करने की घोषणा की. हिंदू और मुस्लिम, दोनों समुदायों के करीब 2,000 मर्दों ने उनकी इस घोषणा का समर्थन किया.
पंचायत के अगुआ का फरमान अजीब हैः 40 साल से कम उम्र की औरतें अपने पास मोबाइल फोन न रखें, सिर ढके बिना घर से बाहर न निकलें और किसी मर्द के साथ के बिना साप्ताहिक पैठ (बाजार) में न जाएं. विडंबना यह है कि वे एक ऐसे मंच से भीड़ को संबोधित कर रहे थे जो असारा के गौरव, एक को-एजुकेशनल मुस्लिम इंटर कॉलेज (1924 में स्थापित) से कुछ ही दूरी पर बना था. उन्होंने प्रेम विवाह और युवकों के मोटरसाइिकल से चलने के दौरान ईयरफोन लगाकर संगीत सुनने पर भी पाबंदी लगा दी.
हिंदू से मुस्लिम बने जाटों की बहुलता वाला 25,000 की जनसंख्या वाला यह गांव दिल्ली की ओर जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग सं. 57 के किनारे गन्ने के खेतों और आम के बगीचों से ढका हुआ है. यहां नई-नई थोपी गई पितृ सत्ता का पहला संकेत चारा काट कर घर लौट रही मंथर गति से चलती बैलगाड़ी पर बैठी महिला के उदास चेहरे पर दिखता है.
असारा के अंदर जीवन और दिनों की तरह सामान्य ही दिखता है. गांव को लहरदार तरीके से घेरने वाली कंक्रीट की सड़क के किनारे दोनों तरफ बनी दुकानों पर वैसी ही भीड़ है जैसी आम तौर पर शनिवार की सुबह होती है. लेकिन कोई भी चौकन्ना आदमी यह नहीं बता पाता कि मोकहम कहां हैं: ''मैंने उन्हें यूनानी दवाखाना के पास देखा है'' या ''वे इंटर कॉलेज की तरफ जा रहे थे.'' लेकिन कोई नहीं जानता कि वह आदमी कहां है जिसने लखनऊ से लेकर दिल्ली तक को हिला कर रख दिया है.
लोगों की प्रतिक्रिया जाहिरा तौर पर रटी-रटाई थी. 72 वर्ष के हाजी इस्त्राइल कहते हैं, ''यहां कोई भी फ रमान या फतवा नहीं जारी किया गया है.'' वे जोर देकर कहते हैं कि जुमे की नमाज के बाद मर्दों के बीच चर्चा के दौरान कुछ मशवरे सामने आए थे और इससे ज्यादा कुछ नहीं है. 61 साल के कय्यूम अली भी यही बात दोहराते हैं और दूसरे अन्य लोग भी.
मोकहम और उनके साथी मुजाहिद 11 जुलाई से ही 'भूमिगत' हो गए हैं, जब करीब 250 गुस्साए समर्थकों की भीड़ ने इन दोनों को एसडीएम ऑफिस से 'बचाकर' बाहर निकाला था, वहां उन्हें पूछताछ के लिए बुलाया गया था. मोकहम के समर्थकों ने सब-इंस्पेक्टर प्रह्लाद सिंह और कांस्टेबल गुलाब सिंह पर हमला भी किया था और उनकी मोटरसाइकिल जला दी थी. ये दोनों पुलिस कर्मी फरमान के बारे में पूछताछ करने के लिए असारा गए हुए थे.
लेकिन देशभर में गुस्से के बावजूद बागपत जिला प्रशासन इस गैर-कानूनी फरमान के खिलाफ कुछ कर पाने में असहाय दिख रहा है. 36 साल की जिलाधिकारी अमृता सोनी कहती हैं, ''जब तक कोई शिकायत नहीं दर्ज कराता, हम कुछ नहीं कर सकते.'' राज्य के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री आजम खान और केंद्रीय नागरिक उड्डयन मंत्री अजित सिंह के बेटे जयंत चौधरी के असारा की महिलाओं के बारे में इस निर्णय का खुलेआम समर्थन करने के बाद जिलाधिकारी जाहिरा तौर पर राजनैतिक दबाव में हैं.
70 वर्ष की रईसा बेगम इन नए-नए फतवों से चकराई हुई हैं. वे कहती हैं, ''हम हमेशा अपना सिर ढक कर रखते हैं और किसी भी मर्द को यह याद कराने की जरूरत नहीं है.'' वे औरतों को अकेले बाहर न जाने देने के आदेश से भी हैरान हैं. असारा की औरतें खेतों में काम करने जाती हैं और युवा लड़कियां आसपास के कस्बों में कॉलेज में पढ़ने या काम करने के लिए जाती हैं. रईसा बेगम के मुताबिक औरत को अगर हर वक्त बाहर जाने के लिए किसी के साथ की जरूरत पड़ी तब तो जिंदगी ठहर जाएगी.
इस बुजुर्ग महिला की पोतियों में कुछ हिम्मत है लेकिन वे भी इस आदेश से परेशान दिख रही हैं. मुस्लिम इंटर कॉलेज में ग्यारहवीं की छात्रा, 16 साल की साबिरा परवीन कई लड़कों से ज्यादा नंबर लाती है और इनाम में मिले सामान-नोकिया का मोबाइल फोन दिखाने से नहीं हिचकती. वह कहती है, ''इससे मुझे सुरक्षा का भरोसा रहता है.'' इस फोन को छीन लिए जाने की आशंका से वह उदास हो जाती है.
ईंट की सड़क पर काफ ी दूर एक दूसरे छोर पर मोकहम की बेटी बताती है कि वे घर पर नहीं हैं. 18 वर्ष की इशरत जहां जो असारा से 17 किमी दूर बड़ौत गांव के गायत्री देवी कॉलेज से राजनीतिशास्त्र और इतिहास में ग्रेजुएशन कर रही है, अपने वालिद का मजबूती से बचाव करती है, ''उनका मतलब सिर्फ यह है कि गांव में अच्छे मूल्यों की सीख दी जाए. मैं नहीं समझ्ती कि इसमें कुछ गलत है.''
उसने यह भी कहा कि युवा लड़कियों को साप्ताहिक बाजार जाने से रोकने में भी समझ्दारी है क्योंकि ''वहां सैकड़ों बाहरी लोग आते-जाते रहते हैं'' और मोबाइल फोन के इस्तेमाल पर रोक सिर्फ इसलिए ताकि इसके ''दुरुपयोग को रोका जाए.'' गौर करने वाली बात यह है कि इशरत और 22 साल की उसकी चचेरी बहन रकीबा, दोनों कॉलेज मोबाइल फोन लेकर जाती हैं ताकि घरवालों से संपर्क बना रहे.
इस मुस्लिम इंटर कॉलेज में अर्थशास्त्र पढ़ाने वाले 48 वर्ष के शकील अहमद भी मोकहम के 6 जुलाई के फरमान का समर्थन करते हैं. वे कहते हैं, ''यह सब गांव की भलाई के लिए है. यहां तक कि औरतें भी इससे राजी हैं.'' वे लड़कियों को शिक्षित करने की असारा की पुरानी परंपरा की भी चर्चा करते हैं-मुस्लिम इंटर कॉलेज में कुल 1,400 छात्र-छात्राएं हैं. इस गांव को महिला शिक्षा के लिए 2010 में राज्य सरकार का अवॉर्ड मिला है. वे कहते हैं, ''यह गांव हमारे परिवार की तरह है, हमें इसकी रक्षा करनी चाहिए.''
लेकिन गांव में हर कोई उनके विचार का समर्थन नहीं करता. मौजूदा पंचायत के प्रधान 50 वर्ष के मुशर्रफ चौधरी कहते हैं, ''कोई जोर-जबरदस्ती नहीं होनी चाहिए.'' चौधरी ने इस विवादास्पद फरमान की घोषणा करने वाले मर्दों के गैर-आधिकारिक जमावड़े में शामिल होने से इनकार कर दिया था. यह स्वीकार करते हुए कि गांव में सामाजिक बुराइयां बढ़ रही हैं, मुशर्रफ का मानना है कि इससे निबटने का एक ही तरीका है कि युवा लड़के-लड़कियों को अच्छी शिक्षा दी जाए. वे कहते हैं, ''पढ़-लिखकर बच्चे खुद अच्छे-बुरे की पहचान कर सकते हैं.'' वे साथ में यह भी कहते हैं कि अगर मां-बाप प्रेम करने वाले युवा जोड़ों की शादी कर दें तो उन्हें भागकर शादी करने की जरूरत नहीं पड़ेगी.
फिलहाल, महिलाओं को पितृ सत्ता की परंपरा का दंश झेलना पड़ रहा है. असारा की महिलाओं के लिए तो यह दोहरा बंधन है, जहां उन्हें जाट समुदाय के रीति-रिवाजों के सड़े हुए अवशेषों और नए-नए थोपे गए इस्लामी रिवाजों के साथ रहना पड़ रहा है.