
पहलगाम आतंकी हमलों पर भारत के जवाबी एक्शन ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद पाकिस्तान ने भारत के सीमावर्ती इलाकों में जिस तरह हवाई हमले किए, और जैसे भारत ने इनका जवाब दिया, उससे तय हो गया कि ‘इन फ्यूचर वॉर’ का बड़ा हिस्सा आसमान में लड़ा जाएगा. चाहे वो भारत-पाकिस्तान हों या दुनिया के कोई और देश. भारत-पाकिस्तान के बीच हुई पिछली जंगों से इतर इस बार जिस तरह मिसाइल और ड्रोन एक दूसरे के ख़िलाफ़ इस्तेमाल हुए, उसने ये भी तय कर दिया कि दुश्मन पर भारी पड़ने के लिए भारत को मिसाइलों के क्षेत्र में जबरदस्त तैयारी करते रहनी पड़ेगी.
और जब बात भारत में मिसाइलों की हो तो बिना ‘मिसाइल मैन’ कहलाने वाले डॉ. ए.पी.जे अब्दुल कलाम के यह पूरी तो क्या, शुरू भी नहीं हो सकती. भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. कलाम भारत की ‘मिसाइल यात्रा’ में सबसे ज़रूरी मील का पत्थर माने जाते हैं. कलाम ने अपने जीवन का अंतिम समय स्कूल कॉलेज के बच्चों को समझने और उन्हें भारत का लक्ष्य समझाने में बिताया. कलाम की लिखी एक किताब इग्नाइटेड माइंड्स- अनलीशिंग द पावर विदिन इंडिया में कलाम ने एक ऐसी घटना का जिक्र किया है जो आज की आसमानी लड़ाई का बुनियादी पत्थर माना जा सकता है.
एक मिसाइल टेस्टिंग रेंज की खोज और भारत की ऐतिहासिक कामयाबी का अनसुना किस्सा जब भारत ने साबित कर दिया था कि देश अब हथियारों के लिए दूसरे देशों पर अपनी निर्भरता खत्म करने के दौर में पहुंच चुका है.
क्या है ये अनसुना किस्सा?
अस्सी के शुरुआती दशक में भारत ने ‘अग्नि’ सीरीज़ की बैलिस्टिक मिसाइल पर काम करना शुरू किया. लेकिन इसके लिए सबसे ज़रूरी जो चीज़ चाहिए थी वो थी एक डेडिकेटेड मिसाइल टेस्टिंग रेंज, जो कि हर तरह से मिसाइलों की लगातार टेस्टिंग के लिए मुफ़ीद हो.
1982 में डॉक्टर कलाम ‘इंटीग्रेटेड टेस्ट रेंज’ (आईटीआर) के पहले डायरेक्टर नियुक्त किए गए. भारत सरकार जब टेस्टिंग रेंज की तलाश में थी तब रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (DRDO) ने एक ऐसी जगह का पता लगाया जो सभी पैरामीटर्स पर ठीक लग रही थी. ये जगह थी ओडिशा (तब के उड़ीसा) में बालेश्वर जिले का एक समुद्री इलाका चांदीपुर.
इस जगह मिसाइल टेस्टिंग के दो फायदे थे- भारत अपनी टेस्टिंग को चुपचाप जारी रख सकता था और किसी भी हालत में आम नागरिकों की जान-माल का कोई नुक्सान नहीं होता. चांदीपुर में "प्रूफ एंड एक्सपेरिमेंटल एस्टैब्लिशमेंट" (PXE) बनाकर एक इंटीग्रेटेड फेसिलिटी तो बन गई लेकिन ये बहुत समय तक लगातार और तेजी से हो रही टेस्टिंग को झेल नहीं पा रही थी. यह जगह छोटी पड़ रही थी. इसके बाद डीआरडीओ की ज़रूरत देखते हुए भारत सरकार ने चांदीपुर के पास ही बालेश्वर जिले में बालीपाल नाम की एक जगह पर नेशनल टेस्टिंग रेंज बनाने की घोषणा कर दी.

लेकिन इसमें एक समस्या थी
नेशनल टेस्टिंग रेंज बनाने के लिए करीब 130 गांवों से एक लाख से ज्यादा लोगों को कहीं और बसाना पड़ता. ये सब करने में पहली बात तो ये कि बहुत समय खराब होता जो कि उस समय बिल्कुल भी नहीं था, क्योंकि 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद भारत जितनी जल्दी हो सके अपनी बैलिस्टिक मिसाइलें तैयार कर लेना चाहता था.
दूसरी समस्या यह थी कि इन एक लाख से ज्यादा लोगों को हटाने में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गैर-ज़रूरी ध्यान इस मामले पर खिंचता और ये बात छुपी ना रह जाती कि भारत इस जगह का क्या इस्तेमाल करना चाहता है.
इन दोनों समस्याओं की वजह से बालीपाल वाला प्लान डीआरडीओ को ठीक नहीं लग रहा था. लेकिन जिस तरह की टेस्टिंग रेंज चाहिए थी उस जैसी कोई जगह नक़्शे पर दिखाई नहीं दे रही थी. ऐसे में भारत का मिसाइल टेस्टिंग प्रोग्राम दोनों तरफ से मुश्किलों से घिर गया.
22 मई 1989 को अग्नि-I का पहला परीक्षण चांदीपुर में लॉन्च कॉम्प्लेक्स-III से किया गया. 1995 में सरकार ने चांदीपुर से बालीपाल टेस्टिंग रेंज स्थानांतरित करने की योजना को छोड़ दिया. अब एक नई टेस्टिंग रेंज की खोज जोर-शोर से शुरू हुई.
और फिर हुआ पृथ्वी परीक्षण
अक्टूबर 1993 में पृथ्वी मिसाइल के सफल परीक्षण के बाद, भारतीय सेना ने DRDO से एक ग्राउंड टेस्ट की मांग की ताकि एक्यूरेसी को साबित किया जा सके. सेना ये मानने को तैयार नहीं थी कि मिसाइल 150 किलोमीटर की सटीकता की ज़रूरत को पूरा करती है. DRDO राजस्थान के रेगिस्तानी परीक्षण स्थल पर यह परीक्षण सुरक्षा कारणों और भू-राजनीतिक चिंताओं के कारण नहीं कर सका, और अंडमान और निकोबार द्वीपों को दूर होने की वजह से खारिज कर दिया गया.
इसके बाद DRDO ने भारत के पूर्वी तट पर एक निर्जन द्वीप की तलाश शुरू की. कलाम ने धामरा तट के पास तीन छोटे द्वीपों को खोजा, जिन्हें हाइड्रोग्राफिक मानचित्र में "लॉन्ग व्हीलर", "कोकोनट व्हीलर" और "स्मॉल व्हीलर" के नाम से टैग किया गया था.
फिर निकला कलाम का ‘खोजी दस्ता’
कलाम ने वैज्ञानिकों डॉ. वी.के. सारस्वत और डॉ. एस.के. सलवान को इन द्वीपों को खोजने भेजा. उन्होंने धामरा से 250 रुपए में एक नाव किराए पर ली और एक कंपास के साथ निकल पड़े. लेकिन थोड़ी देर बाद ही ये लोग बंगाल की खाड़ी में रास्ता भटक गए और मछुआरों की मदद से एक द्वीप तक पहुंचे, जिसे मछुआरे “चंद्रचूड” कह रहे थे. जब डॉ. सारस्वत और डॉ. सलवान उस द्वीप पर पहुंचे, तो पुष्टि हो गई कि वह नक्शे में दर्ज "स्मॉल व्हीलर" द्वीप ही है और मिसाइल टेस्टिंग रेंज के लिए फिट भी है. हालांकि अब ये दोनों वैज्ञानिक तट से इतनी दूर थे कि उन्हें वापिस उतनी दूर लौटने में दोबारा भटकने का खतरा था. इसलिए उन्हें वहां रात गुजारनी पड़ी और सिर्फ केले खाकर रहना पड़ा.
आइलैंड खोजने के ठीक बाद वहां बांग्लादेश का झंडा दिखने पर, अपनी किताब में कलाम ने लिखा, “उनकी हैरानी तब और बढ़ गई जब उन्होंने देखा कि एक पेड़ पर बांग्लादेश का झंडा लगा था, शायद यह द्वीप बांग्लादेशी मछुआरों द्वारा उपयोग किया जाता रहा हो. मेरे मित्रों ने तुरंत वह झंडा हटा दिया.”

अब शुरू हुआ आइलैंड लेने का मामला
सिर्फ जगह खोजने से ही बात नहीं बन जाती. उस जगह को इंटीग्रेटेड टेस्टिंग रेंज बनाने के लिए एक लंबी कागज़ी प्रक्रिया भी करना पड़ती है. जगह जिस राज्य में हो वहां के मुख्यमंत्री और फिर प्रधानमंत्री दोनों को इस मामले पर सहमत होना पड़ेगा. कलाम ने तत्कालीन रक्षा मंत्री और प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव से अनुमति ली और ओडिशा के मुख्यमंत्री बीजू पटनायक को आइलैंड के उपयोग के लिए पत्र लिखा.
अब एक मुश्किल ये थी कि DRDO को ये जानकारी मिली कि राज्य सरकार उसे यह आइलैंड देने के पक्ष में नहीं है. और जब कलाम की चिट्ठी का जवाब लिखने की तैयारी में मुख्यमंत्री कार्यालय था ही, ठीक तभी खुद कलाम ही बीजू पटनायक से मिलने पहुंच गए. कलाम ने सीएम पटनायक को समझाया कि इस समय DRDO को यह आइलैंड मिलना क्यों बेहद ज़रूरी हैं. बीजू पटनायक मान गए और हंसते हुए कहा, "कलाम, मैं ये पांचों द्वीप तुम्हें मुफ्त दे रहा हूं, लेकिन शर्त है कि तुम वादा करो कि एक दिन चीन तक पहुंचने वाली मिसाइल बनाओगे"
कलाम ने वादा किया और मुख्यमंत्री ने फाइल पर हस्ताक्षर कर दिए. ओडिशा सरकार ने द्वीपों को 99 वर्षों के लिए लीज पर दिया.
डॉ. कलाम ने तब इन आइलैंड को अपना “एक्शन थियेटर” कहा था.

30 नवंबर 1993 को अब्दुल कलाम द्वीप पर पहला टेस्ट किया गया- पृथ्वी मिसाइल का सफल टेस्ट. सेना के तीनों प्रमुखों ने ये टेस्ट देखा. इसमें मिसाइल की सटीकता 27 मीटर रही, जबकि सेना की उम्मीद 150 मीटर की थी. परीक्षण स्थल पर अब एक ग्रेनाइट स्मारक है जिसे "पृथ्वी पॉइंट" कहा जाता है. जब DRDO को द्वीप सौंपा गया था, तब वह निर्जन था. आज अब्दुल कलाम द्वीप पर आम जनता का प्रवेश वर्जित है और केवल DRDO या रक्षा मंत्रालय के अधिकारी ही वहां जा सकते हैं. पत्रकारों को भी कभी-कभी अनुमति मिलती है. अधिकांश समय द्वीप खाली रहता है, लेकिन परीक्षण के समय हजारों वैज्ञानिक, तकनीशियन और स्टाफ वहां जुटते हैं. 2017 में व्हीलर आइलैंड का नाम पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम के नाम पर रख दिया गया. अब इसे ‘अब्दुल कलाम आइलैंड’ के नाम से जाना जाता है.

क्या क्या है इस आइलैंड पर?
इस टेस्टिंग रेंज में लॉन्च पैड, मिसाइल असेंबली/चेकआउट बिल्डिंग्स, प्रशासनिक और अन्य सहायक भवन शामिल हैं. आइलैंड तक पहुंचने के लिए कोई पुल या एयरपोर्ट नहीं है, केवल पानी के जहाज से ही पहुंचा जा सकता है. एक छोटा हेलीपैड जरूर है, लेकिन मिसाइल ढांचे, सामान और भारी उपकरण जहाज द्वारा ही लाए जाते हैं. अब्दुल कलाम आइलैंड पर 2.3 किलोमीटर लंबी रेलवे लाइन है जो मिसाइल असेंबली से लॉन्च पैड तक जाती है और इसी के जरिए मिसाइल ढांचे को ले जाया जाता है. यहां DRDO के वैज्ञानिकों और स्टाफ के लिए रिहायशी सुविधा भी उपलब्ध है, लेकिन यहां सिर्फ टेस्टिंग के समय ही लोग पहुंचते हैं.