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फाइन आर्ट्स: देखिए पारखी नजरों को

वडोदरा की एमएस यूनिवर्सिटी का फाइन आर्ट्स विभाग इस विधा में देश का सर्वश्रेष्ठ है. दूसरे आर्ट्स कॉलेज भी इसके स्तर को पाने की कोशिश कर रहे हैं.

अपडेटेड 13 जून , 2012

कई सदियों तक राजे-रजवाड़ों के संरक्षण के कारण वडोदरा वासियों के लिए कला जीवन शैली का एक हिस्सा बनी रही. यहां के गायकवाड़ राजाओं ने राजा रवि वर्मा जैसे चित्रकारों से पोर्ट्रेट बनवाने के अलावा दुनियाभर से मंगवाई गई कलाकृतियों के जबरदस्त संग्रह का प्रदर्शन करने के लिए यहां एक संग्रहालय खुलवा दिया.

बड़ौदा यूनिर्विसटी में 1949 में ललित कला संकाय (फैकल्टी ऑफ फाइन आर्ट्स) खुलने के बाद से यह शहर भारतीय कला की नर्सरी के रूप में स्थापित हो सका.

पिछले कुछ दशकों में संकाय को एक उदारवादी और प्रगतिशील संस्थान होने की प्रतिष्ठा मिली जिसने कलात्मक प्रयोगों को प्रोत्साहित किया. यहां विद्यार्थियों को एक ऐसा माहौल मिला जहां वे अपनी कल्पना को साकार करने के लिए मुक्त थे और यह परिसर उन्मुक्त विचारों के आदान-प्रदान को भी प्रोत्साहन देता था.Fine Arts colleges

फैकल्टी प्रयोगों को लेकर काफी सहयोगात्मक रवैया रखती, नए और असामान्य माध्यमों में काम करती तथा यहां नया सौंदर्यशास्त्र गढ़ने का काम होता था. देशभर के कला विद्यार्थी यहां प्रवेश पाने की ललक रखते ताकि उन्हें लक्ष्मा गौड़, नसरीन मोहम्मदी और शंखो चौधरी जैसे शिक्षकों से सीखने का मौका मिले. देश के दूसरे कला स्कूल जहां अपना नाम कमाने की होड़ में लगे थे, यहां का संकाय अपने शिक्षकों और छात्रों की वजह से उनसे कहीं आगे था.

संस्थान में बरसों कला इतिहास और पेंटिंग पढ़ाने वाले 75 वर्षीय गुलाम मोहम्मद शेख बताते हैं, ''फैकल्टी ऑफ फाइन आर्ट्स देश का पहला ललित कला कॉलेज था जिसने बाकायदा डिग्री कोर्स शुरू किया. इस संस्थान का चरित्र ग्लोबल है. यह सबका है और किसी का भी नहीं-इसके दरवाजे कभी बंद नहीं हुए.''

इस कॉलेज में 1976 से 1981 के बीच पढ़ी 53 वर्षीया रेखा रोड़वतिया कहती हैं, ''सत्तर के दशक के अंत और अस्सी के दशक की शुरुआत में फैकल्टी ऑफ फाइन आर्ट्स ऐसे शिक्षण का केंद्र था जो विजुअल आर्ट्स में कला ऐतिहासिक संरचना और सैद्धांतिक ढांचे में शिक्षण की प्रेरणा देता था. यहां एक राजनैतिक चेतना भी पैदा होती थी जो कलाकारों को अपनी अभिव्यक्ति के लिए निजी मान्यताओं के संदर्भ ढूंढ़ने में मदद करती थी.''

लेकिन नब्बे के दशक के अंत तक संस्थान की हालत बुरी हो गई. अगले 15 साल के दौरान यहां विवादों का घेरा रहा जिसमें परिसर को कट्टरपंथियों के हमले से लेकर टुच्ची राजनीति तक सब कुछ का गवाह बनना पड़ा. रोड़वतिया कहती हैं, ''पिछले दशक के दौरान फैकल्टी ऑफ फाइन आर्ट्स के मानकों में गिरावट आई है. आज उसकी प्रतिष्ठा सिर्फ उसके सुनहरे अतीत की विरासत भर है. चूंकि भारत के अन्य विजुअल आर्ट्स कॉलेज बदहाल हैं, लिहाजा बड़ौदा को अब भी सर्वश्रेष्ठ होने का सुख हासिल है.''MS university History

इसके बावजूद फैकल्टी ऑफ फाइन आर्ट्स को चाहने वाले कई लोग हैं. इस शहर में करीब 1,600 से ज्‍यादा कलाकार रहते हैं. हर साल ग्रेजुएट या पोस्ट ग्रेजुएट कार्यक्रम में 130 विद्यार्थी दाखिला लेकर ललित कला संकाय के पवित्र द्वार में कदम रखते हैं जिसे 19वीं सदी में रॉबर्ट फेलोज चिशोम ने मुगल भारतीय शैली में डिजाइन किया था.

पेंटिंग और एप्लाइड आर्ट्स के अलावा यहां तीसरी प्रमुख विधा है शिल्पकला, लेकिन पेंटिंग विभाग का यहां पर राज है. अपनी स्थापना के छह दशक में फैकल्टी ऑफ फाइन आर्ट्स ने ऐसे कलाकार पैदा किए हैं जो दुनिया भर की प्रदर्शनियों में हिस्सा ले चुके हैं, जैसे पेरिस द्विवार्षिक, साओ पाउलो द्विवार्षिक और टोक्यो द्विवार्षिक प्रदर्शनियां. भारत के कई बेहतरीन और मशहूर कलाकार कला की बुनियादी शिक्षा के लिए एमएस यूनिवर्सिटी की फैकल्टी ऑफ फाइन आर्ट्स के ऋणी हैं. यही पर्याप्त वजह है कि इंडिया टुडे-नीलसन के वार्षिक कॉलेज सर्वेक्षण 2012 में इसे पहला स्थान हासिल हुआ है.

विद्यार्थियों की सालाना प्रदर्शनी में दुनियाभर से कला संरक्षक यूनिवर्सिटी के परिसर में नए सितारों की तलाश में आते हैं. वर्ष 2009 से फैकल्टी ऑफ फाइन आर्ट्स के प्रभारी डीन शैलेंद्र के. कुशवाहा कहते हैं, ''बड़ौदा देश के दो व्यावसायिक कला बाजारों दिल्ली और मुंबई से सिर्फ एक रात के सफर की दूरी पर है.'' कला के क्षेत्र में संघर्षरत विद्यार्थी इस बात को जानकर संतुष्ट हो सकते हैं कि एफएफए में उनके सपनों को किसी न किसी दिन शोहरत के पंख लगेंगे ही, और वह दिन अब ज्‍यादा दूर नहीं.

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