डॉ. पूजा त्रिपाठी/ लॉकडाउन डायरीः अठारह
बहुत छोटी थी तो पापा को कभी समय से आते नहीं देखा, हॉस्पिटल से आते उनको इतनी देर हो जाती थी कि मोहल्ले के सारे घरों की बिजली बंद हो जाती थी. उस समय अक्सर सुनते थे, बड़ा नेक प्रोफेशन है, भगवान सरीखा. बड़ी होकर जब खुद उस प्रोफेशन में आई और सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था को करीब से देखा तो जाना कि हम जिसमें सुधार नहीं लाना चाहते, उस पर महानता का लेबल चस्पां कर देते हैं, भगवान बना देते हैं.
इस महामारी के दौर में सब कुछ वही है. डॉक्टर भगवान बन गए हैं, Thank You frontline health workers के नाम से सोशल मीडिया पर मुहिम चलायी जा रही है, प्रधानमंत्री के कहने पर लोग घरों से निकल कर ताली बजाते हैं, थाली बजाते हैं और डॉक्टरों के सैनिक कह कर हम उन्हें उस पायदान पर बैठा देते हैं जहाँ से, जिसपर, जिसके लिए सवाल नहीं पूछे जाते.
ठीक वैसे ही जैसे ही सैनिकों को महान बता दिया जाता है, फिर उनकी तैयारी कैसी है ये कोई नहीं पूछता. देशभक्ति का स्केल हर वस्तु को छोटा ही दिखाता है. शहीद होना, देश के लिए बलिदान देना इतना असाधारण काम है कि पेंशन के लिए भटकते बूढ़े पैर और पीछे बच गयी आँखों के नीचे की झुर्रियां किसी को नहीं दिखती.
कोरोना के वक़्त नए हीरो हैं हमारे पास. अब डॉक्टर सैनिक बन गए हैं. पीपीई किट जो डॉक्टर को इन्फेक्शन से बचाती है, वो अधिकतर डॉक्टरों के पास नहीं है. सवाल मत पूछिए, मांग मत करिए, बस अपना काम करते रहिये.
अमेरिका में वेंटीलेटर इतने कम पड़ गए हैं कि यह देखा जा रहा है कि किसे जरुरत ज्यादा है, जीने की, साँसों की. पर यह तय कौन करेगा कि किसे जीने की जरुरत ज्यादा है. हो सकता है कि अपनी सारी जिम्मेदारियों से मुक्त होकर किसी घुटन भरे रिश्ते से आज़ाद होकर किसी ने जीना ही 60 साल बाद शुरू किया. इटली में एक अकेली महिला ने डॉक्टर की उलझन देखते हुए कहा “वेंटीलेटर उसे दीजिये जिसे ज्यादा जरुरत है, मैंने एक अच्छी ज़िन्दगी जी है” . हम हर दिन कितनी ही कहानियाँ सुनते हैं. वो कहानियाँ जो हमें तैयार कर रही है, एक ऐसे भयावह खालीपन के लिए जो कभी नहीं भरेगा.
एक 42 साल का व्यक्ति आखिरी सांसें गिन रहा है न्यू यॉर्क के हॉस्पिटल में. डॉक्टर मोबाइल लेकर आइसोलेशन वार्ड में जाते हैं और उसकी पत्नी से वीडियो कॉल करवाते हैं. पत्नी शुक्रिया कहती है कॉलेज के समय लिखे सारे प्रेम पत्रों के लिए, शाम की कॉफ़ी के लिए, छोटे से साथ के लिए, शादी के वादों को निभाने के लिए, दो छोटे बच्चों के लिए. व्यक्ति की सांस उखड़ती है, पल्स गिरता है और आँखें मुंद जाती हैं. पत्नी उन दोनों का वेडिंग सॉन्ग चलाती है. ये आखिरी विदाई है.
इस बीमारी ने हमसे आखिरी बार गले लगाकर रोने का भी वक़्त छीन लिया है.
कभी कभी लगता है ये लड़ाई दो दैत्यों से हो रही है- कोरोना से और अकेलपन से. डॉक्टरों को आदत होती है किसी मरीज़ के साथ आते एक पूरे परिवार के होने का. ‘ ठीक तो हो जायेंगे’ ‘घर कब ले जा सकते हैं’ , ‘क्या खिलाना है’, क्या नहीं खिलाना है’ जैसे अनगिनत सवालों का, आइसीयू के बाहर बैठी उम्मीदों का, दुआ के लिए उठे हाथों का. पर इस बीमारी ने सब कुछ मिटा दिया है.
आइसोलेशन वार्ड में अकेला वक़्त काटते मरीज़ हैं, ऑक्सीजन ट्यूब, मॉनिटर के साथ राह ताकते आइसीयू हैं पर किसी छोटे बच्चे के हाथ-सी बनी बेमेल पेंटिंग नहीं है जिसमें ‘ गेट वेल सून’ लिखा हुआ है.
अनिश्चितता की चुप्पी और अनहोनी का सन्नाटा पसरा हुआ है चारों ओर.
कोई डॉक्टर घर नहीं जा रहा. होटल में, कार में रुके हैं. क्यूंकि घर की दहलीज़ लांगने के बाद हजारों दफा हाथ धोने के बाद भी अपने बच्चे को, अपने परिवार को संक्रमण होने का खतरा है. और PPE के बिना काम कर रहे ये सैनिक अपने घरों को जंग में नहीं ले जाना चाहते.
ये वक़्त गुजर जायेगा. हम सब इस बीमारी को याद रखेंगे कि इसने पूरी दुनिया को घरों में बंद कर दिया, देश के देश क्वारंटाइन में चले गए, जो शहर कभी नहीं रुकते थे, वे थम से गए. कितने ही सैनिक, कितने ही लोग बस मौत का एक आंकड़ा बन कर रह जायेंगे और फिर किसी दिन हम सुबह अख़बार खोलेंगे तो पाएंगे कि ‘ऑक्सीजन पर्याप्त मात्रा में नहीं होने के कारण सैंकड़ों नवजात मृत” हम फिर स्वास्थ्य में, सरकारी व्यवस्थाओं में निवेश नहीं करेंगे.
हम फिर इंतज़ार करेंगे किसी नए वैश्विक संकट का और फिर तलाश करेंगे नये हीरोज का जिनके लिए हम ताली बजा सकें.
(डॉ. पूजा त्रिपाठी पेशे से चिकित्सक हैं. यहां व्यक्त विचार उनके अपने हैं और उनसे इंडिया टुडे की सहमति आवश्यक नहीं है)
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