एक जमाना था, जब परिवार नियोजन के लिए प्रोत्साहित करने वाले सरकारी विज्ञापन परिवारों के लिए असहजता के कारण थे. अब दुनिया काफी आगे निकल गई है. खुलापन हावी है और इसका असर विज्ञापनों पर भी बखूबी नजर आ रहा है. छोटे परदे पर डियोडरेंट, कार, साबुन, इनवर्टर, बाम और कोल्ड ड्रिंक के हॉट विज्ञापनों की भरमार है. इनमें अकसर ऐसे क्षण आ जाते हैं, जब पूरा परिवार कुछ समय के लिए बगलें झांकने या फिर चैनल बदलने पर मजबूर हो जाता है, हालांकि उनमें से ज्यादातर अकेले में उन्हें एक बार देखना चाहते हैं.
इन विज्ञापनों में टेलर की दुकान पर नाप लेते दर्जी के पाउडर की महक पर बेकाबू होती युवती से लेकर किशोर मरीज के डियो की खुशबू सूंघने पर डेंटिस्ट की ड्रेस के टूटते बटनों से उत्तेजना का एहसास तक शामिल है. इनमें सेक्सुअल कंटेंट की अधिकता की अगुआई डियोडरेंट से जुड़े विज्ञापन कर रहे हैं. इस बाबत विज्ञापन एजेंसी टैपरूट इंडिया के चीफ क्रिएटिव ऑफिसर एग्नेलो डायज़ कहते हैं, 'डियोडरेंट्स के विज्ञापन सेक्स अपील पर ही बिल्ड हुए हैं. पिछले पांच-छह साल से यह चलन रहा है. पूरा फंडा मेल का फिमेल को अपनी ओर आकर्षित करने का ही है.'
टीवी इस तरह के विज्ञापनों से लबरेज है. विवाहेतर संबंध नए रुझान के रूप में सामने आ रहा है. फिर वह अमृतांजन बाम की रेलगाड़ी में सफर करती सविता भाभी स्टाइल महिला हो या फिर स्काइबैग में जॉन अब्राहम का अपनी प्रेयसी के साथ रंगरेलियां मनाने के दौरान उसके पति के आने पर अलमारी में छिपना. बेशक इनमें दृश्यात्मक अश्लीलता ज्यादा नहीं है लेकिन प्रतीकात्मकता अपने चरम पर है.
दर्शकों को लुभाने की इस कवायद में बॉलीवुड की अभिनेत्रियां भी पीछे नहीं हैं. हाल के दिनों में आमसूत्र के ऐड में कैटरीना कैफ की अदाएं और स्लाइस की कुछ बूंदों को तरसते उनके होंठ, वीनस सोप के विज्ञापन में विद्या बालन की नंगी पीठ और मिरिंडा के ऐड में असिन का कुछ इस तरह से तेज-तेज सांसें लेना जो कुछ अलग ही भ्रम पैदा करता है, खासे चर्चा में हैं. इस पहलू पर भी गौर किया जाना चाहिए कि भारत उन देशों में है जहां विज्ञापनों में सेलिब्रिटीज का सबसे ज्यादा इस्तेमाल होता है. इस कड़ी में उनकी यही कोशिश रहती है कि किस तरह से दर्शकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया जा सकता है.
लेकिन सबसे अहम पहलू बच्चे हैं. एसोचैम के अपने सोशल डेवलपमेंट फाउंडेशन के तहत कराए गए एक सर्वेक्षण में इस बात का खुलासा हुआ है कि 6-17 वर्ष की आयु वर्ग के बच्चे हफ्ते में 35 घंटे टेलीविजन देखते हैं. और सर्वे में शामिल 90 फीसदी माता-पिता मानते हैं कि टीवी पर आने वाली सामग्री बद से बदतर होती जा रही है. इसकी वजह उनमें बढ़ती आपत्तिजनक तथा अश्लील भाषा और एडल्ट कंटेंट हैं जिनकी खुराक शाम सात से 10 बजे के बीच आने वाले कार्यक्रमों और विज्ञापनों में ज्यादा है. एक मल्टीनेशनल कंपनी में नेटवर्क इंजीनियर, दिल्ली के अभिजीत कपूर कहते हैं, 'आइपीएल के साथ ही विज्ञापनों की बहार आ गई है. इसमें वी-गार्ड इनवर्टर का विज्ञापन भी है. उसे देख मेरे छह वर्षीय बेटे ने पूछा कि पापा यह क्या हुआ? मैं तो झेंप ही गया. अब जैसे ही मैच के बीच में कोई विज्ञापन आता है तो हम चैनल ही बदल लेते हैं. पता नहीं, कब क्या आ जाए.'
अब आप यह जानने को बेताब होंगे कि उन्होंने ऐसा आखिर क्यों किया? इसे इस तरह बांचें: सुहागरात का दृश्य. दुलहन महामिलन की सेज पर पति के साथ को कसमसा रही है तो दूल्हा दरवाजे के पास खड़ा अपनी चाहत का इजहार कर रहा है. दुलहन के मूड को भांपकर दुल्हा उसकी ओर बड़ी ही बेसब्री से बढ़ता है और कूद कर उसे हासिल कर लेना चाहता है. इतने में लाइट गुल हो जाती है. दुल्हे के शरीर का निचला हिस्सा पलंग से टकराता है. अगला दृश्यः दोनों शिशु एडॉप्शन एजेंसी के सामने हैं. अगर उनके यहां वी-गार्ड इनवर्टर होता तो शायद ऐसा नहीं होता. बेशक आपको कहानी समझ में आ ही गई होगी. मगर छह वर्षीय बालक तो इतना समझदार नहीं हो सकता. बेशक इसे फनी ऐड कहकर टाला जा सकता है. जरा इस पर नजर डालें: एक्स के एक्सट्रा स्ट्रांग के ऐड में ढेर सारी लड़कियां एक आदमी के घर में होती हैं और लड़की को कूल्हे मटकाते देख पुरुष का भी शरीर का निचला हिस्सा बेहूदा ढंग से हिलने लगता है.
इस चलन पर विज्ञापन एजेंसी रेडिफ्यूज़न वाइ ऐंड आर के क्रिएटिव हेड प्रणव हरिहर शर्मा कहते हैं, 'बेशक हम बदल रहे हैं और देश में युवाओं की संख्या भी अच्छी-खासी है. लेकिन हमारे संस्कार अब भी काफी हद तक पहले जैसे ही हैं. अब आप वोडाफोन के दो बच्चों और कुत्ते वाले ऐड को लें. बेशक उसमें सीधे-सीधे कुछ भी आपत्तिजनक नहीं दिखता लेकिन लड़के-लड़की के किस्से को जिस तरह दिखाया गया है. वह हमारी सोसायटी के मुताबिक नहीं है क्योंकि ये बच्चे किशोर नहीं हैं, काफी छोटे हैं. यह काफी डिस्टर्बिंग है.'
हालांकि एग्नेलो का यह भी मानना है कि विज्ञापनों को हमेशा जान-बूझकर मसालेदार नहीं बनाया जाता है. वे कहते हैं, 'कई बार कंपनी छोटी होती है. वे किसी बड़ी सेलिब्रिटी को पे नहीं कर सकती हैं. इन हालात में वे ऐसी सिचुएशन और टॉपिक चुनते हैं, जिनसे सबका ध्यान खींचा जा सके.' बेशक सिर्फ 30 सेकंड के खेल में दर्शक के दिल में ब्रांड की छाप छोड़ने की कोशिश ही इस तरह के विज्ञापनों के सृजन की वजह बन जाती है.
उधर, विज्ञापनों में सेक्सुअल कंटेंट की ज्यादा खुराक के बारे में विज्ञापन जगत के अपने नियामक संगठन एडवर्टाइजिंग स्टैंडर्ड्स काउंसिल ऑफ इंडिया (एएससीआइ) के सेक्रेटरी जनरल एलन कोलाको कहते हैं, '2011-12 में 180 विज्ञापनों को लेकर 2,000 शिकायतें आई थीं.' सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने 2011 में मनोरंजन चैनलों को 25 नोटिस जारी किए थे. जबकि 2010 में नोटिसों का यह आंकड़ा सिर्फ 13 ही रहा. ऐसे विज्ञापनों जिन पर प्रतिबंध लगाना पड़ा उनमें एक्स इफेक्ट, ज़टाक डेंटिस्ट ऐड, सेट वेट डियोडरेंट ऐड और अमूल माचो अंडरवियर के नाम प्रमुखता से लिए जा सकते हैं. कोलाको कहते हैं, 'हमें लगा कि इन विज्ञापनों में यौनेच्छा का खुल्लम-खुल्ला प्रदर्शन है और नारी की प्रतिष्ठा को कम करके पेश किया गया है.' मजेदार पहलू यह कि इन विज्ञापनों की निर्माता राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर की बड़ी कंपनियां संपर्क करने पर इस मसले पर कोई भी बात करने से साफ कन्नी काट गईं.
दूसरी ओर, ऐड गुरु प्रहलाद कक्कड़ इस तरह के कंटेंट को कतई गलत नहीं मानते. उनका कहना है, 'हम डबल स्टैंडर्ड नहीं अपना सकते. अगर फिल्मों, समाचार और संगीत चैनलों के जरिए सब कुछ टीवी पर पहुंच रहा है तो विज्ञापनों में इस तरह की सामग्री से क्या आपत्ति हो सकती है. सोसायटी में जो होता है, विज्ञापनों में भी वही नजर आता है. अगर लगाम कसनी है तो हर माध्यम पर कसी जानी चाहिए.' आखिर अति नुकसान ही पहुंचाती है.