1928-2012
भारतीय मानस में टार्जन की परिकल्पना इसलिए नहीं की गई क्योंकि हमाारी चाह एक भले जंगली से कहीं ज्यादा की थी. हमारा पात्र बिलकुल भिन्न जीव का होना था-कुछ गंभीर, देसी और एक हद तक शर्मीला भी. हमारी संस्कृ ति में शारीरिक शक्ति को अहम माना गया है, लेकिन इसके साथ कुछ और गुणों की भी जरूरत होती है.
हमें अपने नायक में प्रकृति ही नहीं, खालिस परंपरा के तत्व भी चाहिए थे. वह जंगल से भले दूर रहता, लेकिन लोक की ताकत और देसी तरीके उसके भीतर समाहित होते. हमें टार्जन नहीं, पंजाब दा पुत्तर की जरूरत थी. हमारा नायक ऐसा होना था जिसमें बलिष्ठ देह के साथ परिपक्वता, गंभीरता और समझ्दारी भी मौजूद होती. जिसे न तो हंसी मजाक डिगा सके, न ही कोई उसे टक्कर दे सके. सिर्फ अखाड़ेबाज होना काफी नहीं था.
निश्चित तौर पर विभाजन के दौरान अखाड़ों की एक भूमिका थी और बाद के चुनावों में भी रही, लेकिन हमारे पहलवान को ऐसा होना था जो जिंदगी पर दांव लगा सके. जिंदगी की इस जंग को व्यापक सामाजिक और यहां तक कि सभ्यतागत छवियों के साथ हमारे बीच आना था. दारा सिंह उर्फ दीदार सिंह रंधावा का इतिहास और उनकी छवि ऐसे ही एक नायक की हमारी जरूरत को पूरा करती थी.
दारा सिर्फ पहलवान नहीं थे. वे लोक के नायक थे, खूबसूरत महिलाओं की चाह थे, हाट-मेलों का शाश्वत आनंद थे. पहलवान के रूप में वे किंवदंती बने रहे. वे कॉमनवेल्थ में लगातार जीत हासिल करते रहे और विश्व चैंपियन भी बने, हालांकि उस वक्त की दुनिया इतनी बड़ी नहीं थी जितनी आज है.
दारा सिंह लोकगाथा के ऐसे हिस्से थे जिसे बॉलीवुड में आने की बरसों से चाह थी. 1962 में किंग कांग फिल्म ने इस इच्छा को पूरा किया. उन्हें लगा कि सही पलों और सही मिथकों को चुनना जरूरी है. वे योद्धा थे. उनकी अच्छाई में उनकी शारीरिक और नैतिक, दोनों ही ताकत समाहित थी.
रामायण पर रामानंद सागर के बनाए सीरियल में वे हनुमान बने, तो जिंदगी भर उस छवि को खुद से दूर नहीं कर पाए. इस भूमिका ने उन्हें जिंदगी भर बांधे रखा. वे जानते थे कि हनुमान बनने के बाद वे गुंडे, मवाली की भूमिका नहीं कर सकते. अधिक से अधिक एक बूढ़े दादा का रोल निभा सकते हैं जो अनुशासित, नैतिक और पारंपरिक हो. ओलंपिक को उन्होंने अलविदा कह दिया क्योंकि वे पहले ही ओलंपिक में हिस्सा ले चुके थे.
दारा सिंह अपनी किस्म के इकलौते थे. उन्हें उनकी श्रेणी में ही रखा जा सकता था. वे प्रयोगों के लिए तैयार रहते. यह सच है कि उनकी असल ताकत दैहिक सौष्ठव ही था. रुस्तमे-हिंद से शुरू हुआ सफ र हिंदी फि ल्म उद्योग के ऐक्शन किंग तक गया. वे उस दौर के सलमान खान थे जब ऐसे किसी नायक की कल्पना करना तक मुश्किल था. दोनों में बस फ र्क यही है कि दारा हमेशा से काफी परिपक्व थे. उन्होंने मुमताज को खोजा और उनके साथ 16 फिल्में कीं.
बीजेपी को ऐसे ही लोक छवि वाले नायकों की तलाश टीवी पर रही है, लिहाजा उसने दारा को 2003 में राज्यसभा का सांसद बनाया. वे 2009 तक सांसद रहे. इसके बावजूद उनकी पहुंच अकेले हिंदी पट्टी तक सीमित नहीं थी, उन्होंने तमिल फि ल्मों में भी काम किया. मर्द की रीमेक मावीरन में वे रजनीकांत के पिता बने थे. आनंद में उन्होंने गेस्ट रोल किया था. उन्होंने कुल 118 फिल्मों में काम किया और इस सफर का अंत 2007 में जब वी मेट से हुआ. उस वक्त तक उनकी पहचान देसी बुद्धि वाले बलवान के रूप में बन चुकी थी.
उनकी शख्सियत में पंजाबी जोश था, जो उनकी आखिरी फिल्म में साफ दिखता है, जिसमें उन्होंने दादा की भूमिका निभाई थी. उन्हें अभिनय करने की जरूरत नहीं पड़ी, उनका होना ही उनका अभिनय था. पंजाबी में दिए उनके इंटरव्यू में उनके भीतर छुपी मानवता दिखती है. जब 59 साल की उम्र में उनसे हनुमान का रोल करने को कहा गया, तो उन्हें थोड़ा संकोच हुआ. उन्हें लगा कि यह भूमिका करने के लिए उनका शारीरिक आभामंडल वैसा है भी या नहीं.
वे काफी दिलचस्प तरीके से बूढ़े हुए. वे राजेश खन्ना या देव आनंद की तरह कुम्हलाए नहीं. उनकी मूंछें सफेद होती गईं, मांसपेशियों पर सिलवटें आती गईं. सब कुछ जिंदगी के प्रति गहरे जुड़ाव को दिखाता था. उनमें हास्य का पुट बढ़ता गया. उन्हें देखकर बार-बार लगता था कि वे एक खालिस हिंदुस्तानी ही रहेंगे-मूल्यों में देसी, प्रभाव में वैश्विक.
दारा सिंह का करियर, एक चैंपियन की जिंदगी भर नहीं था, बाद में जो कहानियां गढ़ी जाएंगी वे उन्हें जिंदगी का विजेता करार देंगी. बॉलीवुड में वे एक पराकाष्ठा की तरह थे, जहां उनके आते ही परदा जीवंत हो उठता था. परदे और जिंदगी में फर्क नहीं रह जाता था. यह फर्क समझने के लिए आपको यह मानना होता था कि आप किसी किंवदंती के सामने हैं.
लेखक समाज विज्ञानी हैं.