नई दिल्ली। स्कूलों में योग की कक्षाएं लगने के बाद अब चरखा चलाने की कक्षाएं चलने लगे तो कैसा रहेगा? बापू का चरखा किसी म्यूजियम का हिस्सा न बनकर छात्र-छात्राओं की जीवनशैली का भी हिस्सा बन जाए तो इससे क्या किसी को ऐतराज होगा? शायद किसी को नहीं. गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति चरखे के फायदों को वैज्ञानिक तरह से प्रमाणित करने के काम में जुटी है. संस्था के डायरेक्टर दीपांकर श्री ज्ञान ने बताया कि ब्रेन बिहेवियर रिसर्च फाउंडेसन ऑफ इंडिया की टीम चरखे के मनोवैज्ञानिक प्रभाव पर शोध कर रही है. रिपोर्ट जल्द ही सामने आ जाएगी.
दीपांकर श्री ज्ञान ने बताया कि अभी हमने एक पायलट स्टडी की है. यानी एक छोटे सैंपल पर हम चरखे के प्रभाव को देख रहे हैं. अगर रिपोर्ट में सकारात्मक नतीजे आते हैं तो संस्था फिर इन नतीजों को आधार बनाकर बड़े शोध की तरफ बढ़ेगी. क्योंकि पूरी तरह चरखे के नतीजों के बारे में आश्वास्त होने के बाद हम कल्चर मिनिस्ट्री को चरखे को स्कूलों के पाठ्यक्रम में शामिल करने की सलाह भी दे सकते हैं. उन्होंने बताया कि अभी तक गांधी जी पर कई किताबें लिखीं गईं हैं. उनके दर्शन को खूब पढ़ा गया. लेकिन व्यवहारिक जीवन पर उन्हें कैसे शामिल करें इसके लिए यह एक प्रयास है.
इस शोध में लगी टीम के अगुवा रहे ब्रेन बिहेवियर एनालिस्ट आलोक कुमार मिश्रा ने बताया, हालांकि अभी रिपोर्ट तैयार होनी हैं. लेकिन जो डेटा अभी तक सामने आए हैं वे सकारात्मक नतीजों की तरफ इशारा करते हैं. शोध में ऑब्जेक्टिवटी बनी रहे इसके लिए हमने बेहद वैज्ञानिक प्रक्रिया अपनाई.
डॉ. आलोक मिश्रा कहते हैं, एक बार ये रिपोर्ट बनकर तैयार हो जाए तो साफ हो जाएगा कि चरखा चलाने से मानसिक और शारीरिक विकास होता है.? डॉ. मिश्रा कहते हैं, जिस तरह से मन और तन दोनों के लिए योग फायदेमंद है वैसे ही चरखे को चलाना से फायदा मिलता है.
डॉ. मिश्रा ने बताया कि यह मनोचिकित्सा विज्ञान में स्थापित तथ्य है कि हर तरह की एक्टविटी का असर हमारे व्यक्तित्व पर पड़ता है. किसी भी एक्टविटी के वक्त मस्तिष्क का खास हिस्सा सक्रिय होता है. हम अगर कंस्ट्रक्टिव एक्टवीटीज में अपना समय देते हैं तो सकारात्मक व्यक्तित्व का निर्माण होता है और अगर डिस्ट्रक्टिव एक्टवीटीज में अपना समय देते हैं तो नकारात्मक व्यक्तित्व बनता है. डा. मिश्रा कहते हैं चरखा चलाने में हमें एकाग्र होना पड़ता है.
इसका अनुभव मैंने तब किया जब मैंने एक बार चरखा चलाने की कोशिश की. मैंने पाया कि बार-बार चरखे का धागा टूट जा रहा था. मुझे समझ आया कि बिना एकाग्र हुए चरखा चलाना मुमकिन नहीं. कई सारे मानसिक बदलाव भी मैंने महसूस किए जैसे बिना सकारात्मक भाव के चरखा नहीं चलाया जा सकता. लेकिन ये मेरा बेहद व्यक्तिगत अनुभव था. इसलिए इस पर शोध करने की ठान ली.
उन्होंने गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति के सामने चरखे पर मनोवैज्ञानिक शोध करने का प्रस्ताव रखा. संस्था की ओर से उन्हें अनुमति और फंड दोनों मिल गए. वे कहते हैं हालांकि अभी यह केवल पायलट स्टडी ही है. पर सीमित सैंपल के साथ किया गया शोध एक वैज्ञानिक प्रमाण पत्र की तरह आगे एक बड़े शोध का रास्ता खोलेगा. ध्यान देने वाली बात यह है कि यह संस्था एक ऑटोनोमस बॉडी है. यह कल्चर मिनिस्ट्री का ही हिस्सा है. गांधी स्मृति एवं दर्शन के अध्यक्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं और उपाध्यक्ष केंद्रीय संस्कृति मंत्री महेश शर्मा हैं. ऐसे में अगर इस शोध के नतीजे सकारात्मक आते हैं तो स्कूलों में इसे लागू करने पर विचार करने की संभावना साफ नजर आती है.
शोध प्रक्रिया
इस शोध में प्री और पोस्ट एक्सपेरिमेंटल मैथड का इस्तेमाल किया गया है. सीमित सैंपल के दो ग्रुप हमने अपने अध्ययन के लिए लिया. एक ग्रुप को रोज चरखा चलाना था दूसरे ग्रुप को कुछ नहीं करना था. अध्ययन शुरू करने से पहले इनके कुछ मनोवैज्ञानिक पैरामीटर जैसे एकाग्र होने की क्षमता, याददाश्त, मस्तिष्क की तरंगों का डेटा लिया गया और फिर दोबारा इसी तरह हमने छह महीने तक चरखा चलवाने के बाद फिर इसका असर जानने के लिए साइकोलोजिकल टेस्ट्स के जरिए डेटा कलेक्ट किया. इस ग्रुप का भी प्री एंड पोस्ट डेटा लिया जिसे कुछ नहीं करवाया गया था. दोनों की तुलना कर चरख चलाने वाले और न चलाने वाले ग्रुप के बीच के फर्क का डेटा इकट्ठा किया गया.
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