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निबंध संग्रह: प्रांजल भाषा का लालित्य

भय के  बीच भरोसा  श्रीराम परिहार का ललित निबंध संग्रह है, जिसके 28 निबंधों में भारतीय परंपरा, साहित्य-संस्कृति और समसामयिक विषयों को समेटा गया है. परिहार को अपनी लोक-संस्कृति की गहरी पहचान है.

अपडेटेड 1 अक्टूबर , 2011

लोक की ललकः श्रीराम परिहार

भय के बीच भरोसा
श्रीराम परिहार
नेशनल पब्लिशिंग हाउस, चौड़ा रास्ता,
जयपुर-3,
कीमतः 225 रु.
भय के बीच भरोसा श्रीराम परिहार का ललित निबंध संग्रह है, जिसके 28 निबंधों में भारतीय परंपरा, साहित्य-संस्कृति और समसामयिक विषयों को समेटा गया है. परिहार को अपनी लोक-संस्कृति की गहरी पहचान है. नर्मदा नदी में चांदनी रात में काव्यपाठ के बहाने वे प्रकृति को अपनी संपूर्णता में चित्रित करते हैं तो साथ ही नदी के पानी की बोतलों में बिकने की व्यथा भी व्यक्त करते हैं.

बछड़े के मुंह से निकले पहले शब्द 'मां' के जरिए वे देश के पशुधन के  संरक्षण की चिंता करते हैं और मनुष्य के जीवन में जीवदया और अहिंसा की भावना को रेखांकित करते हैं. पुस्तक के शीर्षक-निबंध में वे गुजरात की सांप्रदायिक हिंसा का विश्लेषण करते हुए धर्म के वास्तविक अर्थ की तलाश करते हैं. धर्म की वर्जनाएं धर्मग्रंथों और दर्शन के आरण्यकों में नहीं हैं, इबादतगाहों की दीवारों और धर्म को सही-सही न समझ पाने वालों की वेशभूषा और आचरण में हैं.

कबीर लेखक के प्रिय कवि हैं. संग्रह में उन पर दो निबंध हैं. 'राम निरंजन न्यारा' के माध्यम से लेखक ने भक्तिकाल और सांस्कृतिक जागरण की पड़ताल की है. वे इस तथ्य को स्थापित करते हैं कि सगुण भक्ति ने जहां समाज में एक भरोसा पैदा किया, वहीं निर्गुण भक्ति ने ईश्वरीय सत्ता का विकेंद्रीकरण किया.

कबीर ने वर्ण-व्यवस्था, आश्रम व्यवस्था, कर्मकांड तथा ईश्वर प्राप्ति के साधनों पर सामंती पहरेदारी को अस्वीकार किया. लेखक की चिंता यह भी है कि खंड-खंड होते कबीर के भारत में कबीर को विश्वविद्यालयों में पढ़ा, समझकर हमने भावी पीढ़ी में कोई सही पारख परख विकसित की है? मीरा, रसखान, महादेवी, माखनलाल चतुर्वेदी पर लिखे आलेखों में वे उनके समय की खोज-खबर भी लेते हैं.

लेखक ने अपने लोक और उससे जुड़ी परंपराओं पर भरपूर लेखनी चलाई है. उसका मानस उत्सवधर्मी है. विजयादशमी, गणगौर, सावन, संजा जैसे पर्व-त्यौहारों के बहाने वे लोक से जुड़ी स्मृतियों और इनकी सामाजिकता को रेखांकित करते हैं. लोकगीतों की चर्चा करते हुए लेखक उन्हें सामुदायिक धरोहर मानता है. इनके सृजन में समाज के हर रचनाशील व्यक्ति की भागीदारी है. लोकगीतों में लोकजीवन का मर्यादित खुलापन उद्घाटित होता है. यह खुलापन प्रेमगीतों, विवाह गीतों, गारी गीतों, सोहर इत्यादि में अपनी महनीयता के साथ मिलता है.

परिहार के  इन निबंधों की भाषा प्रांजल है. शिल्प में वह लालित्य है, जो निबंधों के लिए अनिवार्य तत्व है. उद्धरणों की भरमार है. देशी-विदेशी विद्वानों की सूक्तियां अटी पड़ी हैं.

भाषा को वे कई बार काव्यात्मकता के चरम पर ले जाते हैं. दूसरी ओर हिंदी के राष्ट्रभाषा न बन पाने का दर्द बयां करते हुए वे सीधे-सपाट लेकिन तल्ख स्वरों में प्रश्न भी करते हैं. इन निबंधों में लेखक की किसी प्रतिबद्ध विचारधारा या दृष्टि के दर्शन नहीं होते. ऐसे समय में जब साहित्य-संसार कविता-गल्प-आख्यान तक सिमटा जा रहा हो, इन ललित निबंधों को पढ़ना प्रीतिकर अनुभव है.

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