अंकिता जैन/ लॉकडाउन डायरीः बीस
कुछ देर पहले फ़ोन की बत्ती जली तो देखा मैसेज आया है. डोमिनोज़ से था. लिखा था वे पूरी तरह हायाजीनिक पिज़्ज़ा की होम डिलीवरी कर सकते हैं. एक दम फ्रेश और अनटच. मैं मैसेज देख मुस्कुराई. इसलिए नहीं कि यह मैसेज उस समय में आया जब देश में लॉकडाउन लगा है. लोग घरों में कैद हैं. आवश्यक सामान की होम डिलीवरी ही हो रही है. दो राज्यों में कुछ इलाके सील हो चुके हैं और दो राज्यों ने अपने यहां लॉकडाउन बढ़ा दिया है.
ऐसे में पिज़्ज़ा डिलीवरी के मैसेज आना यूं तो उसे अफोर्ड करने वालों के लिए सुखदायी हो सकता है. किन्तु मेरे लिए? मेरे लिए तो यह तब भी संभव नहीं था जब लॉकडाउन नहीं था. मेरे इस छोटे से कस्बेनुमा जिले में पिज़्ज़ा डिलीवर करने के लिए उसकी दुकान भी तो होनी चाहिए.
रात के साढ़े आठ बजे, गोदी में बेटे को सुलाते, उस मैसेज को देखते मैं बहुत देर तक यही सोचती रही कि लॉकडाउन ने क्या वाक़ई हम जैसी कस्बाई इलाकों वाले संभ्रात घरों की बहुओं, छोटे शहरों की घरेलु औरतों के लिए भी कुछ बदला है?
मेरे इस कस्बे में जो होने को तो जिला है किन्तु पहाड़ों में बसे होने की वजह से यह बाकी दुनिया से तनिक अलग-थलग ही है. यहां हमारा जीवन सामान्य दिनों में भी लॉकडाउन जैसा ही बीतता है.
हम घरेलु स्त्रियां यूं भी महीनों तक घर से बाहर नहीं जातीं. ना यहां कोई मूवी हॉल है, ना डिस्क, न पब, ना मॉल, न रेस्टोरेंट, ना कॉफ़ी हाउस और ना क्लब. मध्यम परिवार की औरतें जिनके पति दुकानों पर चले जाते हैं, बच्चे स्कूल वे या तो अड़ोस-पड़ोस में समय बिता लेती हैं या टीवी देख लेती हैं.
बहुत हुआ तो ज़रा बहार टहल लिया या मंदिर ही हो आए. इनके लिए घर से बाहर निकलने का कोई नियम नहीं है. वह शौकिया होता है, या कभी कोई काम पड़ा तो. अन्यथा उनका अधिकांश समय घरों में ही बीतता है.ऐसे में यह लॉकडाउन उनके लिए क्या बदलाव लाया? सिवाय इसके कि अब उनका काम बढ़ गया है. पिछले कुछ दिनों में मैंने देखा सोशल मीडिया पर अपने कुछ मित्रों को जिन्होंने बड़े शान से झाड़ू-पोंछा, बरतन आदि के साथ तस्वीरें डालीं.
यह देखकर एक तरफ अच्छा लगा कि चलो आज यह बदलाव तो आया कि पुरुष भी घर के कामों में हाथ बंटा रहे हैं. किन्तु कस्बाई या छोटे शहरों में यह अब भी ना के बराबर ही देखने मिलता है.
घर की औरतें तो आदी होती हैं. मर्द नौकरी पेशा हो या दुकानदार उन्होंने अपने जीवन में शायद ही कभी अपना चाय का कप भी उठाकर रखा हो. यह काम या तो उनके यहाँ की काम वाली करती आई हैं या उनकी माताएं, पत्नियां या बहनें. अब अचानक से जब काम वाली को छुट्टी देनी पड़ी, तो यह ज़िम्मेदारी का बादल फटा उनकी पत्नियों, माताओं या बहनों पर.
यह कहानी अधिकांश आदर्शवादी मध्यमवर्गीय परिवारों की है. मायके में मेरा घर एक गली में है. जहां के पचास घरों में से सिर्फ एक महिला है जो नौकरीपेशा है.
अन्य की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में घर के काम, थोड़ा बहुत बाज़ार वह भी महीने में एक-दो दफ़ा, मंदिर या किसी रिश्तेदार के यहां जाना, अन्यथा शाम को गली में ही किसी के चबूतरे पर जमा होकर बातें कर लेना.
इन स्त्रियों के जीवन में लॉकडाउन ने कोई बहुत बड़ा अंतर नहीं लाया. वे उस तबके से नहीं जिन्हें राशन खरीदने की चिंता करनी पड़े क्योंकि अमीर न सही उन्होंने थोड़ा-थोड़ा करके ही सही इतना जोड़ लिया होता है कि दो माह की तनख्वा ना मिले या दो माह दुकान ना खुले तो भी उनके यहां चूल्हा जलता रहे.
वे मध्यमवर्ग नाम के उस तबके से हैं जहाँ औरतों को ना तो मजदूरी करने घर से बाहर जाना पड़ता है, ना ही क्लब्स या चैरिटी के लिए.
मैं औरों की क्या कहूं, यहां जशपुर में रहते हुए मेरा अधिकांश समय घर में ही बीतता है.
कई बार महीनों हो जाते हैं और मैं घर से बाहर नहीं जाती. मेरे आसपास का वातावरण भी ऐसा है कि मुझे लॉकडाउन में कुछ अलग महसूस करने के लिए खुद पर प्रेशर बनाना पड़ रहा है.
क्योंकि ना ही तो मेरे आसपास के आम और लीची के पेड़ों ने खुद पर बौर आने से उन्हें रोका, न ही जब ओले पड़े तो खेत की लौकी और गेहूं, खराब होने से रुक पाए. ना ही पक्षियों ने चहकना बंद किया है, ना ही खीरे की बेल ने बढ़ना, और ना ही उस पर आए फूलों में तितलियों ने बैठना.
ना ही मेरे तीन साल के बेटे ने अपनी शरारतें बंद की हैं, ना ही मेरे गुहारघर में खड़ी गाय ने दूध देना बंद किया है. हां इस लॉकडाउन ने जो कुछेक चीजों पर पाबंदी लगाई वो यह कि जब नानी ने संसार छोड़ा तो मैं उनकी अंत्येष्ठी में नहीं जा पाई.
एक चचेरे भाई की शादी थी जो लॉकडाउन की वजह से रुक गई. इन चंद गैरज़रूरी, यहां गैरज़रूरी इसलिए लिख रही हूं क्योंकि इनके बिना सांस नहीं थमेगी, इनके बिना भी जीवन चलता रहेगा, तो इनके सिवाय मेरे और मेरे जैसी हज़ारों कस्बाई घरेलू औरतों के जीवन में इस लॉकडाउन ने कोई बड़ा परिवर्तन नहीं लाया है सिवाय इसके कि अब हम इसके खत्म होने का इंतज़ार सिर्फ इसलिए कर रहे हैं कि हमारे पति-पिता-ससुर फिर काम पर जा सकें, और हमारी कामवालियां फिर काम पर आ सकें, ताकि हमें हमारी घरनुमा कैद में ही सही चंद लम्हात अकेले, अपने लिए मिल सकें.
(अंकिता जैन वैदिक वाटिका की निदेशक और सीडैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस विभाग में एक्स रिसर्च एसोसिएट और साहित्यकार हैं. जशपुर से उन्होंने यह लॉकडाउन डायरी लिखी है. यहां व्यक्त विचार उनके अपने हैं और उससे इंडिया टुडे की सहमति आवश्यक नहीं है)
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